अरविंद जयतिलक
पाश्चात्य जगत में विश्व साहित्य का कोई भी ग्रंथ इतना अधिक उद्धरित नहीं हुआ है जितना कि भगवद्गीता। भगवद्गीता ज्ञान का अथाह सागर है। जीवन का प्रकाशपूंज व दर्शन है। शोक और करुणा से निवृत होने का सम्यक मार्ग है। भारत की महान धार्मिक संस्कृति और उसके मूल्यों को समझने का ऐतिहासिक-साहित्यिक साक्ष्य है। इतिहास भी है और दर्शन भी। समाजशास्त्र और विज्ञान भी। लोक-परलोक दोनों का आध्यात्मिक मूल्य भी। आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मित्र तथा भक्त अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में गीता का तब उपदेश दिया जब वे सत्य की रक्षा के लिए अपने बंधु-बांधवों से युद्ध करने में हिचक रहे थे। गीता के रुप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकला यह उपदेश किसी जाति, धर्म और संप्रदाय की सीमा से आबद्ध नहीं है। बल्कि यह संपूर्ण मानव जाति के कल्याण का मार्ग है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर संपूर्ण संसार को सत्य का बोध कराया है। ब्रहमपुराण के अनुसार द्वापर युग में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष के एकादशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया। गीता का उपदेश मोह का नाश करने वाला है। इसीलिए एकादशी को मोक्षदा एकादशी भी कहा जाता है। युद्ध में जब अर्जुन मोहग्रस्त होकर अपने आयुध रख दिए थे, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें नश्वर भौतिक शरीर और नित्य आत्मा के मूलभूत अंतर को समझाकर युद्ध के लिए तैयार किया। बिना फल की आशा किए बिना कर्म का संदेश दिया। श्रीकृष्ण के उपदेश से अर्जुन का संकल्प जाग्रत हुआ। कर्तव्य का बोध हुआ। ईश्वर से आत्म साक्षात्कार हुआ। उन्होंने कुरुक्षेत्र में अधर्मी कौरवों को पराजित किया। सत्य और मानवता की जीत हुई। अन्याय पराजित हुआ। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से जगत को समझाया कि निष्काम कर्म भावना में ही जगत का कल्याण है। श्रीकृष्ण का उपदेश ही गीता का अमृत वचन है। उन्होंने गीता के जरिए दुनिया को उपदेश दिया कि कौरवों की पराजय महज पांडवों की विजय भर नहीं बल्कि धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर और सत्य की असत्य पर जीत है। श्रीकृष्ण ने गीता में धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य और न्याय-अन्याय को भलीभांति परिभाषित किया है। उन्होंने धृतराष्ट्र पुत्रों को अधर्मी, पापी और अन्यायी तथा पाडुं पुत्रों को पुण्यात्मा कहा है। उन्होंने संसार के लिए क्या ग्राहय और क्या त्याज्य है उसे भलीभांति समझाया। श्रीकृष्ण के उपदेश ज्ञान, भक्ति और कर्म का सागर है। भारतीय चिंतन और धर्म का निचोड़ है। समस्त संसार और मानव जाति के कल्याण का मार्ग है। गीता श्रीकृष्ण द्वारा मोहग्रस्त अर्जुन को दिया गया उपदेश है। विश्व संरचना का सार तत्व है। गीता महज उपदेश भरा ग्रंथ ही नहीं बल्कि मानव इतिहास की सबसे महान सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक और राजनीतिक वार्ता भी है। संसार की समस्त शुभता गीता में ही निहित है। गीता का उपदेश जगत कल्याण का सात्विक मार्ग और परा ज्ञान का कुंड है। श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में खड़े अर्जुन रुपी जीव को धर्म, समाज, राष्ट्र, राजनीति और कुटनीति की शिक्षा दी। प्रजा के प्रति शासक के आचरण-व्यवहार और कर्म के ज्ञान को उद्घाटित किया। गीता में संसार को संदेश है कि दुर्योधन, कर्ण, विकर्ण, जयद्रथ, कृतवर्मा, शल्य, अश्वथामा जैसे अहंकारी और अत्याचारी जीव राष्ट्र-राज्य के लिए शुभ नहीं होते। वे सत्ता और ऐश्वर्य के लोभी होते हैं। श्रीकृष्ण ने ऐसे लोगों को संसार के लिए विनाशक कहा है। उदाहरण देते हुए समझाया है कि विष देने वाला, घर में अग्नि लगाने वाला, घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, धन लूटने वाला, दूसरों की भूमि हड़पने वाला और पराई स्त्री का अपहरण करने वालों को अधम और आतातायी कहा है। श्रीकृष्ण ने इन लोगों को भी ऐसा ही कहा है। उन्होंने गीता में समाज को प्रजावत्सल शासक चुनने का संदेश दिया है। अहंकारी, आतातायी, भोगी और संपत्ति संचय में लीन रहने वाले आसुरी