Thursday, November 21, 2024
Homeसाहित्यकहानीलघु कहानी : जोशी जी के दर्द पर मरहम

लघु कहानी : जोशी जी के दर्द पर मरहम

लेखक : मनीष शुक्ल

अचानक आँखों से आंसुओं की धारा बहने लगती है। इतनी भी हिम्मत नहीं होती है कि अपना हाथ बढ़ाकर उन आंसुओं को पोंछ सकें। बस, असहनीय दर्द और अकेलेपन का अहसास यही जेहन में घूमता रहता है। शब्द खुद ब खुद बढ़बढ़ाने लगते हैं… शायद अब मेरा समय आ गया है। तभी ये लोग मुझसे दूर भागते हैं। कोई भी मेरे पास नहीं बैठता है। कोई भी मेरा ध्यान नहीं रखता है… जोशी जी बिस्तर पर लेटे- लेटे अपने वजूद को लेकर ख्याल बुन रहे थे। उनको लकवा मारे अब तीन साल हो गया था। इलाज से काफी सुधार थे लेकिन अब न तो पहले की तरह बाजार आ जा पाते और न ही दोस्त यारों के बीच बैठकर गप्पें लड़ा पाते। बिस्तर या बरामदे की कुर्सी ही उनकी दुनियाँ हो गई थी। एक ज़िंदादिल इंसान वक्त बीतने के साथ खुद को लाचार और अकेला साबित करने में जुट गया था। न कोई बोलने वाला, न सुनने वाला, जोशी जी को लगता था कि ये सब अपनी ही धुन में मस्त हो चुके हैं। इसी उधेड़बुन में लगे जोशी आज शाम भी अपनी अपनी मौत का इंतजार कर रहे थे।

तभी उनका पोता आकर उनके सीने से चिपक जाता है…

‘दादा जी… दादा जी देखो मैंने आपके लिए क्या बनाया है।‘

वो अपने हाथ से बनाया ग्रीटिंग जोशी जी को दिखाने लगता है। इतने में बहू सुचित्रा भी ऑफिस से आकर सीधे उनके मिलने जाती है और कहती है

‘बाबू जी ये देखो… आपके लिए ऑन लाइन टी- शर्त आर्डर की थी, चलिये उठिए पहना देती हूँ।‘

बहू और पोते दादा जी के साथ बात कर ही रहे होते हैं कि जोशी जी की पत्नी आकर कहती हैं…

‘दिनभर खुद से बढ़बढ़ाते रहते हैं… अब तुम्ही लोग बैठकर इनसे बातें करो…’ और फिर मियां- बीबी के बीच जीवन की नोंक- झोक शुरू हो जाती है।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments