डॉ. शिल्पी बक्शी शुक्ला
अंबर से बरसता ये पानी,
कहता है, अजब कहानी ।
हमने न सुनी थी,
पर अंबर ने अपने आंसुओं से बुनी थी ।
तुमने न कही थी,
पर इसकी पीड़ा हर पल धरा ने सही थी ।
सदियों से चलती,
इक प्रेम कहानी, किसी फकीर की ज़बानी ।
कुछ जानी-कुछ अनजानी,
लगती है कुछ-कुछ नईं,
तो कुछ-कुछ पुरानी।
हर विरही ने इसे जिया है,
यही विष-प्याला मीरा ने भी तो पिया है ।
होता है बेचैन ये अंबर जब-जब,
बरसता है आँखों से पानी तब-तब ।
झुक कर ये धरा से मिलने आता है,
दूर कहीं क्षितिज पर शायद मिल पाता है ।
जब-जब धरती के सीने में हूक उठेगी,
अंबर की बेचैनी यूँ ही बढ़ेगी ।
ये प्रेम कहानी,
यूँ ही चलेगी, चलती रहेगी,
सिमट जाता है धरा में,
अंबर का अस्तित्व, दोनों हो जाते हैं एक ही तत्व ,
अमिट है इनकी कहानी,
सृष्टि में प्रेम की अमिट निशानी।
बढ़ेगी अंबर की बेचैनी,
और धरा पर बूँदें बरसती रहेंगी।