Sunday, September 8, 2024
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संगीतकारों के लिए संगीत का पूरा पाठ्यक्रम.. सचिन दा

दिलीप कुमार

लेखक

हरदिल अजीज संगीतकार सचिनदेव बर्मन का मधुर संगीत आज भी श्रोताओं को भाव-विभोर करता है. उनके जाने के बाद भी बर्मन दादा के प्रशंसकों के दिल से एक ही आवाज निकलती है- ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना…. यह बर्मन दादा के संगीत का अपना प्रभाव है. दरअसल उससे बाहर कोई संगीत प्रेमी निकलना चाहता भी नहीं है. बर्मन दादा के संगीत को सुनते हुए, ख़ासकर कालजयी फिल्म ‘गाइड’ का उन्हीं के द्वारा गाया गया गीत’ यहां कौन है तेरा मुसाफ़िर जाएगा कहाँ’ यह गीत हर किसी को भी मंत्रमुग्ध तो करता ही है. ख़ासकर सुनने वाले को बुद्धत्व के मार्ग पर ले जाता है. जब तक गीत खत्म हो रहा होता है, तब तक तो आदमी डूब चुका होता है.

सचिन देव बर्मन दादा अक्टूबर 1906 में त्रिपुरा के राजघराने में जन्मे. उनके पिता जाने-माने सितारवादक और ध्रुपद गायक थे. बचपन के दिनों से ही बर्मन दादा संगीत की तरफ झुकाव के कारण उनको संगीत विरासत में मिला. उनको अपने पिता से शास्त्रीय संगीत की तालीम मिली.इसके साथ ही उन्होंने उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से भी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली. अपने जीवन के शुरुआती दौर में  बर्मन दादा ने रेडियो से प्रसारित पूर्वोतर लोक-संगीत के कार्यक्रमों में काम किया. वर्ष 1930 तक वे लोकगायक के रूप में अपनी पहिचान बना चुके थे.  प्लेबैक सिंगर के रूप में 1933 में प्रदर्शित फिल्म ‘यहूदी की लड़की’ में पहली बार गाने का मौका मिला. इसके बाद उनको ज़ोर का झटका लगा, यह उनके संघर्ष की पराकाष्ठा थी. एक तो मुश्किल से काम मिलता है, बाद में आपका गाना रिकॉर्डिंग के बाद भी हटा दिया जाए तो मनोबल काफी कम हो जाता है,क्योंकि उस फिल्म से उनके गाए गीत को हटा दिया गया. अंततः उन्होंने 1935 में प्रदर्शित फिल्म ‘सांझेर पिदम’ में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी, लेकिन वे पार्श्वगायन में कुछ खास नहीं कर सके. संघर्षरत ही रहे, क्योंकि यहां तक भी कुछ खास पहिचान नहीं बना सके.

सन 1944 में संगीतकार बनने का ख्वाब लेकर बर्मन दादा बंबई आ गए. जहां सबसे पहले उन्हें 1946 में फिल्मिस्तान की फिल्म ‘एट डेज’ में बतौर संगीतकार काम करने का मौका मिला, लेकिन इस फिल्म के जरिए वे कुछ खास पहचान नहीं बना पाए. कहते हैं संघर्ष से ही प्रतिभा चमक बिखेरती है. वही मुकाम बर्मन दादा का हुआ. 1947 में उनके संगीत से सजी फिल्म ‘दो भाई’ के पार्श्वगायिका गीता दत्त के गाए गीत ‘मेरा सुंदर सपना बीत गया…’ की सफलता के बाद वे कुछ हद तक बतौर संगीतकार अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए. कुछ सालों बाद बर्मन दादा को मायानगरी बंबई की चकाचौंध कुछ ज़मी नहीं. वो बंबई की आबो हवा में घुटने लगे, शायद वो हसरत मचल रही थी,  जो उनको हिन्दी सिनेमा का बर्मन दादा बनाने के लिए बेचैन थी. आखिरकार वे सबकुछ छोड़कर वापस कलकत्ता आ गए. हालांकि उनका मन वहां भी नहीं लगा. बर्मन दादा को बंबई में शोहरत की बुलन्दियों को छूना था. अंततः बर्मन दादा अपने आपको बंबई आने से रोक नहीं पाए.

