लेखक : दिलीप कुमार
सुनील दत्त बहुमुखी इंसान, जितने भी किरदार किए बेदाग रहे, आजीवन जेन्टलमैन के रूप में याद किए जाते हैं. सुनील दत्त किसी के लिए राजनेता थे, किसी के लिए बहुत उम्दा अदाकार, किसी के लिए उत्तम आचरण वाले इंसान थे. सुनील दत्त हिन्दी सिनेमा के पहले ऐसे अदाकार हैं, जिन्होंने राजनीति को सचमुच समाजसेवा के रूप में ही जिया. सुनील दत्त की बेदाग राजनीति पर अमजद खान ने कहा था “मैं दावे के साथ कह सकता हूं, जितने भी हिन्दी सिनेमा के लोग राजनीति में गए हैं सभी की अपनी महत्वाकांक्षा है, समाज सेवा एवं निश्चल भाव शायद ही किसी का हो. फिर भी सुनील दत्त साहब ही वो इंसान हैं, जिन्होंने सचमुच राजनीति को समाज सेवा के लिए चुना है… राजनीति को गंदी खाई कहने वाले ईमानदार इंसान अमजद खान ने ही कहा था. राजनीति में होते हुए इतना लंबा सफर होते हुए भी दत्त साहब कभी भी विवादित नहीं रहे..अपने बेटे के मुश्किल दिनों में ज़रूर दुःखी रहे. हमेशा कट्टर बाला साहब ठाकरे से दूरियाँ बरतने वाले दत्त साहब ने मदद के लिए जरूर हाथ बढाए, उसमे भी एक पिता की संवेदनाशील भावनाएं थीं, जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी भर की सेकुलर छवि का ख्याल न रखते हुए बेटे के लिए झुक गए… यह भी उनकी ज़िंदगी का निभाया गया बेहतरीन किरदार था.
दत्त साहब ने अपने राजनीतिक जीवन में एक ऐसा अनोखा काम किया वो शायद गाँधी जी जैसे महान इंसान करते थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिक्ख दंगा के बाद 1987 के दौरान पंजाब में खालिस्तानी उग्रवादी आंदोलन अपने चरम पर था. उस दौरान दत्त ने सद्भाव व भाईचारे के लिए मुंबई से अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर तक के लिए महाशांति पदयात्रा निकाली थी. 78 दिन तक चली इस पैदल यात्रा में सुनील दत्त के साथ हज़ारों लोगों का जनसमुदाय था. 2000 किलोमीटर की इस यात्रा के दौरान उन्होंने सैकड़ों सभाएं भी की थीं. उस वक्त दत्त साहब के पैरों में छाले पड़ गए थे, लेकिन उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की थी. उन्होंने एक राजनेता, समाजसेवी, हीरो होते हुए समाज के असली हीरो की भूमिका निभाई थी.. बहुत कम लोग होते हैं, जो याद रह जाते हैं.
दत्त साहब को एक ऐसी शख़्सियत के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने सिल्वर स्क्रीन पर अदाकारी से लेकर फिल्म निर्माण, निर्देशन और अभिनय से लगभग चार दशक तक दर्शकों का मनोरंजन किया. उनके किरदार वास्तविक जीवन के बहुत क़रीब होते थे. और उनका व्यक्तित्व भी उनके किरदार की तरह बेदाग, और प्रभावी रहा. अदाकारी में सबसे प्रभावशाली संवाद अदायगी ही होती हैं. वहीँ दत्त साहब की संवाद अदायगी बहुत कमाल रही है, वो जब बोलते थे, तो बहुत साधारण संवाद भी खास हो जाता था. उनके बोलने के अंदाज़ में नफ़ासत टपकती थी. जबरदस्त उर्दू का ज्ञान होने के कारण उनका कद और प्रभावी हो जाता था. दत्त साहब ने बहुत सारी मल्टी स्टार्टर फ़िल्में भी करते रहे, लेकिन उनको कभी भी दरकिनार नहीं किया जा सका. उनका रोल भले ही छोटा होता, फिर भी वो अपनी प्रतिभा से अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराते थे. दिलीप कुमार, संजीव कुमार, राजेन्द्र कुमार, धर्मेद्र, किशोर कुमार, महमूद बदलते हुए दौर में चाहे मिथुन चक्रवर्ती हों या उनके बेटे संजय दत्त हों, दत्त साहब हमेशा से ही प्रभावी थे. दत्त साहब के लिए एक बात ज़रूर सटीक बैठती है “दत्त साहब का सुपरस्टारडम कभी भी नहीं रहा, और न ही कभी फीके पड़े. उनका सिनेमा मध्यमार्गी रहा है.
