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फिल्म

नैना बरसे…. गीत जो बन गया कहानी  

नैना बरसे…. गीत जो बन गया कहानी  

CREATOR: gd-jpeg v1.0 (using IJG JPEG v80), quality = 82 लेखक : दिलीप कुमार फ़िल्म 'वो कौन थी' में सस्पेंस, इंग्लिश नॉवेल की थ्रिल स्टोरी  साधना जी जैसी ख़ूबसूरत अदाकारामनोज कुमार जैसे कमाल के अभिनेता राज खोसला जैसे मंझे हुए निर्देशक सुर साम्राज्ञी लता जी जैसी गायिका मदनमोहन जी जैसे महान संवेदनशील संगीतकार सब कुछ था, लेकिन इस फ़िल्म में एक गीत भी था जो अपने आप में एक कहानी है. 'राजा मेहंदी अली खान' का लिखित गीत नैना बरसे रिमझिम रिमझिम जिसे महान संगीतकार मदनमोहन जी ने संगीतबद्ध किया. थ्रिलर, रूहानी कर्णप्रिय गीत जो आज भी दर्शकों की जुबान…
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आस्कर में छा गई ओपेन हाइमर

आस्कर में छा गई ओपेन हाइमर

96वें ऑस्कर अवॉर्ड्स में 'ओपेनहाइमर' और 'पूअर थिंग्स' का दबदबा रहा| बेस्ट फिल्म, बेस्ट डाइरेक्टर, बेस्ट एक्टर समेत बेस्ट ओरिजनल स्कोर का पुरस्कार ओपेन हाइमर ने जीता| बेस्ट एक्ट्रेस का एवार्ड एम्मा स्टोन ने पुअर थिंग्स के लिया जीता| ओपेनहाइमर के किलियन मर्फी ने बेस्ट एक्टर का पुरस्कार जीता| बेस्ट डायरेक्टरक्रिस्टोफर नोलन (ओपेनहाइमर), बेस्ट ओरिजनल सॉन्ग व्हाट वाज आई मेड फॉर (बार्बी), बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर रॉबर्ट डाउनी जूनियर (ओपेनहाइमर), बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस डा'वाइन जॉय रैंडोल्फ (द होल्डओवर्स), बेस्ट ओरिजनल स्कोर लुडविग गोरानसन(ओपेनहाइमर), बेस्ट साउंड द जोन ऑफ इंटरेस्ट ने जीता| एवार्ड सेरेमनी में स्टेज पर न्यूड होकर पहुंचे जॉन सीना,…
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फिल्म फेयर : मिल गया तो मिट्टी, न मिला तो सोना…

फिल्म फेयर : मिल गया तो मिट्टी, न मिला तो सोना…

लेखक : दिलीप कुमार हिन्दी सिनेमा में दादा साहब फाल्के पुरूस्कार के बाद फिल्मफेयर पुरूस्कार सबसे बड़ा माना जाता है. हालाँकि दादा साहेब फाल्के पुरूस्कार की पात्रता बहुत कठिन है, हिंदी सिनेमा में सक्रिय 50 साल का सफ़ल कॅरियर होना सबसे बड़ी पात्रता है. वहीँ फिल्मफेयर हर साल आयोजित होता है. जिसे मिल गया तो सोना है, जिसे न मिला तो मिट्टी है... कई लोग कहते रहते हैं, फिल्मफेयर पुरूस्कार पैसे से खरीदा जा सकता है. अक्षय कुमार ने कहा कि जो लोग फिल्मफेयर में नाचते हैं, उन्हें ही अवॉर्ड मिलता है!! हर किसी को नहीं मिलता. भारतभूषण, दिलीप साहब,…
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सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है

सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है

लेखक : दिलीप कुमार आजकल एनिमल फ़िल्म चर्चा का विषय बनी हुई है. बनना भी चाहिए, क्योंकि हिन्दी सिनेमा की दूसरी सबसे कामयाब फ़िल्म बन गई है. मैं रणबीर का बहुत बड़ा प्रसंशक हूं, फिर भी एनिमल फ़िल्म मैं झेल नहीं पाया, और फ़िल्म आधी छोड़कर ही चला आया. मुझे तो विचित्र नहीं लगा, और भारी मन से इस बात को स्वीकार करता हूँ, क्योंकि मैं फ़िल्म देखने से पहले कहानी, निर्देशक, ऐक्टर सबकुछ समझने के बाद अपने तीन घण्टे खर्च करता हूँ.... मैं जानता हूं एक फिल्म बनने में कई परिवारों के लोगों की मेहनत शामिल होती है, इसलिए फिल्म न देखने का आव्हान मैं कभी नहीं कर पाता, अतः लिख देता हूं फिल्म मुझे पसंद नहीं आई, हालांकि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, हो सकता है आपको पसंद आए. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, हर कोई अपने विचार रख सकता है. हमारे विचार ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचते, लेकिन जावेद अख्तर साहब जैसे नामचीन हस्तियों का बोलना मतलब पूरे समाज़ में उनका भाषण असर करता है. जावेद अख्तर साहब ने कहा - "एनिमल फिल्म में नायक - नायिका को मारता है, और कहता है मेरे जूते चाटो' ग़र ऐसी फ़िल्में ब्लॉकबस्टर हो रहीं हैं तो यह समाज के लिए बहुत ख़तरनाक बात है". यह सुनकर एनिमल फिल्म के रायटर संदीप रेड्डी वांगा ने जावेद अख्तर साहब की रायटिंग स्किल पर ही सवाल उठा दिया, जो न काबिले बरदाश्त है. आप अपनी बात रख सकते थे, कोई प्रश्न कर सकते थे, जावेद अख्तर साहब सम्मानित इंसान हैं, वो खुद बड़ी विनम्रता पूर्वक जवाब देते, मुझे संदीप का जवाब अभद्र लगा हमें अपने से बड़ों के प्रति ऐसे कटुता के शब्द नहीं बोलने चाहिए. मैं जावेद अख्तर साहब से पूर्णतः सहमत हूँ, ऐसी फ़िल्में समाज के लिए हानिकारक हैं, लेकिन मेरा एक छोटा सवाल यह भी है 'जैसा कि मैंने पहले बोला कि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, और न ही जावेद अख्तर साहब की फ़िर भी वो कौन से लोग हैं जिन्होंने एनिमल फिल्म को' ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर' बना दिया? सवाल तो करना पड़ेगा. मैं जवाब देना चाहता हूं, वो इसलिए कि' सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है'. जी हां यह बात मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह रहा हूं. जब हिन्दी सिनेमा में अमर प्रेम, आराधना, गोलमाल, चुपके - चुपके जैसी शुद्ध पारिवारिक फ़िल्में बन रहीं थीं, दूसरी ओर पार, बाज़ार, चश्मे बद्दूर, अर्धसत्य, सद्गति, स्पर्श, मासूम, आक्रोश जैसी कला फ़िल्में बन रहीं थीं, तब कौन से लोग थे, जिन्होंने डॉन, दीवार, ज़ंजीर जैसी फ़िल्में इन फ़िल्मों को ख़ारिज करते हुए नई धारा की फ़िल्में चलने लगी थीं... जावेद अख्तर साहब सलीम साहब ने हिन्दी सिनेमा की दुनिया ही बदल डाली थी... मैं अपनी कोई हैसियत नहीं समझता कि जावेद साहब से सवाल कर सकूं फिर भी अभिव्यक्त की स्वतंत्रता है तो पूछना चाहूँगा 'आदरणीय जावेद अख्तर साहब मेरी गुस्ताख़ी मुआफ कीजिएगा,  डॉन, दीवार, ज़ंजीर, शराबी फ़िल्मों से क्या सीख मिलती है? समाज़ क्या सीखेगा?? आप दार्शनिक इंसान हैं आप बेहतर समझा सकते हैं, फिर भी मेरे शब्दों से कोई ठेस पहुंची हो तो आप मेरे बड़े हैं, मैं आपका छोटा हूं मुझे मुआफ कर दीजिएगा, क्योंकि आप मेरे अपने हैं. चूंकि आप तक मेरे सवाल नहीं पहुंच पाएंगे.फिर भी मुझे अपने सवालों के जवाब तो चाहिए थे, फिर मैंने खुद को समझाया कि फ़िल्में सिर्फ मनोरंजक उद्देश्य से देखी जानी चाहिए.ज्यादा भावुकतापूर्ण उद्देश्य से फ़िल्मों को देखना हानिकारक हो सकता है. समाज फ़िल्मों से प्रभावित होता है, फिर भी, हिन्दी सिनेमा की अधिकांश फ़िल्मों में कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं, समाज में अपराधीकरण का प्रमुख कारण यह हो सकता है, शाहरुख खान की डर, बाजीगर, अंजाम फ़िल्म देखकर तब के युवाओं ने सिर्फ़ और सिर्फ़ ल़डकियों को परेशान करना सीखा होगा... अजय देवगन की संग्राम फिल्म को देखकर तब के युवाओं ने लड़की को अपने जूते पर नाक रगड़ना ही सीखा होगा... अन्यथा ऐसी फ़िल्में देखकर सीख क्या मिलेगी??  हिन्दी फ़िल्मों में अधिकांश फ़िल्मों में लड़कियों, महिलाओं की बेज्जती ही की जाती रही है, एक फ़िल्म है, रानी मुखर्जी एक ऐसी लड़की का किरदार करती हैं, जिसमें उस लड़की किरदार का बलात्कार हो जाता है, वही लड़की अदालत के जरिए उस रेपिस्ट से पत्नी का हक मांगती है, बताइए कितनी दुःखित बात है.. 90 के दशक में अधिकांश फ़िल्मों में नायिका नायक के पीछे भागती हुई बार - बार बेज्जत करती हुई दिखाई देती है... क्या असल में ऐसे होता है?? अमिताभ बच्चन की शराबी फिल्म के बाद न जाने कितने युवाओं ने शराब पीना शुरू किया होगा. आज फ़िल्मों के पोस्टर ऐक्टर के हाथ में सिगरेट के बिना बनते ही नहीं है.  युवाओं को इससे क्या सीख मिलेगी?? अंततः मैंने खुद को समझाया कि फ़िल्मों को मनोरंजक उद्देश्य से देखना चाहिए, जो बात सीखने लायक हो सीख लो अन्यथा बुरे विसंगति वाले लोगों से हम घिरे रहते हैं,…
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स्टार किड्स की जिंदगी का है अनोखा संघर्ष