प्रवत्ति के शासकों को राष्ट्र के लिए अशुभ और आघातकारी बताया है। कहा है कि ऐसे शासक प्रजावत्सल नहीं बल्कि प्रजाहंता होते हैं। संतों का कहना है कि गीता का उपदेश वैखरी वाणी से नहीं बल्कि परावाणी से दिया गया था। तत्वज्ञानियों का कहना है कि इस माध्यम से लाखों शब्दों का संदेश क्षण भर में दिया जा सकता है। तत्वज्ञानियों का तर्क है कि क्षण भर के स्वप्न में व्यक्ति संपूर्ण जीवन और जन्म-जन्मांतरों के अनुभवों से जुड़ सकता है। यह संभव है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद इसी रुप में हुआ हो। तत्वज्ञानियों का चिंतन और उनका सम्यक विचार आज भी गीता की महत्ता और उसकी प्रासंगिकता को संदर्भित कर रहा है। शास्त्रीय दृष्टि से महाभारत एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, गीता जिसका एक छोटा सा अंश है। महाभारत में एक लाख से अधिक श्लोक हैं जिसमें से सात सौ बीस श्लोकों का ग्रंथ गीता है। यह ग्रंथ न केवल आध्यात्मिक मूल्यों का संवाहक है बल्कि वैदिक परंपरा और चिंतन का सारतत्व भी है। डा0 राधाकृष्णन् के अनुसार यह धर्मग्रंथ कम, मनोविज्ञान, ब्रहमविद्या और योग का ग्रंथ ज्यादा है। भाषा के तौर पर यह काव्य है लेकिन विषय के तौर पर अध्यात्म है। निर्वाण व मुक्ति का मार्ग है तो विश्लेषण व विवेचन के तौर पर जीवन जीने का संयमित मार्ग है। संसार में रहते हुए उससे अप्रभावित रहने की कला है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ज्ञानयोग से बुद्धि, कर्मयोग से इच्छा और भक्तियोग से भाव स्थिर होते हैं। यानी गीता कर्म संस्कार को परिमार्जित करने वाला एक दिव्य गं्रथ है। विश्व के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है कि भगवद्गीता को पढ़कर मुझे ज्ञान हुआ कि इस दुनिया का निर्माण कैसे हुआ और जीवन को किस तरह जीया जाना चाहिए। महापुरुष महात्मा गांधी अकसर कहा करते थे कि जब मुझे कोई परेशानी घेर लेती है तो मैं गीता के पन्नों को पलटता हूं। महान दार्शनिक श्री अरविंदों ने कहा है कि भगवद्गीता एक धर्मग्रंथ व एक ग्रंथ न होकर एक जीवन शैली है, जो हर उम्र के लोगों को अलग संदेश और हर सभ्यता को अलग अर्थ समझाती है। गीता के प्रथम अध्याय में कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन रुपी जीव द्वारा मोहग्रस्त होना, करुणा से अभिभूत होकर अपनी शक्ति खो देना इत्यादि का भलीभांति उल्लेख है। दूसरा अध्याय हमें देहान्तरण की प्रक्रिया, परमेश्वर की निष्काम सेवा के अलावा स्वरुपसिद्ध व्यक्ति के गुणों से अवगत कराता है। तीसरे, चैथे व पांचवे अध्याय में कर्मयोग और दिव्य ज्ञान का उल्लेख है। यह अध्याय इस सत्य को उजागर करता है कि इस भौतिक जगत में हर व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार के कर्म में प्रवृत होना पड़ता है। छठा, सातवां और आठवें अध्याय में ध्यानयोग, भगवद्ज्ञान और भगवद् प्राप्ति कैसे हो इसका मार्ग सुझाया गया है। ध्यानयोग में बताया गया है कि अष्टांगयोग मन तथा इन्द्रियों को कैसे नियंत्रित करता है। भगवद्ज्ञान में भगवान श्रीकृष्ण को समस्त कारणों के कारण व परमसत्य माना गया है। नवें और दशवें अध्याय में परम गुह्य ज्ञान व भगवान के ऐश्वर्य का उल्लेख है। कहा गया है कि भक्ति के मार्ग से जीव अपने को ईश्वर से सम्बद्ध कर सकता है। ग्यारहवें अध्याय में भगवान का विराट रुप और बारहवें में भगवद् प्राप्ति का सबसे सुगम और सर्वोच्च मार्ग भक्ति को बताया गया है। तेरहवें और चैदहवें अध्याय में प्रकृति, पुरुष और चेतना के माध्यम से शरीर, आत्मा और परमात्मा के अंतर को समझाया गया है। बताया गया है कि सारे देहधारी जीव भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अधीन हैं-वे हैं सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण। कृष्ण ने वैज्ञानिक तरीके से इसकी व्याख्या की है। पंद्रहवें अध्याय में वैदिक ज्ञान का चरम लक्ष्य भौतिक जगत के पाप से अपने आप को विलग करने की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। सोलहवें, सत्रहवें और अन्तिम अठारहवें अध्याय में दैवी और आसूरी स्वभाव, श्रद्धा के विभाग व संन्यास सिद्धि का उल्लेख है। गीता ज्ञान का सागर और जीवन रुपी महाभारत में विजय का मार्ग भी है।