Sunday, September 8, 2024
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हिन्दी सिनेमा के पुलिस कमिश्नर इफ्तिखार

लेखक : दिलीप कुमार

किशोर कुमार का एक गीत है – ‘जाना था जापान पहुँच गए चीन समझ गए ना’ – इफ्तेखार पर यह गीत सटीक बैठता है. आज के दौर में हो सकता है सिनेप्रेमी इफ़्तेख़ार को न जानते हों  लेकिन पुरानी फ़िल्मों में पुलिस की वर्दी में एक रुआबदार आवाज़ लगभग हर फिल्म में सुनाई देती थी.  इफ्तेखार की दुनिया अलहदा थी. रुचि पेंटिंग में, शौक गाने का और बन गए एक्टर, नियति पहले से ही तय कर चुकी होती है, कौन क्या करेगा! अंततः नियति ने इफ्तिखार को रंगमंचन के लिए चुना. इफ्तिखार फिल्मो में हीरो बन गए. हिन्दी फ़िल्मों में पुलिसवाले की अपनी इस छवि के साथ ऐसे बंध गए, कि फिर निकल ही नहीं सके. हिन्दी सिनेमा की पुरानी फ़िल्मों में ये डायलॉग जरूर होता था, ‘भागने की कोशिश मत करो पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है, भलाई इसी में है कि तुम अपने आप को कानून के हवाले कर दो”, हिंदी फिल्मों में लगभग हर पुलिसवाले की जुबान से ये डायलॉग सुनने को मिल ही जाता था. इस डायलॉग को सुनकर एक जो तस्वीर सामने उभरकर आती है वो हैं, रुआबदार आवाज़ अभिनेता ‘इफ्तिखार’अभिनेता इफ्तिखार को गोल्डन एरा की फिल्मों में पुलिसवाले की अनगिनत भूमिकाओं में देखा गया है.

इफ्तिखार विश्वसनीय अदाकार थे, विलेन की भूमिका में होते हुए भी यही लगता था. इफ्तिखार पर दर्शकों का विश्वास होता था, कि  इफ्तिखार मुजरिमो को पकड़ने के लिए शायद कोई खेल कर रहे हैं. इफ्तिखार ने एक ही किस्म के सैकड़ों भूमिकाएं अदा की. फिर भी उनका किरदार हर बार उतना ही भरोसे का जान पड़ता था, गोया पिछले वाले रोल में कोई और ही रहा होगा.किरदारों में अधिकतर एक से होते हुए भी ‘सैयदना इफ़्तेख़ार अहमद उर्फ इफ़्तेख़ार’ ने हिंदी सिनेमा में 400 के लगभग फिल्मों में जज, खलनायक, वकील, डॉक्टर, पुलिस कमिश्नर, इंस्पेक्टर, जैसे रोल निभाए. अभिनेता इफ्तिखार की पर्सनैलिटी इतनी शाही थी, कि वो बड़े रोल करते हुए इतने सहज होते थे, देखकर लगता था, इफ्तिखार असल में कमिश्नर हैं. हालाँकि गंवई, कम पढ़े-लिखे लोगों के रोल में भी उनकी अदाकारी का हरफ़नमौला क्लास देखा जा सकता है. पेंटिंग विधा में पारंगत इफ्तिखार गायक बनना चाहते थे, उनकी गायिकी से ज्यादा संगीतकार को उनकी पर्सनैलिटी के ताब से ज्यादा प्रभावित हुए.

इफ्तिखार 22 फरवरी 1920 को जालंधर में जन्मे. कम उम्र से ही कला की ओर आकर्षित होने वाले इफ्तिखार ने मैट्रिक के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय से चित्रकला में डिप्लोमा कोर्स करने का विकल्प चुना. इफ्तिखार गायक बनने के लिए जुनून ही हद तक दीवानगी रखते थे. उनका अपना ख्वाब एक पेशेवर गायक बनना था. इफ्तिखार अपनी प्रतिभा के प्रति समर्पित भी थे. इफ्तिखार सुपरस्टार गायक केएल सहगल से प्रेरित थे. हिन्दी सिनेमा में गोल्डन एरा से पहले से ही अभिनेता एवं गायक इनके प्रभाव से शायद ही कोई बच पाया हो. चालीस के दशक में आजादी से पहले कलकत्ता साँस्कृतिक, राजनीतिक, फ़िल्मों, कला मनोरंजन की राजधानी थी. उस दौर में देश में किसी भी महत्वाकांक्षी गायक के लिए ‘केएल सहगल’ बेंचमार्क थे.

