प्रियरंजन पाढ़ी की दो कवितायें
निशब्द हैं सब, उपवन, समीर, विहग जब, तुम क्या करते हो तब?
नहीं सोचते उनको क्या?
पीड़ा विगत दिनों की, उभर आती मस्तक पर बन स्वेद कण,
मस्तिष्क में दबी स्मृतियां, रहती हैं ज्यों की त्यों,
तुम नहीं सोचते उनको क्या?
जब होता है निशब्द
अधूरी अनकही बातों को तलाशते, पर ढूंढ नहीं पाते उन्हे फिर,
बीते अतीत के तंतुओं में भी आज, मृदु धरा के अंतस में नहीं हैं क्या जख्मों के निशान,
निशब्द होता है जब पहले से अर्थ खो चुके अक्षर कुछ व्यक्त नहीं करते तब,
मयूर थे प्रथम, जिन्होंने
निशब्दता को सरकते जाना,
वे थे मुखर, कोलाहलपूर्ण, धूमिल धरा पर सौंदर्यपूर्ण, वे थे परिचित निशब्दता से, निशब्दता के विस्तार से,
परिचित थे वे, कैसे उतरेगा ये भीतर- अंतर, लाएगा ये अनिंद्रित ज्वर,
और निस्तब्धता छा गयी है, जैसे मलबे से बिखरे रेत के कण या साधारण धूल,
कर सकता था न कोई दूर इसे पथ से,
रोक न सकता था इसे कोई सतत द्वार पर,
दिन की गीली घास पर,
गणना करते अपने गुनाह बारम्बार,
खेल रहा हो जैसे प्रकाश से अंधकार,
अल्पाशीष का जीने के लिए कुछ भी नहीं सार,
बारिश की बूंदों ने दी सहमति,
बिना किए विलाप, बिना हुए उदास, हवा में इसे बसाया,
निशब्दता अंततः मौन , पीली संकरी गलियों में समा गयी,
जहां डूबता सूरज, मद्धम हवा,
शाम को लौटते विहग, और बिखरे हैं हमारे स्वप्नशेष ।
पुरवा और विस्मृति
पूर्व दिशा से आजकल बहता है मंद समीर,
घास के नुकीले सिरों को करता और भी तीव्र,
सूखी धरती पर धीमे शब्दों के मंद स्वर,
मेरी विस्मृति की वायु को करते धन्य,
धुंधले दिन में अपरिपक्व निद्रा प्रवाह,
पूर्व दिशा से आजकल ——
इन दिनों तुम मौन हो, है मंद ध्वनि भी नहीं,
पीड़ाओं के वे चलचित्र नहीं, जो प्रश्रय देते हैं प्रेम को,
धूल धूसरित नभ स्वच्छ हुआ जब
स्वच्छ आकाश के चटक रंग,
व्याकुल अधीर हृदय की,
विस्मृत स्मृतियाँ,
तप्त वनों की लौ के संग क्षितिज के ऊपर,
अंकित होंगी तब ।
असंभव है इन दिनों कुछ कहना ,
जिह्वा मेरी थकी नहीं है,
सीने में पीड़ा भी नहीं है,
उन अवयवों के कारण भी नहीं,
रोकते हैं जो शोकाकुल हो हवा में बह जाने को
संभवतः है ये कंकड़ों के मध्य धारा,
जैसे किसी ने दूर से हो पुनः पुकारा,
और किया अस्वीकृत पुनः देखने को
पतली पत्तियों के संवारती केश
हवा भी नहीं बोल सकी लेश,
यह एकत्रित स्वर हैं वातावर्त, क्रोधित बैगनी नभ के बस ऊपर,
तूफान का रंग,
धूल कण, वर्षा की बूंदें, आम्र बौर,
फटी धरती तक जाने में,
इन्हें परिश्रम के कितने लग गए वर्ष,
कुछ कहा नहीं फिर, कुछ भी नहीं,
हमारी स्मृति पृष्ठों से भी,
मिट गए ये चिन्ह,
पूर्व दिशा से आजकल बहता है मंद समीर ।
द्वारा —
श्री प्रिय रंजन पाढ़ी
मूल रचना अंग्रेजी में है । अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद –
राखी बख्शी