समीर सूरी
कहा जाता है कि एक बार सभी बुद्धिजीवी एक साथ स्वर्ग पहुँचे पर वहाँ जगह खाली नहीं थी। दुर्भाग्य से
वहाँ केवल एक के लिए ही जगह उपलब्ध थी। उस एक जगह के नीतिगत आवंटन के लिए भगवान ने अच्छे और बुरे कर्मों का खाता खोल कर बाँचा । अरे ये क्या? इसमे सभी के कर्म समान थे। फिर उन्होंने सभी से एक ही सवाल किया । इस सवाल का सही उत्तर देने वाले को ही स्वर्ग में स्थान मिलना था। सभी को अपनी – अपनी क्षमता पर भरोसा था इसलिए सभी ने शर्त मान ली।
सवाल था “आप एक कार में चार हाथियों को कैसे बिठाएंगे?” सवाल मुश्किल था लेकिन कोई रास्ता नहीं था, इसलिए जवाब तैयार किए गए थे।
ब्यूरोक्रेट “दो आगे और दो पीछे”
यूनियन नेता”पहले बातचीत करेंगे फिर उन्हें सीट देने के बारे में सोचेंगे”
समाजवादी “हर हाथी एक के बाद एक बैठेगा”
उद्योगपति “उसे मेरी कार में बिठाओ, यह बेहतर माइलेज देती है”
सामंतवादी “जब हम यहाँ हैं तो हाथी कार में कैसे बैठ सकता है”
महिला कार्यकर्ता “दो सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होनी चाहिए।”
राजनेता “हाथी (धर्म) एक साधारण जानवर है। इसे कार (राजनीति) से दूर रखना चाहिए”
पूंजीवादी “हाथी मादा लाओ और उत्पादन बढ़ाओ”
धार्मिक नेता “यह पश्चिमी सभ्यता (कार) हमारी सभ्यता (हाथी) को नष्ट कर रही है”
कम्युनिस्ट “यह एक पूंजीवादी चाल है”
आम आदमी “मैं टहल कर आता हूँ”
यह सिर्फ एक मज़ाक है। हमें नहीं पता कि भगवान ने क्या निर्णय दिया लेकिन आम आदमी के जवाब में हताशा है। दिन- ब- दिन बढ़ता भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, धार्मिक कट्टरता, राजनेताओं का गिरता स्तर, बढ़ता उपभोक्तावाद सब आम आदमी पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है लेकिन वह हल खोजने में असमर्थ है। आम आदमी जब राजनेता या उद्योगपति बनता है तो खुद को व्यवस्था का हिस्सा मात्र पता है। वह राजनेता, कलाकार, खिलाड़ी, धार्मिक नेता या गैर सरकारी संगठन सभी को बारी – बारी आजमाता है। समाधान के लिए इन सबका मुह ताकता है, परखता है व खुद को इनको समर्पित कर देता है। अंततः उसे यह लगता है कि सभी इस व्यवस्था का हिस्सा हैं। वास्तव में यह व्यवस्था बेहद पतित है और सभी किस बुरी तरह से इसकी जकड़न में हैं। यह व्यवस्था जर्जर और खोखली हो चुकी है। सभी इसे धराशायी होने से बचाने के लिए प्रयास कर कर रहे हैं। समय – समय पर सामाजिक और धार्मिक मान्यताएँ हमें विरोध करने से रोकती हैं। हमारी संस्कृति और मान्यताएँ हमें सहिष्णु होना सिखाती हैं । यह हमारी दिनचर्या में इतनी गहराई से जड़ें जमा चुका है कि हमें इसके बारे में पता भी नहीं है। जो कोई भी कहीं भी और किसी भी रूप में विरोध करता है उसे विद्रोही करार दे दिया जाता है। हमारे सामाजिक जीवन में यथास्थितिवादी मानसिकता इतनी गहरी पैठ बना चुकी है कि ऐसा लगता है इसे बदलने में दशकों लगेंगे। जुगाड़, एडजस्टमेंट, प्रैक्टिकल, मंडवाली हमारी दैनिक शब्दावली में इस्तेमाल होने वाले शब्द बन चुके हैं ।
हमारा समाज खुद यह इजाजत नहीं देता कि हम व्यवस्था में बदलाव करें। अपनी परम्पराओं, मान्यताओं को बिना प्रश्न सूचक मानने को बाध्य करता है। पहले हमारी अपनी व्यवस्था, मान्यताएं और फिर अंग्रेजों की अधीनता ने हमारे विकास को बाधित किया। हमने अधीनता से छुटकारा पाया लेकिन उस मानसिकता से नहीं।
