Sunday, September 8, 2024
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जाति और धर्म के भंवर में डूबता-उतराता मतदाता

आनन्द अग्निहोत्री

चुनाव आयोग पिछले कुछ चुनावों से प्रयास कर रहा है कि चुनाव जाति और धर्म विहीन हों, लेकिन वह जितना प्रयास करता है उसकी तुलना में चुनाव जाति और धर्म ज्यादा ही पैठ बनाता जा रहा है। हर बार चुनाव आयोग आचार संहिता में इस बात का विशेष उल्लेख करता है कि मतदाताओं को जाति और धर्म की धारा में न उलझायें लेकिन यह धारा निरन्तर गहरी होती जा रही है। यह धारा काफी हद तक चुनाव परिणामों को प्रभावित करती है। पहले चरण के मतदान में भी देखने को मिला था कि मुस्लिम बहुल सीटों पर ज्यादा मतदान हुआ। तीसरे चरण में भी देखा गया कि यादव बहुल सीटों पर तीन प्रतिशत ज्यादा मतदान हुआ।

कहने को आप कह सकते हैं कि जिन सीटों पर जिस जाति-धर्म के लोग हैं वे ज्यादा वोट डालेंगे ही। लेकिन यह बात सिर्फ तार्किक तौर पर कही जा सकती है। सही बात तो यह है कि कुछ जाति विशेष के लोग अपनी पार्टी के प्रत्याशी को विजयी बनाने के लिए हरसम्भव प्रयास करते हैं। इसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। अपनी पार्टी को विजयी बनाने के लिए सभी प्रयास करते ही हैं लेकिन जब यह जीत का आधार जातिगत हो जाये तो इस पर यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि क्या मतदाता जाति के आधार पर मतदान कर रहा है। उसे जाति के आधार पर मतदान करने के लिए कौन प्रेरित करता है। क्या यह चुनाव आयोग की मंशा के विपरीत नहीं है। इतना ही नहीं, चुनाव में टिकट देते समय भी जातिगत आंकड़ों को ध्यान में रखकर प्रत्याशी मैदान में उतारे जाते हैं। अगर यह प्रवृति इसी तरह बढ़ती रही तो लोकतंत्र में अनिवार्य चुनावी व्यवस्था ही सवालों के घेरे में आ जायेगी। 

राज्य की 59 सीटों के लिए रविवार को वोट डाले गये। यूं तो शाम पांच बजे तक 57.58 प्रतिशत तक मतदान होने की जानकारी थी, लेकिन उस समय भी मतदाताओं की कतारें लगी थीं। मतदान सायं 6 बजे समाप्त हुआ। जाहिर है कि मतदान प्रतिशत में बढ़ोत्तरी तो होगी ही। तीसरे चरण के मतदान की सबसे खास बात यह रही है कि यादव बहुल 23 सीटें, जिनमें 30 से 50% तक यादव वोटर हैं, उन पर ओवरऑल वोटिंग से तीन प्रतिशत ज्यादा मतदान हुआ। यादव बहुल सीटों में इटावा, फिरोजाबाद और मैनपुरी के आसपास के जिलों की विधानसभा सीटें मानी जाती हैं।

सामान्यत: चुनाव में समाज कल्याण, महंगाई, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, जन सुविधाओं जैसे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दे उठाये जाते रहे हैं। कहने को अब भी ये मुद्दे उठाये जाते हैं लेकिन इससे कहीं ज्यादा जाति और धर्म को केन्द्रित कर मतदाताओं को प्रलोभित किया जाता है। ऐसा नहीं कि मतदाता राजनीतिक दलों की इन चालाकियों से वाकिफ नहीं लेकिन चाहे-अनचाहे वह सियासी दलों के इस चक्रव्यूह में फंस जाता है। राजनीतिक दल कुछ न कुछ ऐसी लहर पैदा कर देते हैं कि मतदाता उसमें बह जाता है। हालांकि आज का मतदाता पहले की तुलना में प्रबुद्ध है। वह अपना भला-बुरा भली प्रकार पहचानता। उसने वोट किस पार्टी को दिया है वह अंत तक इस राज को नहीं खोलता लेकिन सियासी दल विशेष तरह की लहर पैदा कर देते हैं जिसमें वह अपनी बुद्धि का शायद ही उपयोग कर पाता हो।

चुनाव प्रचार के दरम्यान भाषा और संयम की तो अब बात ही छोड़ दीजिये। कोई किसी से कम नहीं। सभी खुलकर अभद्र और अप्रासंगिक टिप्पणियां करते हैं इसके जवाब में उसी तरह के जवाब आते हैं। तर्क-कुतर्क का ऐसा जाल खड़ा किया जाता है कि मतदाता यथार्थ से कोसों दूर हो जाता है। निश्चित रूप से इस बार के चुनाव परिणाम के बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर परिणामों में जाति और धर्म का पुट नजर आये तो इसमें किसी को हैरत नहीं करनी चाहिए।

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