आख़िरकार इफ्तिखार 1942 में अपनी राह बनाने के लिए कलकत्ता गायक बनने के लिए निकल चले. उस दौर में देश की सबसे बड़ी म्युजिक कम्पनी  ‘एचएमवी’ प्रमुख रूप से अग्रणी थी. इफ्तिखार ने संगीतकार कमल दासगुप्ता को गायिकी का ऑडिशन दिया,इफ्तिखार गायिकी के ऑडिशन में संगीतकार को पसंद नहीं आए.कमल दासगुप्ता ने इफ्तिखार से कहा “तुम्हारी पर्सनैलिटी बहुत ही प्रभावशाली है, तुम अभिनेता के रूप में में मुझे ज्यादा जचे. लंबे, सुडौल युवक इफ्तिखार एमपी प्रोडक्शंस के साथ एक भूमिका के लिए उनकी सिफारिश की. इफ्तेखार ने कैमरे के सामने करियर के लिए गायन छोड़ दिया और अदाकारी में 1944 में अपनी शुरुआत की. इफ्तिखार बंगाली सिनेमा के जाने – माने नाम बन गए. उन्होंने हिन्दी सिनेमा में आने से पहले लगभग 70 फ़िल्मों में काम कर चुके थे, लेकिन उनको कोई खास पहिचान नहीं मिली. आख़िरकार ‘कमल दास गुप्ता’ ने इफ्तिखार को मुम्बई की राह दिखा दी. कुछ ही दिनों बाद संघर्ष, मेहनत के बाद इफ़्तेख़ार को मुम्बई रास आ गयी.

इफ्तिखार को हिन्दी सिनेमा रास भी ऐसी आई. हिंदी सिनेमा के गोल्डन एरा सत्तर के दशक तक इफ़्तेख़ार हिंदी सिनेमा में एक प्रभावशाली पिलर थे. पुरानी फ़िल्मों में अर्बन रोल में इफ्तिखार का कोई ज़वाब नहीं था. पुलिस, जज, वकील, आदि के रोल में इफ्तिखार पूरी फिल्म में जान फूंक देते थे. आवाज़ ऐसी कि फिल्म में दूसरे किरदार फीके पड़ जाते थे. इफ़्तेख़ार अभिनय के लिहाज से अव्वल दर्जे के अदाकार थे. वो जितने अच्छे से अर्बन किरदार को जीते थे, उतने ही बेहतरीन गंवाई अंदाज़ को धोती – कुर्ता पहन कर सिल्वर स्क्रीन रुआबदार आवाज़ शानदार डायलॉग बोलते थे. इफ्तिखार जैसे कैरेक्टर कलाकार के सामने बड़े – से बड़े अभिनेता को अभिनय के लिहाज से अत्याधिक तैयारी करनी पड़ती थी. 1967 में उन्होंने अमेरिकन टीवी सीरीज ‘माया’ और दो अंग्रेजी फिल्में ‘बॉम्बे टॉकीज 1970, और सिटी ऑफ जॉय 1990 में भी काम किया. यूँ तो इफ्तिखार बहुत कुछ लिखा गया है, बहुत कुछ लिखा जा सकता है.

इफ्तिखार जॉनी मेरा नाम, डॉन, जैसी फ़िल्मों में पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में बहुत फबे थे. इन किरदारों के ठीक समांतर हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म ‘तीसरी कसम’ के ठाकुर का रोल एंव शोले फिल्म में जया भादुड़ी के पिता के रूप में उन्होंने सिल्वर स्क्रीन को जीवंत कर दिया था.  इन दो भूमिकाओं में कालजयी भूमिकाओं में हैं. हीरामन (राजकपूर) के अपनी टप्पर गाड़ी में से उलट के पीछे देखकर “तीसरी कसम खाने और टेशन पर बिचारी हीराबाई के लौट जाने के बीच यदि कोई शत्रु था, तो वो ठाकुर का किरदार करने वाले  इफ़्तेख़ार ही थे.