बर्मन दादा ने ने करीब 3 दशक की अपनी सिनेमाई यात्रा में लगभग 90 फिल्मों के लिए कालजयी संगीत दिया. बर्मन दादा की सिनेमाई यात्रा पर रिसर्च करने पर पता चलता है कि, उन्होंने सबसे ज्यादा काम देव साहब एवं साहिर लुधियानवी साहब के साथ किया. बाद में साहिर साहब से उसूलों की आंच टकराई दोनों दिग्गजों का आत्मसम्मान मचल गया. अंततः दोनों की जोड़ी टूट गई.सन 1949 में फिल्म आजादी की राह पर के लिए उन्होंने पहली बार गीत लिखे, लेकिन प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, से मिली. नवजवान फिल्म में संगीतकार बर्मन दादा थे.

ठंडी हवाएँ, लहरा के आयें रुत है जवां तुमको यहाँ, कैसे बुलाएँ ठंडी हवाएँ…इस गीत को लिखने के बाद साहिर लुधियानवी नाम का जिक्र लिटरेचर की दुनिया से हटकर थोड़ा सिनेमा, संगीत पर होने लगा . इस गीत पर संगीतकार बर्मन दादा ने शास्त्रीय संगीत पद्धति थाट बिलावल के राग बिहाग एवं रबींद्र संगीत पर संगीत रचा, जो हिन्दी सिनेमा एवं संगीत में मील का पत्थर साबित हुआ. इस फिल्म के गानों की आपार सफलता के बाद बर्मन दादा एवं साहिर दोनों सफलता की गारंटी, के साथ ही दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए. बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी कभी जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिए गीत लिखे. विद्वान लोग कहते हैं “कि बहुत ज़हीन लोग कम समझ आते हैं क्यों कि उनके अन्दर एक कोने में सिरहन पैदा करने वाली ख़ामोशी होती है, वहीँ एक कोने में असंतुलित कर देने वाला शोर होता है. बर्मन दादा एवं साहिर लुधियानवी दोनों अपनी – अपनी प्रतिभा में पूरा का पूरा अध्याय थे. एक दौर में एस डी बर्मन दादा, साहिर साहब, देव साहब एवं गुरुदत्त साहब आदि के ग्रुप के तौर पर काम करते थे, कहते हैं कि बर्मन दादा एवं साहिर की प्रतिभा का फायदा सबसे ज्यादा देव साहब एवं गुरुदत्त साहब को अपने फ़िल्मों में यादगार संगीत के कारण हुआ. देव साहब एवं गुरुदत्त साहब ने बर्मन दादा की प्रतिभा को खूब सराहा, एवं खूब फायदा कमाया .

इसी दौरान गुरुदत्त साहब 1957 में फिल्म ‘प्यासा’ बना रहे थे. इसी दौरान  बर्मन दादा और साहिर लुधियानवी के बीच कुछ अनबन हो गई. इस झगड़े की वजह, गाने का क्रेडिट किसको कितना मिले, उसके गीतकार को या संगीतकार में किसको ज्यादा मिलना चाहिए.

 बर्मन दादा के जीवन पर किताब लिखने वाली लेखिका सत्या सरन ने लिखा कि, ‘मामला इस हद तक बढ़ा कि साहिर, बर्मन दादा से एक रुपया अधिक फीस चाहते थे, साहिर का तर्क ये था कि बर्मन दादा के संगीत की लोकप्रियता में उनका बराबर का हाथ है. ज्यादा ज़हीन लोग ज्यादा समझौते के लिए नहीं जाने जाते वो कब क्या करेंगे, कोई नहीं जानता, तो बर्मन दादा ने कहा कि एक रू. ज्यादा मांगने का अर्थ है, आप ज्यादा काम कर रहे हैं, मैं कुछ भी नहीं…आखिकार  बर्मन दादा ने साहिर की शर्त को मानने से इंकार कर दिया, और फिर दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया. बाद में बर्मन दादा की जोड़ी मजरुह सुल्तानपुरी के साथ ज़मी. बर्मन दादा अपनी अंतिम साँस तक मजरुह सुल्तानपुरी के साथ काम करते रहे. बाद में बर्मन दादा की जोड़ी ‘मजरुह सुल्तानपुरी’ के साथ जमी. दोनों की जोड़ी अंतिम साँस तक चलती रही. वहीँ बर्मन दादा देव साहब के लिए लकी चार्म बने रहे. देव साहब ने बर्मन दादा को उनकी अंतिम साँस तक छोड़ा ही नहीं. बर्मन दादा के चले जाने के बाद भी देव साहब हमेशा बर्मन दादा की महरूमियत की कसक रही. देव साहब आजीवन बर्मन दादा के लिए आभार की मुद्रा में रहे. देव साहब बर्मन दादा को हिन्दी सिनेमा का सिरमौर संगीतकार मानते थे. दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक सिद्ध हुए.

