Monday, August 18, 2025
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ठंडी हवा का झोंका… दीवार में एक खिड़की रहती है!!

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दीवार में एक खिड़की रहती थी, एक मध्यवर्गीय, महाविद्यालय के शिक्षक रघुवर प्रसाद की कहानी है। उनके एक कमरे के किराये के मकान में एक खिड़की थी जिससे उपन्यास को शीर्शक मिला। खिड़की के इस पार, रघुवर प्रसाद का घर और उस पार एक अलग बगीचों, तालाब वाली दुनिया थी। ये रघुवर प्रसाद और उनकी पत्नी, सोनसी का निकास (escape) था। कहानी में कई और पात्र आते-जाते रहे हैं। विनोदकुमार शुक्ल ने कहानी को हास्य शैली में लिखा है। कई बार ऐसे हास्य वर्णन आते कि पता ही नहीं लगता क्या से क्या हो गया। कहानी को कोई बड़ा उतार चढ़ाव नहीं आता और पूरी कहानी का माहौल हलका बना रहता है। पढ़ने लायक उपन्यास है यह।

“दीवार में एक खिड़की रहती थी” उपन्यास के अंदर एक कविता है। या कि कविता की शक्ल में एक उपन्यास है। किसी भी प्रकार की जाँच-पड़ताल या शिकायत से मुक्त यह एक चित्र है। क्या चित्र वैसा ही होता है जैसा यथार्थ है? नहीं। चित्रकार अपने चित्र में यथार्थ के दृष्यों के रंगों को अपनी अलग ही दृष्टि से चित्रित करता है। यदि हमारे जीवन का चित्र हमें ही बनाने को कह दिया जाय तो संभवतः हम एक रंगहीन बेजान चित्र बनायें। रघुवर और सोनसी भी शायद अपनी ही कहानी स्वयं कहते तो एक बेजान, रंगहीन कहानी कहते। विनोद कुमार शुक्ल ने उनकी कहानी में रंग भरे हैं, बाहर से लाकर नहीं, उन्होंने रंग थोपे नहीं हैं, बल्कि जीवन में पहले से मौजूद रंगों को अपनी तूलिका से जीवंत और दृष्यमान कर दिया है। रघुवर और सोनसी की कहानी रंगों से भरी हुई एक जीवंत कहानी है। यह बात भले ही घिसी-पिटी लगे, पर यही सत्य है कि यह हमारी और आपकी कहानी है। हमारी कहानी बहुरंगी और जीवंत है!

संपन्नता और विपन्नता के समाज में कुछ सर्वमान्य पैमाने होते हैं। संपन्न्ता या विपन्नता के अपने-अपने स्तरों पर हम किसी की अपेक्षा संपन्न और किसी की अपेक्षा विपन्न होते हैं। यह तुलना हर स्तर पर होती है कि कौन संपन्न है और कौन विपन्न। साहित्य और समाज में प्रायः संपन्न्ता की अपेक्षा विपन्न्ता केंद्र में होती है। साहित्य में विपन्नता के कारणों की विवेचना से अधिक विपन्न्ता की शिकायत पायी जाती है। जीवन में भी ऐसा ही होता है। हम शिकायत करते हैं कि विपन्न हैं। यह शिकायत हम तब करते हैं जब हम स्वयं को अपनी ही विपन्न्ता से पृथक कर यह चिंतन करते हैं। किंतु जब हमारा जीवन केवल जीवन होता है, जब हमारा जीवन समाज के पैमानों के आधार पर किसी तुलनात्मक अध्ययन का विषय नहीं होता, तब केवल जीवन ही सत्य होता है। तब जीवन जिया जाता है। हो सकता है कि बाहर से ऐसा जीवन बड़ा ही नीरस हो, पर उस जीवन की सरलता और जीने वालों के सपने उसमें रंग भर देते हैं, उसे सरस बना देते हैं।

ऐसे ही सपने देखने वाले किंतु जीवन को बिना किसी तुलना और बिना किसी शिकायत के जीने वाले, और हाँ, प्रेम करने वाले पात्रों की कथा है विनोदकुमार शुक्ल का उपन्यास “दीवार में एक खिड़की रहती थी”। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित यह उपन्यास शुक्ल जी की कालजयी कृति “नौकर की कमीज” की अपेक्षा एक अलग ही कहानी कहता है। दोनों उपन्यास एक निम्न-मध्यमवर्गीय (विपन्नता का यह पैमाना हमारे द्वारा तय किया गया है, उस वर्ग में जीने वालों के द्वारा नहीं) परिवार की कहानी कहते हैं। पर “नौकर की कमीज” के विपरीत “दीवार में एक खिड़की रहती थी” किसी भी प्रकार की पीड़ा को व्यक्त करने वाला उपन्यास नहीं है। यह उस वर्ग के पात्रों के दैनंदिन जीवन के यथार्थ में निहित सौंदर्य को एक कवितामयी भाषा में व्यक्त करने वाला उपन्यास है।

