- हर दल जनता के हितों को लेकर बड़े- बड़े दावों में जुटा
आनन्द अग्निहोत्री
लखनऊ। एक थे हातिम। शायद ही कोई ऐसा हो जिसने यह नाम न सुना हो। हातिमताई के नाम से तो सीरियल भी टीवी पर दिखाया जा चुका है । ये महाशय ऐसे थे जो सभी का भला करते थे। कोई भी अगर किसी समस्या में फंसा हो तो उसे ये जरूर समस्या से निजात दिलाते थे। अब ऐसे कोई हातिम तो रहे नहीं। हां, बड़ी संख्या में हाकिम दिखाई देने लगे हैं। ये किसी का कुछ भला कर सकें या नहीं, लेकिन भला करने का दिखावा जरूर करते हैं। इनकी कोशिश यही होती है कि लोग इन्हें अपने रहनुमा के रूप में स्वीकार कर लें। ये हर समय रहनुमाई दिखाते भी नहीं लेकिन हर पांच साल में एक वक्त जरूर आता है जब ये साबित करने का प्रयास करते हैं कि उनसे बड़ा कोई रहनुमा नहीं है। ईश्वर की कृपा हुई तो कभी-कभी बीच में भी इन्हें रहनुमाई दिखाने का अवसर मिल जाता है। स्वयं को रहनुमा साबित करने का मौसम फिर से बन गया है। अभी शुरुआत है, कोशिशें धीमी हैं लेकिन जल्द ही ये तेज हो जायेंगी।
यह मौसम और कभी नहीं, बस चुनाव के समय आता है। प्रदेश में योगी सरकार ने तकरीबन साढ़े चार साल पूरे कर लिये हैं। छह महीने बाद उन्हें फिर से कुर्सी हासिल करने के लिए इसी अवधि में स्वयं को जनता का सबसे बड़ा हाकिम साबित करना है। बड़ी मुश्किल आन पड़ी है, दूसरे हाकिम जो मुकाबले पर आ गये हैं। यूं तो योगी आदित्यनाथ स्वयं को राष्ट्र और हिन्दुत्व का सबसे बड़ा रहनुमा बताते हैं। उनकी कार्यप्रणाली और बयानों से भी यही लब्बो-लुआब निचुड़ कर सामने आता है। वैसे वे स्वयं को गरीबों का मसीहा, जनता का संकटमोचक और न जाने क्या-क्या साबित करने का प्रयास करने लगे हैं। बताते हैं कि उनकी हुकूमत ने, चाहे वह कोरोना का संकट रहा हो, महंगाई या बेरोजगारी का, सभी को संकट से उबारने का काम किया है। उनके सिपहसालारों की तो पूछिये मत, वे तो उनसे भी चार कदम आगे हैं। होना भी चाहिए, अपना हाकिम फिर से कुर्सी पर विराजमान हो जाये तो पांच साल के लिए सारे संकट दूर। योगी से बड़े हाकिम भी पीछे नहीं हैं। हर सम्बोधन में योगी को बेहतरीन हाकिम साबित करने का प्रयास करते हैं।
दूसरे हाकिम हैं समाजवादी पार्टी के मौजूदा मुखिया अखिलेश यादव। एक बार प्रदेश की सत्ता संभाल चुके हैं। यह दीगर बात है कि घर में ही उनकी टांग घसीटने की कोशिशें भी की जाती रहीं। जो भी हो, पांच साल तक तो उन्होंने कुर्सी संभाली ही है। कथित जनहित के तमाम काम भी किये हैं। अब वह जनता के संकटों को लेकर पीडि़त हैं। बेरोजगारी बढ़ रही है, महंगाई बढ़ रही है, सरकार निरीह जनता पर जुल्म ढा रही है, न शिक्षा का कोई विधिवत इंतजाम है और न चिकित्सा का। अपराधियों के हौसले बुलंद हैं, अफसर किसी की नहीं सुनते। अखिलेश यादव को इस सबसे बड़ी पीड़ा हो रही है। चार साल तक वह नाम मात्र का