बर्मन दादा ने 1951 में फिल्म नौजवान के गीत ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आए…’ के जरिए लोगों के दिलों में जगह बनाई. 1951 में ही गुरुदत्त साहब की पहली निर्देशित फिल्म ‘बाजी’ के गीत ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे…’ में बर्मन दादा और साहिर साहब की जोड़ी ने संगीतप्रेमियों का दिल जीत लिया.  देव साहब की फिल्मों के लिए  बर्मन दादा ने सदाबहार कालजयी संगीत दिया. उनकी फिल्मों को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बर्मन दादा के नाम के जिक्र के साथ सबसे पहले देव साहब का नाम याद आता है.

बर्मन दादा के पसंदीदा निर्माता-निर्देशकों में देव साहब के अलावा विमल राय, गुरुदत्त साहब, ऋषिकेश मुखर्जी, आदि प्रमुख रहे हैं.

बर्मन दादा की फिल्म जगत के किसी कलाकार या गायक के साथ शायद ही अनबन हुई हो, लेकिन 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘पेइंग गेस्ट’ के गाने ‘चांद फिर निकला…’ के बाद लता मंगेशकर और उन्होंने एकसाथ काम करना बंद कर दिया. दोनों ने लगभग 5 वर्ष तक एक-दूसरे के साथ काम नहीं किया. बाद में बर्मन दादा के पुत्र आरडी बर्मन (पंचम दा) ने अपने पिता को मनाया, बाद में लता मंगेशकर ने बर्मन दा के संगीत को अपनी आवाज़ दी. महान बनने से पहले किसी भी शख्स को उसके भीतर की इंसानियत, उसूल, स्थायित्व, धैर्य, सब्र, ही उसे महानता की ओर ले जाती है. किसी भी शख्सियत में ठहराव एक आभूषण होता है.

बर्मन दादा हिन्दी सिनेमा के लिए ईश्वर का नायाब तोहफ़ा थे. सचिन देव बर्मन ने अपनी जिंदगी में जो शोहरत, इज्जत, मुहब्बत कमाई, उसका कोई सानी नहीं है. सचिन देव उर्फ़ बर्मन दादा का अंदाज़ अद्वितीय था. संगीतकार तो बहुत हुए, लेकिन रबींद्र संगीत, थाट बिलावल के राग विहाग को अपनी सिग्नेचर स्टाइल बनाया, बाद में सभी संगीतकार लगभग इसी के अंतर्गत संगीत रचते थे. सिर्फ आपका मौलिक सृजन, चालीस इंच की सिल्वर स्क्रीन आपको सुपरस्टार नहीं बनाती, आपके अन्दर की अथाह प्रतिभा लगन आपको बर्मन दादा बनाती है. मगर सचिन देव बर्मन यूं ही महान नहीं बने. उनके अंदर का प्रेम, उनके भीतर की करुणा एक संवेदनशील मनुष्य के रुप में दिखाई पड़ते हैं. उनकी शख्सियत का अपना चार्म था. अपनी ज़िन्दगी में बेहद लोकप्रिय, संवेदनशील आदमी होने का पूरा कंप्लीट पैकेज थे.

 देवानंद साहब अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म “गाइड” बना रहे थे. यह साठ  के दशक के लगभग की बात होगी. देव साहब ने गीतकार कविराज शैलेंद्र को गीत लेखन एवं संगीत निर्देशन का कार्यभार बर्मन दादा को दे दिया. देव साहब की फ़िल्में संगीत प्रधानता पर टिकी होती थीं. उनकी फ़िल्मों में संगीत सर्वोत्तम होता था. उनके अभिनय में फिल्म का संगीत सहायक होता था. संगीत से ही देव साहब की फिल्मों का मूड सेट होता था. बर्मन दादा पूरे समर्पण से गाइड का संगीत बना रहे थे. लेकिन तभी एक दुर्घटना घट गई. बर्मन दादा अचानक अस्वस्थ हो गए. इलाज किया गया मगर बहुत समय तक बर्मन दादा के स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ. निरंतर गिरावट हो रही थी. जैसे ही बर्मन दादा अस्वस्थ हुए, उधर देव साहब की फिल्म का काम रुक गया. बर्मन दादा इस बात से परिचित थे, कि देव साहब अपनी फिल्मों को लेकर जुनून की हद तक दीवानगी रखते थे. फिल्म में देरी का कैसा प्रभाव देव साहब पर पड़ रहा होगा, यह सोचकर बर्मन दादा को थोड़ा दुःख हुआ. जब बर्मन दादा को अपनी तबीयत में सुधार नहीं दिखाई दिया, तो उन्होंने देव साहब को बुलाकर कहा कि आप किसी और संगीतकार के साथ फ़िल्म शुरू कर दीजिए. देव साहब ने कहा आप निराश मत हों, पहले आप जल्दी से ठीक हो जाओ. काम जल्दी ही करना हैं, लेकिन आपके बिना नहीं. देव साहब बहुत ही सकारात्मक इंसान थे. किसी भी फ़िल्मकार के लिए यह उचित होता, कि उसका समय और पैसा बर्बाद हो रहा था, अतः वह बर्मन दादा को मान लेता, मगर देव साहब ने ऐसा करने से मना कर दिया. देव साहब संगीतकार बर्मन दादा के संगीत के जादू को जानते थे,इसलिए उन्होंने बर्मन दादा से कहा कि वह उनके ठीक होने का इंतज़ार करेंगे. जब तक आप पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं होंगे, गाइड का संगीत निर्माण नहीं होगा. इस बात से बर्मन दादा बेहद भावुक हो गए. खैर समय बीता और कुछ वक्त बाद  बर्मन दादा स्वस्थ हो गये. तब उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ वापसी की और फ़िल्म का पहला गीत “गाता रहे मेरा दिल” रिकॉर्ड किया. संगीत निर्माण की प्रक्रिया में बर्मन दादा के साथ उनके पुत्र और महान संगीतकार आर.डी बर्मन ने दिया. इसी तरह फिल्म का गीत “आज फिर जीने की तमन्ना है” और “तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं” रिकॉर्ड किया गया. गीत बनते हुए ही बर्मन दादा और देव साहब को लग रहा था, कि फिल्म का संगीत जरूर बेशुमार ख्याति प्राप्त करेगा. दोनो का आंकलन सही साबित हुआ. फिल्म गाइड रिलीज हुई और इसका संगीत खूब पसंद किया गया. फ़िल्म के दो गीत “वहां कौन है तेरा मुसाफ़िर” और “अल्लाह मेघ दे पानी दे”  बर्मन दादा और तरह देव साहब ने साबित किया कि रिश्ते और व्यवसाय दोनों अलग बातेँ हैं. प्रेम आपसी सम्बन्ध ज्यादा मायने रखता है. बर्मन दादा एवं देव साहब एक – दूसरे के दिल के बहुत करीब थे. बर्मन दादा एवं देव साहब परस्पर एक सिक्के के दो पहलू बने रहे. देव साहब ने अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ में बर्मन दादा का खूब जिक्र किया है.

बर्मन दादा खूब टैलेंटेड तो थे, वहीँ उनका मूड कब बदल जाए कोई नहीं जानता था, छोटी सी बातों को घुमा- फ़िराक़र बोलते थे. उनके सहकर्मियों को लगता, कि बर्मन दादा जैसे ग्रेट संगीतकार हल्की बातों पर उलझे रहते थे,और खूब मजे लेते थे.  बर्मन दादा का सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत ग़ज़ब का था. एक बार राम कृष्ण मंदिर में गए.  “मंदिर में घुसने से पहले दोनों जूते एक साथ रखने के बजाए उन्होंने एक जूता एक जगह रखा और दूसरा उससे थोड़ी दूर पर जूतों के एक ढेर में अलग – अलग कर दिया. उनके साथी ने कहा आप ये क्या कर रहे हैं? बर्मन दादा ने जवाब दिया. आजकल चोरी की वारदातें बढ़ गई हैं. उनके साथी ने पूछा कि अगर चोर ने जूतों के ढेर में से दूसरा जूता ढूंढ लिया? बर्मन दादा ने जवाब दिया अगर चोर इतनी मेहनत कर सकता है, तब तो वो जूता पाने का हकदार है.” कोई सोच सकता है, कि बर्मन दादा जैसे बौध्दिक व्यक्ति ऐसे भी बातेँ करते रहे होंगे, लेकिन एक बात तय है, कि ज्यादा प्रतिभा शाली व्यक्ति कम ही समज आता है.

