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बडी कशमकश है…

बडी कशमकश है…

कवि : देव बडी कशमकश है बड़ी कशमकश है, ना दिल अपने बस है ना जान अपने बस है, बड़ी कशमकश है, किसी ने लगाया है दौलत का चश्मा, कहीं है लगा बस उम्मीदों का मजमा, है मशगूल दुनिया नही कोई बस है,  बड़ी कशमकश है बड़ी कशमकश है, जो लगता है सबको सही वो सही है, ज़माने का दस्तूर अब भी वही है, ना समझे जो कोई तो उसकी समझ है, बड़ी कशमकश है बड़ी कशमकश है, थे जो दोस्त कल तक हुए वो पराए, कई दीप यादों के हमने बुझाए, कहो किसको कैसे यकीं हम दिलाए, हुई दिल…
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कविता : मां मेरी यह कहती है….

कविता : मां मेरी यह कहती है….

डॉ शिल्पी बक्शी शुक्ला मां मेरी यह कहती है, जिन पेड़ों पर फल लगता है, उनकी शाखें झुक जातीं हैं, करने प्रणाम अस्‍ताचल सूर्य को, बहती नदियां रूक जातीं हैं, गिरती हैं लहू की बूंदे तो, बंजर धरती भी सोना हो जाती है, सहती है बोझ ये धरती, तभी ये सृष्टि चल पाती है, मिलते हैं मेहनतकश हाथ, तो पर्वत भी हिल जाते हैं, उठ जाएं मिलकर भाल तो, दुश्‍मन पीछे हट जाते हैं, मिलने पर अंगुलियों की ताकत, मज़बूत एक मुट्ठी बन जाती है, सच्‍चा मानव वही धरा में, परहित में जो मिट जाता है, मां मेरी यह कहती…
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व्यंग्य यात्री 2022 व कविता संग्रह ‘जि़ंदगी इतनी आसान नहीं का लोकार्पण

व्यंग्य यात्री 2022 व कविता संग्रह ‘जि़ंदगी इतनी आसान नहीं का लोकार्पण

लखनऊ पुस्तक मेले में लोकार्पण समारोह लखनऊ पुस्‍तक मेले में सोमवार को वरिष्‍ठ पत्रकार एवं कथाकार मनीष शुक्‍ल के संपादन में प्रकाशित व्‍यंग्‍य संग्रह ‘व्‍यंग्‍य यात्री 2022’ एवं डॉ.शिल्‍पी बख्‍शी शुक्‍ला के काव्‍य संग्रह ‘जि़ंदगी इतनी  आसान नहीं’ का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण कार्यक्रम के मुख्‍य अतिथि डॉ. सूर्य कुमार पाण्‍डेय, अति विशिष्‍ट अतिथि महेन्‍द्र भीष्‍म व संजीव कुमार ‘संजय’ काव्य और व्यंग्य के संगम को साहित्य धारा का नया प्रतीक बताया। मुख्‍य अतिथि  डॉ. सूर्य कुमार पाण्‍डेय ने ‘व्‍यंग्‍य यात्री 2022’ पुस्‍तक पर चर्चा करते कहा कि व्‍यंग्‍य संग्रह ‘‘व्‍यंग्‍य यात्री 2022’ में एक से बढ़ कर एक चुटीले…
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मां मेरी यह कहती है…

मां मेरी यह कहती है…

---- डॉ शिल्पी बक्शी शुक्ला मां मेरी यह कहती है, जिन पेड़ों पर फल लगता है, उनकी शाखें झुक जातीं हैं, करने प्रणाम अस्‍ताचल सूर्य को, बहती नदियां रूक जातीं हैं, गिरती हैं लहू की बूंदे तो, बंजर धरती भी सोना हो जाती है, सहती है बोझ ये धरती, तभी ये सृष्टि चल पाती है, मिलते हैं मेहनतकश हाथ, तो पर्वत भी हिल जाते हैं, उठ जाएं मिलकर भाल तो, दुश्‍मन पीछे हट जाते हैं, मिलने पर अंगुलियों की ताकत, मज़बूत एक मुट्ठी बन जाती है, सच्‍चा मानव वही धरा में, परहित में जो मिट जाता है, मां मेरी यह…
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जिंदगी इतनी आसान नहीं…