दत्त साहब को सिनेमा का पहला एंग्री यंग मैन कहा जाता है, उन्होंने बहुत से डाकुओं के रोल भी निभाए. लगभग 20 फ़िल्मों में डाकुओं का किरदार निभाने वाले दत्त साहब अपनी कद काठी के कारण रुआबदार अंदाज़ में पर्दे पर छा जाते थे. जब सुनील दत्त फ़िल्मों में डाकुओं के रोल करते हुए फिल्म में पिटते हुए दिखाए जाते थे, तो दर्शकों को अच्छा नहीं लगता था… बाद में सुनील दत्त मेन स्टीम हीरो बनकर उभरे और बुलन्दियों तक का सफर तय किया. लगभग 20 सफ़ल फ़िल्मों में डाकू का किरदार निभाने वाले दत्त साहब एक बार सचमुच डाकुओं के बीच फंस गए थे, 1964 में दत्त साहब की फिल्म ‘मुझे जीने दो’ फिल्म डकैतों के वास्तविक जीवन पर आधारित इस फिल्म में में दत्त साहब और वहीदा रहमान ने चंबल में डाकुओं के इलाके में शूटिंग की थी, कि फिल्म के सीन यथार्थ के करीब हों, फिल्म में सुनील, डाकू जनरैल सिंह के रोल में थे. यह फिल्म ऐसे माहौल में वहां पूरी की गई थी, जब डाकुओं से मारे जाने का खतरा कभी भी बना रहता था. साथ में पूरी यूनिट का होना वाकई खतरनाक था. ऐसे इलाके में शूटिंग के कारण डाकुओं के बीच फंस जाने के कारण बड़े मुश्किल से वहाँ से निकले थे. वहीदा रहमान के लिए उन्होंने बी एसएफ तक बुला लिया था. उनका सुरक्षात्मक रवैय्या आदरणीय था.
मदर इन्डिया से पहले नरगिस जी राज कपूर साहब से सलाह मशविरा करने के बाद ही दूसरी फ़िल्में साइन करतीं थीं. मदर इन्डिया में नरगिस जी की एंट्री ने ख़बर पुख्ता कर दिया था, कि दोनों का ब्रेक – अप हो चुका था. दोनों के रास्ते अलग हो चुके थे. वहीँ नरगिस जी को भी समझ आ गया था कि राज कपूर अपने बीवी – बच्चों को थोड़ा ही छोड़ देंगे. आज भी उम्र के फर्क़, सामाजिक हैसियत को देखते हुए लोग समझ नहीं पाते कि महिलाओं को रोने के लिए एक संवेदनशील कांधे की जरूरत होती है. प्रेम में पैसा, दौलत, शोहरत तो बाहरी, आवरण पूँजीपति जुगाड़ है, वहीँ नरगिस जैसी महानतम अभिनेत्री सुनील दत्त जैसे नए लड़के से शादी करने के लिए मान गईं, प्रेम में ठगी गई महिला हमेशा एक संवेदनशील इन्सान की उम्मीद में होती हैं, फिर चाहे, निक – प्रियंका हों, या विकी – कटरीना हों या नरगिस – सुनील दत्त ही हो. मदर इन्डिया के सेट पर असल में लगी हुई आग में नरगिस जी घिर गईं, तब संवेदनशील सुनील दत्त जो उसी फिल्म में उनके बेटे बिरजू का किरदार निभा रहे थे. सुनील ने अपनी जान की परवाह न करते हुए नरगिस जी की जान बचाई. एक दिन नए-नवेले सुनील दत्त ने नरगिस जी की गाड़ी से उनके घर छोड़ने का जिक्र किया, तो नरगिस जी ने कहा ठीक है, तब सुनील दत्त ने हिम्मत करते हुए इतनी बड़ी ऐक्ट्रिस को सीधा शादी के लिए प्रपोज कर दिया था… नरगिस ने कहा ‘कुछ समय चाहिए. सुनील दत्त ने भी सोच लिया था कि अगर इन्होंने मना कर दिया तो मैं जाकर गांव में खेती करूंगा. मैंने इतनी बड़ी हिम्मत करते हुए प्रेम प्रस्ताव तो दे दिया, लेकिन रिजेक्शन नहीं झेल पाउंगा… आख़िरकार नरगिस जी ने दो दिन बाद हाँ कर दिया, और शादी कर ली. मदर इन्डिया फिल्म की रिलीज तक शादी छिपा ली गई थी, कि फिल्म पर असर न पड़े. यह सुनकर राज कपूर साहब शराब की लत में डूब गए थे, बहुत महीने उबरने के लिए लगे. इतनी गहरी, सच्ची मुहब्बत को भुला पाना तो आसान नहीं था, लेकिन एक बेहतर कल के लिए बीते कल को जेहन से निकाल कर स्मृतियों में टांका ही जाता है. तब तक राज कपूर साहब अपनी सिनेमा की दुनिया में व्यस्त हो चुके थे. वहीँ नरगिस जी भी घर – गृहस्थी में व्यस्त हो चुकी थीं. सुनील दत्त फ़िल्मों के साथ ही असल ज़िन्दगी में भी महानायक थे. उन्होंने नरगिस जी के साथ एवं असल ज़िन्दगी में राजनेता होने के बाद भी एक जेन्टलमैन के रूप में याद किए जाते हैं. शादी हो जाने के बाद उनसे हमेशा राज कपूर को लेकर सवाल किया जाता था, लेकिन उन्होंने कभी भी अभद्र जवाब नहीं दिया. हमेशा कहते थे, नरगिस, राज कपूर साहब दोनों की दोस्ती जवानी भर का एक आकर्षण था… यह कोई अज़ीब बात नहीं है. भले ही रहा जो भी हो यह जवाब कोई अति संवेदनशील इन्सान ही दे सकता था. कभी भी उनकी तल्खी देखी नहीं गई. हिन्दी सिनेमा के पहले एंग्री यंग मैन और राजनीतिक तौर पर बेदाग राजनेता. दत्त साहब का 25 मई, 2005 को हृदय गति रुकने के कारण दुनिया छोड़ गए. दत्त साहब ने जितने भी किरदार निभाए सभी किरदार यादगार बेदाग हैं. एक संवेदनशील भावुक प्रेमी, बेदाग राजनेता वटवृक्ष पालक, आला स्वभाव के मालिक आज भी प्रेरित करते हैं. उनकी पुण्यतिथि पर सलाम…