बर्मन दादा बहुत कंजूस थे. उनको जानने वाले बताते हैं, राजघराने में पैदा हुए बर्मन दादा कंजूस थे, या मजेदार थे, समझना मुश्किल है. राजघराने में पैदा हुए बर्मन दादा ने अपने हिस्से का संघर्ष भी झेला. बर्मन दादा के पिता को उनके राजघराने से संपति से बेदखल कर दिया गया था. बर्मन दादा बताते थे कि “मैं कंजूस नहीं हूं, मैंने अपने जीवन में खूब मेहनत किया है, तब इस मुकाम तक पहुंचा हूं. मुझे एक – एक पैसे की जरूरत एवं मह्त्व पता है. ”  गुरुदत्त साहब हमेशा चर्चा के लिए उनके घर जाते रहते थे. गुरुदत्त साहब जानबूझ कर उनके खाने के समय जाते थे. बर्मन दादा पूछते “गुरुदत्त तुम खाना खाकर तो आए होंगे” ? गुरुदत्त साहब कोई जवाब देते इससे पहले वो खाना खाने चले जाते, गुरुदत्त साहब मुस्कान फेंकते हुए कहते “दादा चाय पीना है”, तब बर्मन दादा कहते “गुरुदत्त तुम नौजवान बौद्धिक आदमी हो चाय क्यों पीते हो मत पिया करो”.

एक बार गुरुदत्त साहब को राहुल देव बर्मन (आरडी बर्मन) जो बर्मन दादा के पुत्र थे, उन्होंने गुरुदत्त साहब को इशारा किया, कि पिता जी से कहिए चाय पिलाएं, तो गुरुदत्त साहब ने इसरार किया कि चाय पीना हैं, तो उन्होंने कहा कि “गुरुदत्त तुम जवान हो चाय मत पिया करो”,कहकर टाल दिया, गुरुदत्त साहब ने एक बार और कहा, तो बर्मन दादा कहते हैं, यार दूध खत्म हो गया है. थोड़ी सी देर बाद आर डी बर्मन ट्रे में चाय ले आए, बर्मन दादा कहते हैं, दूध तो खत्म हो चुका था, इतना बोलते ही सब हँस पड़े. बर्मन दादा पान खाने के बहुत ही शौकीन थे, लेकिन वो किसी को अपने पान दान से पान नहीं देते थे. हमेशा गुरुदत्त साहब छेड़ते रहते दादा पान खिलाईए. बर्मन दादा कहते गुरुदत्त तुम इतने बौध्दिक इंसान पान मत खाया करो, कहकर बर्मन दादा खुद पान खाने लग जाते. वो कितना सुन्दर दौर था, उसको आदर्श दौर कहा जाता है.

आज के दौर में भले ही लोग संगीतकारों को जानते हों, भले ही संगीतकारों की भूमिका से परिचित न हों, लेकिन एक आदर्श दौर था, जब फिल्म स्टारों जैसे, गीतकारों, संगीतकारों को लोग खूब जानते थे, खूब लोकप्रियता मिलती थी. क्रिकेट के भगवान सचिन तेंडुलकर का नाम भी सचिन इसलिए रखा गया, क्योंकि तेंडुलकर के पिता रमेश तेंडुलकर सचिव देव बर्मन दादा के संगीत के जबरदस्त फैन थे. न सिर्फ रमेश तेंडुलकर बल्कि फिल्म संगीत को पसंद करने वाले असंख्य लोग महान संगीतकार बर्मन दा के मुरीद थे, हैं और हमेशा रहेंगे,आज के दौर में कितने लोग बर्मन दादा से परिचित हैं, बड़ा सवाल है.

बर्मन दादा टेनिस के प्रेमी थे, फ़ुटबॉल के लिए तो वो जुनून की हद तक दीवाने थे. ईस्ट बंगाल उनका पसंदीदा फ़ुटबॉल क्लब था. एक बार उनकी पसंदीदा टीम मैच हार गई, तब उन्होंने गुरुदत्त साहब से कहा कि मैं आज बहुत उदास हूं, मुझसे दुःखी गाना बनवाना हो तो बनवा लो, ऐसा मूड बार – बार नहीं होता. ऐसा कहते हुए वो इमोशनल संगीत तैयार कर देते थे.  बर्मन दादा जैसे प्रतिभाशाली शख्सियतें कम ही समझ आती हैं आप उनको शब्दों में नहीं परिभाषित कर सकते. एक व्यक्ति अपने क्षेत्र में समूचा आसमान समाहित कर लेता है, जीवन की बहुमुखी यात्रा उसको सचिन देव बर्मन (एसडी बर्मन) हिन्दी सिनेमा का लोकप्रिय संगीतकार बर्मन दादा बनाती है.