विरोध प्रदर्शन करते रहे। अब जब दर्द ज्यादा बढ़ गया तो शक्ति प्रदर्शन के लिए वे साइकिल चला रहे हैं। उन्होंने जनता के अलग-अलग वर्गों को समझाना शुरू कर दिया है कि वे उनके लिए क्या करने का विचार रखते हैं। वह यादव समुदाय के तो स्वयंभू हितैषी पहले से ही हैं लेकिन अब उनकी नजरें समाज की दूसरी जातियों पर भी है। वे इनके अलग से सम्मेलन कर रहे हैं, मान-सम्मान दे रहे हैं। मजबूरी है, छह महीने बाद संग्राम जो होना है। मौजूदा सरकार ने आपको कितनी मुसीबतों में डाला, यह बताने से भी वे नहीं चूकते। यह अलग बात है कि उनके घर में ही उनके विरोधी हैं जो खुद को उनसे बड़ा हाकिम साबित करने की कोशिशें कर रहे हैं।
अब बहनजी यानि बसपा की सुप्रीमो मायावती कैसे पीछे रह सकती हैं। एक वर्ग विशेष का रहनुमा होने का दम तो वे पहले से भर रही हैं। उन्होंने इस वर्ग के लिए क्या किया, यह तो वे ही जानें लेकिन अब उनकी नजरें समाज के उस वर्ग पर भी हैं जिसकी वे कभी कट्टर विरोधी हुआ करती थीं। पंडित जी यानि ब्राह्मण अब उनकी नजर में श्रेष्ठ हो गये हैं। अपने तो अपने हैं हीं, अगर दूसरे वर्ग भी अपने बन गये तो एक बार फिर से कुर्सी मिल सकती है। वे अन्य हाकिमों की तरह मौजूदा सरकार का विरोध तो नहीं करतीं लेकिन दलित समुदाय के साथ अगर किसी तरह का अन्याय हुआ तो वे ट्वीट कर या बयान जारी कर विरोध जरूर करती हैं। यही तो समझदार हाकिम की विशेषता है कि वह दुश्मन को मारता भी है लेकिन अपनी लाठी भी टूटने नहीं देता है। अब इसका क्या कहें कि उनकी पार्टी में न सही, उनके समुदाय में रावण का जन्म हो चुका है। सभी जानते हैं कि रावण कुछ भी कर गुजरने में किसी से पीछे नहीं रहा।
यह तो हुई बड़े हाकिमों की बात। अभी छोटे हाकिम और भी हैं। ओवैसी साहब भी उत्तर प्रदेश में घुस आये हैं और मुसलमानों में प्रचारित कर रहे हैं कि उनके हाकिम तो वे ही हैं। तुम लोग कहां सपा-बसपा के फेर में पड़े हो। अब उनका वर्ग उनकी बात पर कितना ध्यान देता है, यह तो छह माह बाद पता चलेगा। फिलहाल खुदाई खिदमतगार की कोशिशें तो जारी ही हैं। कुछ ऐसे हाकिम भी हैं जो स्वयं को प्रदेश का रहनुमा साबित करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन उनकी आवाज में ज्यादा दम नहीं लग रहा। बड़ी मुश्किल है जनता के सामने, वह किसे सच्चा हाकिम माने, रहनुमा समझे। हाकिमों के सिपहसालार उन्हें सुबह-शाम पट्टी पढ़ा रहे हैं कि कौन सा हाकिम सच्चा रहनुमा साबित होगा। सियासी शब्दजाल में फंसी जनता उलझन में है। जो भी हो, मरता क्या न करता, उसे किसी न किसी को तो हाकिम मानना ही होगा। बेहतर हो कि वह सुने सब की और करे मन की। बहुत नाजुक मोड़ है। जरा भी गलत राह चुनी तो पांच साल के लिए पछताना पड़ेगा। इसलिए पहले थोड़ा सोचिये, समझिये और विचार कीजिये, तब फिर अपने मत पर हाकिम को बैठने दीजिये।