डॉ शिल्पी शुक्ला बक्शी
जि़दगी इतनी आसन नहीं,
जितनी नज़र आती है,
घना कोहरा हो,
या आँधी,
रोज़ी-रोटी की तलाश,
घर से बाहर ले आती है,
तपती है, गलती है देह,
सभी मौसमों में,
तभी गरीब के पेट की,
आग बुझ पाती है,
बेबस चेहरों पर फिर भी ,
सुंदर मुस्कान नज़र आती है,
मिट्टी में लिपटी बच्चों की नंगी देह,
चिथडों में लिपटी जिंदगी,
कितनी मासूम नज़र आती है,
साधन नहीं, पर हौंसले हैं,
आराम नहीं, सुखों से फासलें हैं,
पर जैसी भी है तंगहाल ये जिंदगी,
फटेहाल और घिसे कपड़े की,
रंगत सी जि़ंदगी,
बस कल की उम्मीद पर,
कायम है ये जि़ंदगी,
अपने बच्चों के,
चेहरे पर मुस्कान,
देखने की जद्दोजहद में,
खुद से ही हर रोज़ लड़ती, बेमिसाल ये जि़ंदगी।