किशोर दा ने एक इंटरव्यू में कहा था “रफी साहब, , लता जी , मुकेश जी, मन्ना दा, मुझे,आदि के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बर्मन दादा जब भी गायकों से काम लेते थे, तो केवल संगीतकार की भूमिका में नहीं बल्कि एक पिता की तरह व्यवहार करते थे. किशोर दा कहते हैं कि बांकी तो सभी गायक अपनी गायकी, एवं आवाज़ के लिए खूब सजग रहते थे, लेकिन मैं बहुत बेपरवाह रहता था. बर्मन दादा मुझे बहुत डांटते, किशोर तुम इतने गैरजिम्मेदार क्यों हो? यह नहीं खाओगे वो नहीं खाओगे, मेरे घर कई बार फोन करते चुपके से पता करते की आज किशोर ने कुछ ऊटपटांग तो नहीं खा लिया?? सुनकर खूब डांटते, लेकिन बर्मन दादा की डांट हमेशा पिता की तरह महसूस होती. यह केवल मेरे साथ ही नहीं हर गायक के साथ उनके रूप यही होता था, लेकिन मुझे उनका स्नेह ज्यादा मिला. मैं गायक तो बन गया था, लेकिन बेपरवाह क्यों कि मेरी आवाज़ का ख्याल तो बर्मन दादा रखते थे, बर्मन ने मेरे कंठ को बहुत सम्भाला, किशोर कुमार बर्मन दादा के लिए हमेशा तत्पर एवं आभार मुद्रा में रहते थे.

फिल्म ‘मिली’ के संगीत ‘बड़ी सूनी-सूनी है…’ की रिकॉर्डिंग के दौरान एसडी बर्मन बीमार हो गए, किशोर दा ने एक बार इंटरव्यू में कहा था कि “रेकॉर्डिंग होने ही वाली थी,” मैंने देखा बर्मन दादा असहज हो रहे थे, मैं गया मैंने पूछा दादा क्या हुआ? दादा कहते हैं किशोर तुम गाओ, मुझे कुछ नहीं हुआ, किशोर ने खूब मनाया की दादा आज नहीं फ़िर रिकार्ड कर लेंगे, आज आप बीमार हैं, आप पहले डॉ. के पास चलिए. किशोर दा ने आरडी बर्मन (पंचम दा)को फोन किया कि बर्मन दादा को घर ले जाइए. बर्मन दादा घर चले गए आरडी बर्मन ने खूब मनाया, बर्मन दादा हस्पताल जाने के लिए नहीं मान रहे थे. पंचम दा ने फोन लगाया कहा किशोर बाबा को समझाओ, किशोर दा ने को बर्मन दादा हस्पताल जाने के लिए मनाया बाद में हस्पताल जाने के के लिए तैयार हुए”. बर्मन दादा अपने संगीत की लगन के लिए कितने जुनूनी थे, उन्होंने जाते हुए किशोर दा को कहा किशोर ऐसे गाना रिकॉर्ड करना की गीत अमर हो जाए, और यह सोचना कि मैं तुम्हारे सामने ही बैठा हूं. आख़िरकार गाना रिकॉर्ड हो गया. अगले ही दिन किशोर दा बर्मन दादा को रिकॉर्डिंग सुनाने के लिए हस्पताल पहुंचे, गाना सुनने के बाद बर्मन दादा कोमा में चले गए, शायद वो उस गीत सुनने का ही इंतज़ार कर रहे थे. महीनों दुआओं का दौर चलता रहा, दुआएं काम भी आईं. बाद में उनके कान में किसी ने कहा कि दादा आपकी पसन्दीदा टीम ईस्ट बंगाल मैच जीत गई है, सुनते ही बर्मन दादा की आँखे खुली, और थोड़ी देर बाद हिन्दी सिनेमा को अपने बेमिसाल संगीत का पूरा सिलेबस लिखकर आज की पीढ़ी के लिए पूरी विरासत छोड़कर 31 अक्टूबर 1975 को इस दुनिया से रुख़सत कर गए…..

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