आनन्द अग्निहोत्री
वरिष्ठ पत्रकार
मुलायम सिंह अब दुनिया में नहीं हैं लेकिन सियासी तवारीख से उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। यूं तो मुलायम सिंह ने देश और प्रदेश की सियासत में ऐसे तमाम कार्य किए है जो हमेशा याद किये जायेंगे, सर्वहारा वर्ग के लिए उन्होंने जो संघर्ष किये उन्हें कभी नहीं भूला जा सकता लेकिन भारतीय जनता पार्टी के बहुचर्चित राम मंदिर आंदोलन की जब भी बात उठेगी, मुलायम सिंह का अक्स हमेशा सामने आ जायेगा। कारण था अयोध्या के विवादित ढांचे का विध्वंस। भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठन हमेशा इस ढांचे को ढहाकर यहां राम मंदिर निर्माण की बात कहते थे। मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल तक ऐसा प्रमाणित नहीं हो सका था कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर कभी राम मंदिर था। फिर भी भाजपा ने इसे अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाकर प्रचारित कर रखा था। राजनीति में अपनी पैठ बनाने के लिए भाजपा के पास इससे बड़ा कोई ट्रम्प कार्ड था ही नहीं। यही कारण था कि उसने इसके लिए रथ यात्रा निकाली, उस समय कट्टर हिन्दुत्व के लिए चर्चित भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए जेल तक गये।
भाजपा और हिन्दूवादी संगठन वर्ष 1990 में विवादित ढांचा ढहाने पर उतारू थे। उस समय उत्तर प्रदेश की सत्ता मुलायम सिंह के हाथ थी। उन्होंने भी एलान कर रखा था कि अयोध्या में ऐसे प्रबंध करूंगा कि वहां कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा। ऐसा उन्होंने किया भी लेकिन इसका क्या किया जाये कि गुपचुप ढंग से कारसेवकों का हुजूम वहां पहुंच गया। सुरक्षा बलों की चेतावनी के बाद भी आक्रामक नजर आ रहे कारसेवक ढांचा ढहाने की फिराक में थे। वे तमाम चेतावनियों को नजरअंदाज कर 2 नवंबर, 1990 को ढांचे की ओर बढ़ने लगे। अंतत: मुलायम सिंह को अयोध्या में हनुमान गढ़ी पर जमे कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश जारी करना पड़ा। फायरिंग में कितने कारसेवक मारे गये इस बारे में ठीक-ठीक बता पाना तो मुश्किल है क्योंकि जितने मुंह उतनी बातें चलीं। इतना जरूर हुआ कि कारसेवकों के कदम थम गये और उन्होंने वहां से पलायन करना ही उचित समझा।
इस घटना को लेकर मुलायम सिंह पर जिस तरह मुस्लिमपरस्त होने का ठप्पा लगाया गया, शायद किसी मुस्लिम नेता पर भी नहीं लगाया गया। और तो और, मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम सिंह के नाम से नवाजा गया। किसी हिन्दू पर इस तरह का ठप्पा न पहले कभी लगा और शायद ही भविष्य में किसी पर लगे। अब इसे चूक कह लीजिये या मुख्यमंत्री का राजधर्म, जिसने उन्हें राजनीति में हमेशा के लिए स्थापित कर दिया। भाजपा और हिन्दू संगठनों ने अपने प्रचार तंत्र के माध्यम से उन्हें मुसलमानों के मसीहा के रूप में स्थापित कर दिया। यह खिताब देश के इतिहास में किसी मुस्लिम नेता को भी नहीं मिला। उन दिनों मुसलमानों में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी का खासा रसूख था। उन्होंने अगले चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के पक्ष में फतवा भी जारी किया। लेकिन यह बेअसर रहा। कौन हिन्दू अब्दुल्ला बुखारी से कह सकता था कि आप इमाम हैं, मस्जिद के अंदर बैठकर नमाज पढ़ाइये, सियासत से आपका क्या वास्ता। लेकिन मुलायम सिंह ने ऐसा कहा और मुस्लिम समुदाय ने उनका न केवल मौखिक समर्थन किया बल्कि फतवा को बेअसर कर मुलायम सिंह को फिर उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पहुंचाया।
भाजपा तभी से और अब सत्ता पाने के बाद भी इसे मुलायम सिंह की हिन्दू विरोधी मानसिकता के रूप में निरूपित करती है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए हर समुदाय की रक्षा करना उनका कर्तव्य था। उस समय जो भी मुख्यमंत्री होता कारसेवकों की इस जोरजबर्दस्ती का विरोध करता। मुलायम सिंह ने भी ऐसा किया तो उसे गलत दर्शाने की कोशिश क्यों। हालांकि मुलायम सिंह ने कुछ वर्षों पहले यह स्वीकार किया कि कारसेवकों पर गोली चलवाना उनकी सबसे बड़ी गलती थी लेकिन यह भी कहा कि उस समय यह मजबूरी थी। यही राजधर्म था, उनके पास और कोई विकल्प नहीं था। सियासतदानों से इस बेबाकी की उम्मीद नहीं की जा सकती, जितनी स्पष्टवादिता से मुलायम सिंह ने यह स्वीकारोक्ति की। अब इसे चूक कहिये या उनकी सूझबूझ या मुख्यमंत्री पद का कर्तव्य, जो भी हुआ उसने उन्हें ‘नेताजी’ के नाम से राजनीति में पूरी तरह स्थापित कर दिया।
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री तो अनेक नेता बने लेकिन आज वे जयंती और पुण्यतिथि पर ही याद किये जाते हैं। लेकिन मुलायम सिंह ऐसे राजनीतिक हस्ताक्षर बने जो हमेशा के लिए अमर हैं और बराबर याद किये जायेंगे। उनकी पार्टी और विचारधारा के लोग तो उन्हें याद करेंगे ही, उनके विरोधी भी उनका नाम नहीं भूल पायेंगे। वे सियासत में मील का ऐसा पत्थर हैं जो हमेशा याद आयेंगे।