आनन्द अग्निहोत्री
कांग्रेस महासचिव और उत्तर प्रदेश के मामलों की प्रभारी प्रियंका वाड्रा गांधी उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले जिस तेजी के साथ राजनीतिक क्षितिज पर उभर रही हैं, उसके कुछ मायने हैं। जिस तरह कांग्रेस पतन की ओर गयी और जिस तेजी के साथ वह सुर्खियों में आ रही है, इस पर गौर करना लाजिमी है। हो सकता है राजनीति के पुरोधा इसे अतिश्योक्ति मानें लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस इस बार चुनाव में ज्यादा सीटें हासिल न कर पाये लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस का वोट प्रतिशत जरूर बढ़ेगा। और इसका सिर्फ एक कारण होगा और वह होगा प्रियंका गांधी की सक्रिय राजनीति में धमाकेदार आमद।
ऐसा नहीं है कि प्रियंका राजनीति का क, ख, ग पढ़ रही हों। वह राजनीति में पहले से हैं लेकिन उनकी राजनीति रायबरेली और अमेठी तक सिमटी रहती थी। वह हमेशा राजनीतिक गतिविधियों में अपनी मां सोनिया गांधी और अनुज राहुल गांधी के साये तले सक्रिय रही हैं। यह पहला अवसर है कि वह स्वतंत्र रूप से सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश का दायित्व संभाल रही हैं। सूबे में अभी चुनाव की घोषणा नहीं हुई है लेकिन चुनावी गतिविधियां तेजी के साथ जारी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर सभी विपक्षी दलों के प्रमुख जिस अंदाज में जनसभाएं कर रहे हैं, यात्राएं निकाल रहे हैं, घोषणाएं कर रहे हैं, उससे साफ है कि ये सारे चुनावी कार्यक्रम हैं। इनका सिर्फ एक ही मकसद है और वह है मतदाताओं को अपने पाले में लाना।
कौन कितने मतदाताओं को प्रभावित करेगा, इस बारे में कुछ कह पाना राजनीतिक विश्लेषकों का विषय है। लेकिन प्रियंका गांधी जिस तरह लखनऊ को अपना मुख्यालय बनाकर मृतप्राय कांग्रेस में जान फूंकने की कोशिश कर रही हैं, उससे माना जा सकता है कि ये कोशिशें जरूर गुल खिलायेंगी। इन दिनों पार्टी संगठन के नाम पर कांग्रेस सचमुच मृतप्राय है। सत्तारूढ़ भाजपा और अन्य विपक्षी दलों के पास जिस तरह मजबूत और कुशल नेतृत्व है, कांग्रेस में उसका अभाव है। सक्षम नेतृत्व का कांग्रेस में अभाव नजर आता है। ऐसे में सूबे में पार्टी की बागडोर थामना साहस का ही काम है। प्रियंका गांधी की द्रुत राजनीतिक गतिविधियां इस बात का संकेत करती हैं कि जमीन से जुड़ी उनकी मेहनत एक बार फिर कांग्रेस में जान फूंक सकती है।
यूं तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद ही कांग्रेस संगठन में प्रियंका गांधी को राजनीति में लाने की मांग उठने लगी थी लेकिन उनकी मां सोनिया गांधी ने प्रियंका के बजाय अपने पुत्र राहुल गांधी को सियासी मोर्चे पर उतारना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। उन्होंने ऐसा क्यों किया, यह अलग विषय है। देर से ही सही, प्रियंका गांधी की राजनीति में आमद हो चुकी है और वह स्वतंत्र रूप से अपनी दूरदर्शिता का परिचय दे रही हैं। यूं तो कांग्रेस और देश में रही उसकी सरकार को लेकर विपक्षी दल तमाम तरह की टिप्पणियां करते हैं लेकिन जहां तक प्रियंका गांधी का सवाल है, व्यक्तिगत उनको लेकर किसी तरह की टिप्पणियां नहीं की जा रहीं। सूबे की राजनीति में फिलहाल राहुल गांधी की कोई भूमिका नजर आ रही हैं। सम्भवत: पिछले चुनावों के नतीजे और राहुल गांधी की छवि को लेकर इस बार बागडोर स्वतंत्र रूप से प्रियंका गांधी को ही सौंपी गयी है।
एक शाश्वत नियम है कि चरम के बाद पतन का दौर शुरू होता है और पतन के बाद चरम का। कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में इस समय खोने के लिए कुछ नहीं है। यानि साफ है कि एक कमजोर पार्टी को एकदम से सत्ता में नहीं लाया जा सकता। लेकिन वह कभी सत्ता में नहीं आ पायेगी, यह कहना अनुचित होगा। प्रियंका गांधी ने भले ही अभी तक एक भी चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन चुनावों और उनके नतीजों को करीब से देखा जरूर है। अपने इस अनुभव का लाभ वह सूबे में उठा सकती हैं। पार्टी को ज्यादा सीटें मिलें या नहीं, लेकिन उसका मत-प्रतिशत जरूर बढ़ेगा। बहुत सम्भव है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस का ब्रह्मास्त्र साबित हों।