जिंदगी इतनी आसान नहीं…

डॉ शिल्पी शुक्ला बक्शी जि़दगी इतनी आसन नहीं, जितनी नज़र आती है, घना कोहरा हो, या आँधी, रोज़ी-रोटी की तलाश, घर से बाहर ले आती है, तपती है, गलती है देह, सभी मौसमों में, तभी गरीब के पेट की, आग बुझ पाती है, बेबस चेहरों पर फिर भी , सुंदर मुस्‍कान नज़र आती है, मिट्टी में लिपटी बच्चों की नंगी देह, चिथडों में लिपटी जिंदगी, कितनी मासूम नज़र आती है, साधन नहीं, पर हौंसले हैं, आराम नहीं, सुखों से फासलें हैं, पर जैसी भी है तंगहाल ये जिंदगी, फटेहाल और घिसे कपड़े की, रंगत सी जि़ंदगी, बस कल की उम्‍मीद…
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इक प्रेम कहानी

इक प्रेम कहानी

डॉ. शिल्पी बक्शी शुक्ला अंबर से बरसता ये पानी, कहता है, अजब कहानी । हमने न सुनी थी, पर अंबर ने अपने आंसुओं से बुनी थी । तुमने न कही थी, पर इसकी पीड़ा हर पल धरा ने सही थी । सदियों से चलती, इक प्रेम कहानी, किसी फकीर की ज़बानी ।  कुछ जानी-कुछ अनजानी, लगती है कुछ-कुछ नईं, तो कुछ-कुछ पुरानी। हर विरही ने इसे जिया है, यही विष-प्‍याला मीरा ने भी तो पिया है । होता है बेचैन ये अंबर जब-जब, बरसता है आँखों से पानी तब-तब । झुक कर ये धरा से मिलने आता है, दूर कहीं…
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कविता : नैतिकता

कविता : नैतिकता

कवि- जी. पी.वर्मा नबाबों के शहर- लखनऊ में- एक लड़की ने- कैब ड्राइवर पर हाँथ- क्या उठाया- गूँगी नैतिकता - चीख उठी! कार्यवाही की-  कांव कांव हुई! ट्वीट मिमियाने लगे!! पर नैतिकता तब- निरीह -मौन- शरमाई रहती जब मर्द- किसी औरत को - सड़को पर- दौड़ा दौड़ा डंडों से- पीटता, वो गिड़गिड़ाती मदद मांगती!! शायद,पिटना औरत का कर्तव्य, पीटना अपराध है? दोमुंही नैतिकता आखिर शर्मसार कब होगी?
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कविता : प्रेम का नाजुक ख्याल

कविता : प्रेम का नाजुक ख्याल

कवि : जी पी वर्मा प्रेम का नाज़ुक-ख़याल!बेबाकी से-सप्त स्वरों की-झंकार सा -नीलाम्बर मे-झिलमिल-तारा किरणों की-अटूट पाँति सा लहराए!धरा से नभ-नभ से ब्रह्मांड तक-हर तरफ गहराए!!मेरे, तुम्हारे -हम सबके लिए -जीवन वंशी-नफरत नहीं-प्रेम गीत गाए-इंद्रधनुषी छटा बिखराये-तो कितना अच्छा हो!!!
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कविता : नि:शब्द

कविता : नि:शब्द

प्रियरंजन पाढ़ी की दो कवितायें निशब्द हैं सब, उपवन, समीर, विहग जब, तुम क्या करते हो तब? नहीं सोचते उनको क्या? पीड़ा विगत दिनों की, उभर आती मस्तक पर बन स्वेद कण, मस्तिष्क में दबी स्मृतियां, रहती हैं ज्यों की त्यों, तुम नहीं सोचते उनको क्या? जब होता है निशब्द अधूरी अनकही बातों को तलाशते, पर ढूंढ नहीं पाते उन्हे फिर, बीते अतीत के तंतुओं में भी आज, मृदु धरा के अंतस में नहीं हैं क्या जख्मों के निशान, निशब्द होता है जब पहले से अर्थ खो चुके अक्षर कुछ व्यक्त नहीं करते तब, मयूर थे प्रथम, जिन्होंने निशब्दता को…
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कविता : प्रेम…

कविता : प्रेम…

डॉ जया आनंद प्रेम पाना आसान है इसके लिए अहं को कूटना पीसना है बस थोड़ा सा सरल होना है ....और सरल होना शायद! कितना कठिन !!! ...पर मेरे लिए नहीं, कबीर को थोड़ा तो समझा --------------------------- 2. प्रेम आत्मा को उज्ज्वल करता हुआ विस्तार देता है संकुचन नहीं, विचारों को परिष्कृत करता हुआ उदार बनाता है विकृत नहीं प्रेम व्यक्तित्व को सहज करता हुआ सरल बनाता है जटिल नहीं , जीवन में विश्वास जगाता हुआ उसे सुंदर बनाता है विद्रूप नहीं प्रेम यदि आत्मा को करता है संकुचित विचारों को करता है विकृत व्यक्तित्व को बनाता है जटिल जीवन…
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