स्टार किड्स की जिंदगी का है अनोखा संघर्ष

लेखक : दिलीप कुमार सिनेमा में चकाचैंध की दुनिया लोगों को खूब आकर्षित करती है. जाहिर है! ग्लैमर आदमी को अपनी तरफ खींचता है. वहीँ कोई गरीब बच्चा सामान्य जीवन का ख्वाब देखता है, तो समान्य जीवन के बच्चों में एक कमतरी का भाव होता है, हमेशा से ही सामान्य बच्चों में स्टार किड्स की ज़िन्दगी का एक ग़ज़ब का मनोवैज्ञानिक खिंचाव होता है, वो खिंचाव लाइमलाइट, अनावश्यक रूप से भौतिक सुखों को लेकर एक आर्कषण होता है. वहीँ इस आकर्षण का अध्ययन करने पर पाते हैं, कि स्टार किड्स का जीवन अभिशाप ही होता है, उनके पास निजी जैसा…
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हृषीकेश दा… सिनेमा का सम्पूर्ण संस्थान

हृषीकेश दा… सिनेमा का सम्पूर्ण संस्थान

लेखक : दिलीप कुमार सत्यजीत रे को सिनेमा का पूरा संस्थान कहते हैं, तो विमल रॉय को सिनेमा का अध्यापक कहते हैं. वही हृषीकेश दा को उस विद्यालय का स्टूडेंट कह सकते हैं. सत्यजीत, विमल रॉय, हृषीकेश दा आदि का सिनेमा की यात्रा अपने आप में मुक्कमल सिलेबस है. फिल्म निर्देशन की दुनिया में गहराई, अध्यापन, सामजिक मूल्यों को दर्शाती फ़िल्मों के निर्देशक हृषीकेश दा संजीदा अभिनय से हंसी के साथ आंसुओं को मिलाकर मानवीय संवेदनाओं का ऐसा कॉकटेल तैयार करते थे, कि फिल्म देखकर निकल रहे मजबूत दिल वाले दर्शकों की आंखें भी नम हो जाती थी. आज भी…
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अभिषेक बच्चन का सही मूल्यांकन नहीं हुआ!!

