छायावाद की छाया से निकलकर राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म आज के दिन यानि 23 सितंबर 1908 को हुआ था। मूलरूप से छायावादी कवि ने राष्ट्रवाद की एक से बढ़कर एक कविताएं लिखी। जब आजादी का संघर्ष चरम पर था उसी समय दिनकर की कविताएं देश में जोश भर रही थी। देश की आजादी के बाद भी दिनकर की ओजस्वी कविताएं प्रेरणा देती हैं।
दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वो बेबाक टिप्पणी से कतराते नहीं थे। राष्ट्रकवि ने एक बार राज्यसभा में नेहरू की ओर इशारा करते हए कहा कि, “क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया है, ताकि हिंदीभाषियों को रोज अपशब्द सुनाए जा सकें?” ये सुनकर नेहरू सहित सभा में बैठे सभी लोग हैरान रह गए।
देश की आजादी की लड़ाई में भी दिनकर ने अपना योगदान दिया था। वो गांधीजी के बड़े मुरीद थे। उनकी ओजपूर्ण कविताएँ स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों के विरुद्ध जन-जन में देशभक्ति की भावना जागृत करने से लेकर 1975 के आपातकाल में तानाशाही मानसिकता के विरुद्ध प्रमुख स्वर बनी। वो हिंदी साहित्य के बड़े नाम दिनकर उर्दू, संस्कृत, मैथिली और अंग्रेजी भाषा के भी जानकार थे। वर्ष 1999 में उनके सम्मान में भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया। दिनकर की साहित्य में सूर्य के समान चमक थी। उनकी लिखी कविता-
सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली
जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली
जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम
“जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?”
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में
लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं
सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो
आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है