कमरे की खिड़की इस उपन्यास के केंद्र में है। यह वह खिड़की है जिसके पार कूदकर सोनसी और रघुवर प्रसाद एक जादुई दुनिया में पहुँच जाते हैं। शहर के इस हिस्से में नदी है, तालाब हैं, पशु हैं, पक्षी हैं, और जंगल भी। इन  सबके साथ मानव रूप में एकमात्र उपस्थिति है एक बूढ़ी अम्मा की जो चाय की एक टपरी चलाती हैं। बूढ़ी अम्मा इतनी बूढ़ी हो चुकी हैं कि उनकी आयु में नाम का होना मायने नहीं रखता, उनका बूढ़ी अम्मा कहलाना पर्याप्त है।

खिड़की के इस पार की दुनिया हर किसी को दिखायी नहीं देती। बाहर की दुनिया से इस दुनिया में जाने का रास्ता रघुवर प्रसाद के घर के अंदर जाकर खिड़की से कूदकर ही मिल सकता है। यह दुनिया अपने साथ सुहावना मौसम, हवा में सुगंध, ठंडक और एक मोहक वातावरण लिये हुए है जहाँ रघुवर प्रसाद और सोनसी एकांत के क्षण बिताते हैं, आकाश के नीचे बेखटके प्रेम करते हैं, नदी या तालाब में नहाते हैं, और बूढ़ी अम्मा की चाय पीते हैं। इस दुनिया में वे सारे सुख हैं जो संपन्न्ता या विपन्न्ता के किसी  भी स्तर पर जीने वाले किसी भी शहरवासी को न मिलें। रघुवर और सोनसी की इस दुनिया में कभी-कभी गाँव से आकर उनके माता-पिता और छोटा भाई भी शामिल हो जाते हैं।

उपन्यास की भाषा संवादों की अनेक परतों को एक साथ दिखाती चलती है। पात्र जब दैनंदिन जीवन के सामान्य कार्य निपटा रहे होते हैं, तभी वे सपने भी देख रहे होते हैं और तभी वे प्रेम भी कर रहे होते हैं। कुछ उदाहरण देखिये:

“रघुवर प्रसाद कल की तैयारी में किताब खोलकर बैठ गये। पत्नी खाना बनाते-बनाते पति को देख लेती थी। हर बार देखने में उसे छूटा हुआ नया दिखता था। क्या देख लिया है यह पता नहीं चलता था। क्या देखना है यह भी नहीं मालूम था। देखने में इतना ही मालूम था कि इतना ही देखा था।”

यह उपन्यास पहले-पहल धारावाहिक रूप में ‘साक्षात्कार’ पत्रिका में अप्रैल 1996 से नवंबर 1996 के बीच अंकों में प्रकाशित हुआ था. आगे चलकर वाणी प्रकाशन ने 1997 में इसे पुस्तक रूप में प्रकाशित किया. शुक्ल को इसी पुस्तक के लिए वर्ष 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला| अब भारतीय साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार भी दिया गया है| शायद देर से मिला उचित सम्मान है!

शैली की दृष्टि से बात की जाए तो इस उपन्यास को प्रायः आलोचकों ने जादुई यथार्थवाद के खांचे में रख कर देखा है और कइयों ने तो इसे गैबरिएल गार्सिया मार्क्वेज़ का एक भारतीय रूपांतरण भी समझा है. पर इस संकुचित दृष्टि से देखने के अपने खतरे हैं. एक तो यह कि इससे किसी भी कृति में लगने वाली रचनात्मक ऊर्जा और मानसिक श्रम की भारी उपेक्षा होती है और दूसरी यह कि इससे कृति के वृहत्तर अर्थ को समझने की दृष्टि को ही बाधित कर दिया जाता है. हम फिर किसी खास चश्मे से एक कृति को पढ़ने लगते हैं और पूर्वाग्रहों के कारण रचना और रचनाकार दोनों ही का गलत आकलन करते हैं.

यह रचना जीवन के साधारण-से-साधारण क्षणों और अनुभवों को साधारण शब्दावली में अभिव्यक्त करते हुए भी, असाधारण लगती है. इसका कारण यह भी है कि साधारण शब्दावली में लिखे जाने से ही संभवतः यह मानवीय मन की सुंदर और सशक्त अभिव्यक्ति कर सकी है. इसीलिए इन शब्दों से गुज़रता हुआ पाठक कहीं भी भाषा के इंद्रजाल में फंसाये जाने का अनुभव नहीं करेगा. यह सहज-सरल भाषा आत्मीयता का एक ऐसा संबंध, पाठ और पाठक के बीच बना देती है कि यहां की हर एक वस्तु चिर-परिचित, हमेशा से जानी-पहचानी लगती है. इसीलिए लेखक ने जीवन की साधारणता-घटनाविहीनता में भी एक सौंदर्यबोध को देखा है, जो अभावों और मुफ़लिसी में और बहुगुणित होता है.

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