अभिषेक बच्चन का सही मूल्यांकन नहीं हुआ!!

लेखक : दिलीप कुमार अभिषेक बच्चन जब शुरू - शुरू में हिन्दी सिनेमा में आए तो यही कहा जाता था, अभिषेक अमिताभ बच्चन का बेटा है, बस इसी शोर में अभिषेक की अदाकारी गुम हो गई थी... कोई ख़ास पहिचान नहीं मिली, हम जैसे न जाने कितने ऐसे दर्शकों को लगता था कि अभिषेक बच्चन, अमिताभ बच्चन का बेटा है अन्यथा यह तो कुछ भी नहीं है... यही से अभिषेक बच्चन  परिवारवाद का उपजा हीरो, तरह तरह से पर्सनैलिटी गढ़ी गई.. कोई नया - नया लड़का अपनी ज़िन्दगी में कहीं न कहीं शुरुआत तो करता ही है, चाहे वो किसी…
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मंच को जीने वाले सच्चे कलाकार… किशोर दा

मंच को जीने वाले सच्चे कलाकार… किशोर दा

लेखक : दिलीप कुमार घर में सबसे छोटे किशोर कुमार सभी का बेशुमार प्यार पाते थे, हमेशा खुश रहना उनका स्वभाव था. यहीं से जिन्दादिली आजीवन उनके साथ रही.. आज भारत के सबसे लोकप्रिय गायक के रूप में याद किए जाते हैं. शायद ही कोई पीढ़ी किशोर दा कि सदाबहार आवाज़ से परिचित न हो ! भारत के सबसे लोकप्रिय गायक किशोर दा ने संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा नही ली थी, फिर भी उनकी आवाज़ की रेंज कमाल की थी, किशोर दा राग, धुन पर ज्यादा विमर्श नहीं करते थे, लेकिन संगीतकार को विश्वास होता था, कि जो भी…
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फिल्मों से समाज को गढ़ने में जुबली कुमार का खास योगदान

फिल्मों से समाज को गढ़ने में जुबली कुमार का खास योगदान

लेखक : दिलीप कुमार देश की आज़ादी एवं हिन्दी सिनेमा का एक अंतर्संबंध रहा है. आज़ादी के बाद बंटवारे की त्रासदी के साथ ही उस दौर में जाने कितने कलाकारों ने अपने ख्वाबों को टूटते देखा होगा, तो कईयों ने पलायन, आदि का दर्द झेलते हुए कामयाबी हासिल की है . सिनेमा समाज का दर्पण होता है. उसी बदलते हुए समाज ने न जाने कितने बात करने के लिए मुद्दे दिए, क्लासिक कल्ट फ़िल्में दी, अविस्मणीय सिनेमा गढ़ा... सिनेमा बनाने वाले दिए. आज़ादी के वक्त देश के लोगों ने न जाने कितने अमूर्त सपने देखे थे, लेकिन उन सपनों के…
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स्वर्णिम दौर का नायाब सिनेकार… गुरुदत्त

स्वर्णिम दौर का नायाब सिनेकार… गुरुदत्त

लेखक : दिलीप कुमार गुरुदत्त साहब का नाम जेहन में आते ही  आता है, एक अधूरापन, कुछ टूटा बिखरा हुआ... सिनेमा का वो स्वर्णिम दौर जिसमें गुरुदत्त साहब का अविस्मरणीय योगदान हमेशा याद रहेगा.. कहते हैं प्रतिभा उम्र की पाबंद नहीं होती...गुरुदत्त साहब के लिए यह बात उस दौर में सटीक बैठती थी. फिर चाहे महबूब खान, विमल रॉय, बलराज साहनी, सोहराब मोदी, सत्यजीत रे, देव साहब हो, या दिलीप साहब, या राज कपूर साहब ही क्यों न हों... गुरुदत्त साहब लगभग सभी से उम्र में छोटे ही थे, लेकिन इन सभी बड़े - बड़े धूमकेतुओ के बीच गुरुदत्त साहब…
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