तीसरी कसम” में इफ्तिखार को जमीदार के रोल मिलने के पीछे भी रोचक किस्सा है. हीराबाई(वहीदा रहमान) के सामने इफ़्तेख़ार वाले जमींदार का रोल झांसी के तरफ के कोई असल वाले जमींदार कर रहे थे. राजकपूर एवं शैलेन्द्र जी ने फिल्म को यथार्थवादी सिनेमा की ज़मीन तैयार  करना चाहते थे. फिल्म में जो असल जमीदार शैलेन्द्र जी के मुंहलगे थे, लेकिन उनको सिनेमा की कोई समझ नहीं थी. उधर जमींदार का रोल कंट्रास्ट के लिए रचा गया था. कविराज शैलेन्द्र जी निर्देशक ने एक्शन बोला ‘हीराबाई’ (वहीदा रहमान) ने नजाकत से पान ऑफर किया. सीन ऐसे ही था… जमींदार हीराबाई से कहते हैं आप अपने हाथों से ही ख़िला दीजिए!! कैमरा रोलिंग हुआ जीवन के असल किरदार वाले उस जमींदार ने वहीदा जी के पान ऑफर करने पर संवाद बोला और सीन पूरा हुआ. निर्देशक कविराज शैलेन्द्र जी ने ‘कट’ बोला तभी अकबकाकर असल जीवन के जमींदार ने वहीदा जी की उंगली दांतों से काट ली. उनको लगा कट मतलब काटने के लिए कह रहे हैं. जमींदार की सिनेमाई समझ औसत से भी कम रही होगी. खूब हंगामा हुआ. बड़ी मुश्किल से वहीदा जी दुबारा काम के करने को मानीं. फिल्म से असल जमींदार को फ़िल्म से बाहर  कर दिया. फिर अभिनेता इफ़्तेख़ार को फ़िल्म में काम करने का मौका मिला. अच्छा हुआ जो जमींदार इफ़्तेख़ार ही आए वरना,फिल्म की कहानी का बेड़ागर्ग हो जाता. अलबत्ता, अपने लिए तो आज तक इफ़्तेख़ार हीराबाई और हीरामन की लव स्टोरी के अधूरेपन का प्रमुख कारण कहा जा सकता है. इफ्तिखार ने ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म को हिन्दी सिनेमा की कल्ट फ़िल्मों में शुमार कराने के प्रमुख किरदार थे.

इफ्तिखार की सिनेमाई शख्सियत बहुत ही जबरदस्त थी. हिन्दी सिनेमा की एक ऐसी फिल्म ‘दीवार’ जिसने हिन्दी सिनेमा में चले आ रहे रोमांस का तंबू उखाड़ फेंका था. इसी फ़िल्म ने अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन की कुर्सी पर काबिज कर दिया था. इफ्तिखार ही डावर साहब बने थे  इफ़्तेख़ार ने  बोला तो अमिताभ के केरेक्टर के लिए ओपनिंग सिनेमाई संवाद, पर ठीक उसी क्षण सरस्वती उनकी ज़ुबान पर आकर बैठ गयी थी. उस फ़िल्म के खास दृश्य में वह अपने साथी कलाकार सुधीर से कहते हैं – “जयचंद! ये लंबी रेस का घोड़ा है. तुमने इस लड़के के तेवर देखे? यह उम्रभर बूट पॉलिश नहीं करेगा, जिस दिन ज़िंदगी के रेस में इसने स्पीड पकड़ी, ये सबको पीछे छोड़ देगा. मेरी बात का ख्याल रखना.” – अमिताभ के बारे में ये बात आज भी सौ टका सच है. कहाँ तो वह काम के लिए शुरू में कोई भी रोल करने को बेताब बैठे थे. फिर बाद में इफ़्तेख़ार के इस हिस्से में हमारा बचपन ही बीता है.

बाद में इफ्तिखार ने कई फिल्मों में सहायक भूमिकाएं निभाईं. इस बीच, उन्होंने एक यहूदी महिला हन्ना जोसेफ से शादी की, जिसने अपना नाम बदलकर रेहाना अहमद रख लिया. चीजें काफी अच्छी चल रही थीं. जब बंटवारा हुआ तो इफ्तिखार की जिंदगी उथल – पुथल हो गई. उनके परिवार के कई लोगों ने पाकिस्तान जाने का विकल्प चुना, वे भारत में रहने के इच्छुक थे. उन्हें कलकत्ता छोड़ना पड़ा. सभी को अपने हिस्से का संघर्ष करना होता है, लेकिन आजीविका के लिए इफ्तिखार को और अधिक छोटी भूमिकाओं के साथ एक लंबा संघर्ष करना पड़ा. राज कपूर की श्री 420 में उन्हें पहली बार पुलिस इंस्पेक्टर का रोल मिला. इसके,  साथ ही उन्होंने पाया कि उनकी विरासत क्या थी – एक ईमानदार पुलिस वाले की भूमिका… इफ्तिखार अपनी इस भूमिका के साथ ऐसे पहिचाने गए, कि फिर निकल ही नहीं सके.

हर कीमत पर अपने कर्तव्य पर अडिग रहने वाला वफादार अधिकारी जल्द ही इफ्तिखार की खासियत बनने वाला था. दीवार, जंजीर, डॉन, हरे रामा हरे कृष्णा, लोफर, इत्तेफाक, तीसरी मंजिल, दाग, जॉनी मेरा नाम, आदि ये कुछ ऐसी फिल्में हैं, जिनमे इफ्तिखार की दमदार आवाज़ गूंजती रहती है. 1975 के दीवार में तस्कर डावर या खेल खेल में ब्लैक कोबरा की तरह इफ्तिखार ने एक दुर्लभ अवसर पर एक अपराधी की भूमिका निभाई.

इफ़्तेख़ार के प्रति हिन्दी सिनेमा को भी कृतज्ञ होना चाहिए, पुलिस की समाज में चाहे जो छवि हो, लेकिन भारतीय पुलिस के भ्रष्ट सिस्टम पर हर कोई लानत फेंककर मारना चाहता है,, बचपन से ही हम सोचते थे, कि पुलिस महकमे में घूसखोरी, भ्रष्ट लाचार, सिस्टम होता है, लेकिन इफ्तिखार को पुलिस की वर्दी में देखते थे, तो हमारे अवचेतन मन से एक बात निकलकर आती थी, हर पुलिस वाला अगर इफ्तिखार जैसा होता तो भारतीय पुलिस महकमा ठीक होता, तो भारतीय समाज कुछ और होता. सिल्वर स्क्रीन पर किरदार को जीते हुए जब किरदार इस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं तो वो किसी भी विमर्श से ऊपर होते हैं.

पुलिस वाले की भूमिका इफ्तिखार का पर्याय बन गई, वह पेंटिंग के अपने प्यार को कभी नहीं भूले. दरअसल, उनकी पत्नी के मुताबिक इफ्तिखार ने अशोक कुमार को पेंटिंग की कला भी सिखाई थी. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा , ‘हम पहले भी बहुत करीबी दोस्त थे और अब भी हैं. दादामुनि ने इफ्ती से पेंटिंग और स्केच बनाना सीखा. एक बार, दादामुनि अशोक कुमार बीमार पड़ गए. वे बहुत चिड़चिड़े हो गए क्योंकि वे लंबे समय तक बिस्तर पर ही पड़े रहे. दादामुनि अशोक कुमार आराम करते हुए खुद को असहज महसूस कर रहे थे. इफ्ती ने सुझाव दिया कि पेंटिग कीजिए, अंततः इफ्तिखार ने पेंटिंग करना सिखाया. इसलिए दादा मुनि इतने अच्छे चित्रकार बने. इफ्तिखार इस स्तर के चित्रकार थे,

“”दूर गगन की छांव में ” फ़िल्म की तस्वीरें उनके द्वारा बनाई गई अंततः फिल्म निर्माण हुआ. 1964 में आई किशोर कुमार की फ़िल्म दूर गगन की छाँव में , इफ्तेखार ने अभिनय के अलावा और भी बहुत कुछ किया. यह एक दुर्लभ अवसर था, जब उनकी कलाकृति को शीर्षक क्रेडिट में दिखाया गया था. इससे एक समझदार अभिनेता की छिपी हुई प्रतिभा को दिखाया गया. जिसे वास्तव में उसका हक कभी नहीं मिला.

भागने की कोशिश मत करो पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है, भलाई इसी में है कि तुम अपने आप को कानून के हवाले कर दो” इस कालजयी अमर डायलॉग को  हम कभी किसी और से सुन पाने का ख्वाब ही नहीं देख सकते. हिंदी सिनेमा के सबसे शानदार चरित्र अभिनेता इफ़्तेख़ार 04 मार्च 1995 को उन्होंने इस फानी दुनिया से विदाई ली. जाते-जाते यह जान लीजिए कि चंद्रा बरोट वाले डॉन में इफ़्तेख़ार, डीएसपी बने थे, जो अमिताभ उर्फ विजय बनारस वाले को बीच मंझधार में फंसा कर निकल लिए थे. इफ्तेखार हिंदी सिनेमा में एक समय का वह चेहरा थे, भोजन में नमक की भांति थे. जैसे भोजन बिना नमक स्वादहीन होता है, ऐसे ही हिन्दी सिनेमा की फ़िल्में इफ्तिखार के कारण सुसज्जित हो कर पूर्ण हो जाती थीं. संयोग से, अशोक कुमार और इफ्तिखार दोनों अलग-अलग दुनिया में नाम कमाना चाहते थे, लेकिन दोनों अभिनेता बन गए. इफ्तिखार जहां केएल सहगल जैसा गायक बनना चाहते थे, वहीं अशोक कुमार वकील बनना चाहते थे. हिन्दी सिनेमा एवं भारतीय समाज इफ्तिखार साहब का ऋणी है…. जिन्होंने अपनी सिनेमाई समझ एवं अभूतपूर्व फ़िल्मों में योगदान से इसको और ज्यादा लोकप्रिय बना दिया. हम बचपन में एक लाइन सुनते थे, कि सच्चाई की जीत होती है, कहीं न कहीं दुनिया में आज भी सच्चाई है, पूरी फिल्म में सत्यता का पूरा का पूरा अध्याय लिखने वाले बचपन से ही रुआबदार पुलिस इंस्पेक्टर बनने का ख्वाब देखने वाले बच्चों के रोल मॉडल कभी मरा नहीं करते वो अपनी बुलन्द आवाज़ से सिनेमाई पर्दे पर बोलते हुए, छाए रहेंगे…

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