लेखिका : डॉ. रंजना जायसवाल
मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश
जीव…हाड़-माँस का बना सांसे लेता पुतला। जब वही जीव अपने अंदर एक नए जीव के आगमन की सुगबुगाहट महसूस करता है…वो खुशी मनुष्य तो क्या जीव भी महसूस करता है।
मोहिनी( हथिनी का काल्पनिक नाम) भी आजकल इस खुशी को महसूस कर रही थी। इन दिनों वो पेट में एक अजीब सी सरसराहट और सुगबुगाहट महसूस कर रही थी। एक नन्हा सा जीव उसके शरीर मे साँसे ले रहा था।एक अजीब सी गुदगुदी और खिंचाव उसे महसूस हो रही थी।…पर उस तकलीफ में भी उसे अद्भुत आनन्द का अनुभव हो रहा था। माँ बनने का सुख ही ऐसा होता है। आजकल मोहिनी जंगल में जब कभी एकांत पाती अपने गर्भ में पल रहे शिशु से बातें करने लगती।
“माँ…अंदर बहुत अंधेरा है…मुझे ..मुझे बाहर आना है।”
“हा हा हा…इतनी जल्दी… नहीं मेरे लाल…अभी तुम्हें बाहर आने में समय है।”
“माँ …माँ मुझे बाहर की दुनिया देखनी है। कैसी होगी..?”
“ये दुनिया बहुत सुंदर है…इंद्रधनुषी रंगों से भरी ….मानवता और इंसानियत से भरी।”
“माँ …माँ ये मानवता और इंसानियत क्या होती है?”
“मेरे लाल…इस दुनिया मे हमारी तुम्हारी तरह इंसान या मानव भी रहते हैं। ये हमे बहुत प्यार और देखभाल करते हैं और इनके इसी व्यवहार को मानवता या इंसानियत कहते हैं।”
“सच में माँ…इंसान हमे इतना प्यार करते हैं?”
“जानते हो बेटा …इतना ही नहीं ।वो हमें ईश्वर का स्वरूप मानकर पूजते भी है।कोई भी शुभ काम करने से पहले वो हमारा नाम लेते हैं।अपने घर के पूजाघर और देवालयों में भी हमारी मूर्ति को प्रतिष्ठित करके पूजा-अर्चना करते हैं।”
“सच में…कितना अच्छा लगता होगा न ।आपकी ये बातें मुझे एक सपने जैसी लग रही है। मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा।”
“जानते हो बेटा…उन्हें ये भी पता है कि हमे खाने में गन्ना और केला बहुत पसंद है। उनके बच्चे जब हमारी पीठ पर बैठ कर घूमते है तो उनकी खुशी देखने लायक होती है।
हा हा हा … घबराओ नहीं जब तुम इस दुनिया मे कदम रखोगे तब खुद ही अपनी आँखों से देख लेना।”
“माँ …अब मुझसे इंतजार नहीं हो रहा …मैं जल्दी से उस दुनिया को देखना चाहता हूँ। माँ बहुत भूख लग रही है।”
“हाँ मेरे लाल…तुझसे बातें करने में कितना समय निकल गया…रुको बेटा अभी मैं तेरे लिए कुछ खाने का इंतज़ाम करती हूँ। सामने से कुछ इंसान आ रहे हैं…वो जरूर हमे खाने को कुछ देगे।”
“मैंने कहा था न…देखो उन्होंने हमें अनानास खाने को दिया है। अब तुम्हारा पेट भर जाएगा।”
…पर मोहिनी ये नहीं जानती थी कि ऊपर से जो इंसान दिख रहे थे वो अंदर से कुछ और ही थे ।
” माँ-माँ आपने क्या खाया …मेरे पूरे शरीर मेजलन हो रही है…मेरा दम घुट रहा है। मेरी सांसें …मेरी सांसे रुकी जा रही है। अंदर का अंधेरा और गहराता जा रहा है।माँ…माँ मुझे बाहर निकालो । माँ….तुम मुझे सुन रही हो न…”
मोहिनी का सुनहरा सपना बिखर चुका था…विश्वास का धागा टूट चुका था। अब तक जिस भ्रम में वो जीती चली आ रही थी वो कही दूर पड़ा उसकी बेबसी पर मुस्कुरा रहा था।
“मेरे लाल …चिंता न करो …मैं हूँ न तुम्हारे साथ।तुम्हें कुछ नहीं होगा।”
….और मोहिनी उम्मीद का दामन थामे पास की नदी में उतर गई। आज वो अपनों से ही छली गई थी…उसकी सन्तान जो अभी तक इस दुनिया में भी नहीं आई थी…एक -एक सांस के लिए संघर्ष कर रही थी। भूखे पेट की तपिश पर बारूद की तपिश भारी पड़ गई थी।तीन दिन …हाँ तीन तक मोहिनी जिंदगी और मौत से संघर्ष करती रही।अचानक उसने अपने पेट मे सुगबुगाहट और सरसराहट महसूस करना भी बंद कर दी। उस अबोध बच्चे का क्या कसूर था…इस संसार को देखने का सपना …सपना बनकर ही रह गया।
मोहिनी के जीवन जीने की इच्छा खत्म हो चुकी थी।अपनो से छले जाने का दर्द वो बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी।फारेस्ट विभाग ने दो हाथियों के द्वारा उसे बाहर निकालने की भी कोशिश की पर वो …। सन्तान को खोने का गम और अपनों से छले जाने के दुख ने उसकी आत्मा की हत्या तो कब की कर दी थी और आज उसने जलसमाधि लेकर इस नाशवान शरीर का भी त्याग कर दिया मोहिनी के मन मस्तिष्क में अपने बच्चे के अंतिम शब्द बार-बार गूंज रहे थे ….”माँ तुमने तो कहा था ये दुनिया और इस दुनिया के लोग बहुत खूबसूरत है पर…।” माँ तुमने तो कहा था…..”