हमारी सामाजिक संस्था हमें प्रगतिशील होने के बजाय पीछे हटने के लिए मजबूर करती है। हमें आगे बढ़ने से डराने के लिए एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है, जैसे युवाओं में बढ़ते पश्चिमीकरण को पेश करना, या पश्चिमी संस्कृति के सामाजिक दिवालियेपन जैसे अत्यधिक तलाक दर या योनिक खुलापन या प्रगति के नाम पर नग्नता को प्रदर्शित करना। वर्तमान दुनिया की भौतिकता (भले ही थोड़े समय के लिए) हमें यह मानने के लिए मजबूर करती है कि हमारा पिछला समाज उन्नत था। हम पश्चिमी लोगों की कमियों को पेश करने में शर्म महसूस नहीं करते हैं लेकिन अगर कोई हमारी अपनी कमियों को प्रस्तुत करता है तो हम आहत होते हैं। हम अपनी सदियों पुरानी शांति और संस्कृति की सभी मर्यादाओं को त्याग कर किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।
हमारे धर्मग्रंथ रामायण का पहला श्लोक संवेदनशीलता का बेहतर उदाहरण है —
मा निषाद प्रतिष्ठऻ त्वमगमः शाश्वती: समा: । यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ॥
हे निषाद ! तुमको अनंतकाल तक (प्रतिष्ठा) शांति न मिले, क्योंकि तुम ने प्रेम, प्रणय-क्रीडा में लीन असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी। निषादका धर्म है पंछियों को पकड़ना लेकिन वह भी नियम और सम्वेदनशीलता से परे नहीं है।
हमारा पहला स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों के खिलाफ था। अंग्रेजों ने अगर गोलियों में मांस नहीं मिलाया होता तो हम अगले पचास वर्षों के लिए अपने पहले स्वतंत्रता संग्राम से वंचित रह जाते। अंग्रेज़ चालक थे उन्होंने यह गलती दोबारा नहीं की । उन्होंने धर्म का इस्तेमाल बखूबी अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए किया । धर्म में हस्तक्षेप ना करके उन्होंने और नब्बे वर्ष तक हमारे देश में शासन किया । अंग्रेज़ो के राज में आम जनता त्राहि त्राहि कर रही थी। किसी कि कोई सुनवाई नहीं थी। लोगों में शासन के प्रति भयंकर आक्रोश था। आज का राजनेता भी उसी रास्ते पर चल रहा है लेकिन हम उसे दोष नहीं देते क्योंकि वह हम में से एक है। वह विदेशी नहीं है। जहाँ तक शासन के तरीकों की तुलना करने की बात है तो आज के राजनेता अंग्रेजों से बहुत आगे हैं। वह जनता की अज्ञानता को मिटाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं। वह केवल अपने लाभ के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए वह हमारे सामाजिक पिछड़ेपन का पूरी तरह से उपयोग करते हैं और हम अपने सामने हो रहे इस नाटक के दर्शक मात्र हैं या इसका हिस्सा बनने के लिए मजबूर हैं। हम वास्तविक मुद्दों से भटक रहे हैं जो हमें घेर रहे हैं।
आइये स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर अज्ञानता और गलत मान्यताओं और बंधन की बेड़ियों को तोड़ने का संकल्प लें । हम संकल्प लें कि हम किसी के बहकावे में आकार अपने वास्तविक उद्देश्य से भटकेंगे नहीं। आइये , एक नया भारत बनाने का संकल्प लें, जहां कतार का अंतिम व्यक्ति भी खुशहाल होगा। युवाओं के पास रोजगार होगा। हमारी धार्मिक मान्यताएँ हमें तोड़ने का नहीं जोड़ने का काम करेंगे । सबको सवास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी । कोई बच्चा शिक्षा से महरूम नहीं होगा। पूंजी का असमान वितरण नहीं होगा। सभी खुशहाल और सम्पन्न होंगे।