दिलीप कुमार
स्तंभकार
एक शिक्षित, शालीन, शख्सियत बचपन में अमजद खान बहुत ही शरारती किस्म के बच्चे थे. अमजद खान अविभाजित लाहौर में जन्मे थे.हिन्दी सिनेमा के अभिनेता जयंत के पुत्र थे. अभिनेता बनने से पूर्व अमजद , दूरदर्शी निर्देशक के.आसिफ के साथ सहायक निर्देशक के रूप में काम करते हुए बारीकियों को सीख रहे थे. अमजद खूब पढ़े-लिखे इंसान थे, वहीँ के आसिफ़ के साथ रहते हुए भी वो मूलतः अभिनेता रहे, यह पहलू आकर्षित करता है, कि निर्देशन सीखते हुए भी अभिनय नहीं छोड़ा. अमजद खान ने के.आसिफ की फिल्म “लव एंड गॉड” में पहली बार बतौर अभिनेता कैमरे का सामना किया,फिर चेतन आनन्द की फिल्म “हिंदुस्तान की कसम” में एक पाकिस्तानी पायलट की भूमिका निभाई. इन दोनों भूमिकाओं में कोई प्रभाव नहीं छोड़ सके. ये औसतन किरदार जो न दर्शको को याद रहे और न स्वयं अमजद खान याद करना चाहते थे. अंतत अमजद खान शोले को अपनी पहली फिल्म मानते थे. शोले फिल्म के काम करने वाले प्रत्येक किरदार की वो उसके लिए सिग्नेचर फिल्म थी. अमजद अपनी सिनेमाई यात्रा की सफलता का श्रेय अपने पिता को देते थे, उनको लगता था, कि मेरे पिता ने जो सिखाया वो कोई भी पाठशाला नहीं सिखा सकती थी, वो कहते कि मेरे पिता जी मेरे लिए पूरा का पूरा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा संस्थान हैं. केवल अदाकारी ही नहीं ज़िन्दगी का प्रत्येक सबक उनसे सीखा, कोई भी व्यक्ति अमजद नामक व्यक्ति अपने पिता रूपी अपनी जड़ से जुड़ा होता है, तो उसका एक पूरा का पूरा वृक्ष बन जाना स्वाभाविक है….
व्यक्ति अपने जीवन में हर कोई ऐसा कुछ करता है, या करना चाहता है. जिसमें उसको सुकून मिले, हर कोई ऐसा करना चाहता है, जिससे उनकी साकारात्मक स्मृतियाँ उसके अपने लोगों के जेहन में अंकित हो जाएं. पर्दे पर खलनायकी के खूंखार तेवर दिखाने वाले अमजद निजी जीवन में बेहद दरियादिल और शांति प्रिय इंसान थे. शिक्षित शालीन थे.
अमजद बहुत दयालु इंसान थे. हमेशा दूसरों की मदद को तैयार रहते थे.यदि फिल्म निर्माता के पास पैसे की कमी देखते, तो उसकी मदद कर देते, यह बात आज के दौर में थोड़ा हास्यास्पद लग सकती है, कि फिल्म निर्माता के पास पैसे नहीं होते थे, यह बिल्कुल सच है, क्यों कि तब फ़िल्में बनाना व्यपार करना नहीं था, बल्कि सामाजिक चेतना का प्रसार करना होता था. उस दौर में भी अमजद खान जैसे लोग थे, जो फिल्म की महत्ता को समझते थे, फिर अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे. आज के व्यपारिक दौर में यह बातेँ सुनना भी एवं जिक्र करना भी सदियों पुरानी बातेँ हैं, या कोई राजा रानी टाइप कहानियां हैं ऐसा आभास होता है.
आज के दौर में कलाकारों को सीखना चाहिए, कि सत्ता की चरण चाशनी करने की बजाय कैसे अपनी आवाज का उपयोग किया जाता है, सीखना चाहिए. अमजद खान की शख्सियत हर किरदार में लाजवाब थी. निरंकुश सत्ता के खिलाफ़ बोलने से पीछे नहीं हटे. यह नरीमन पॉइंट पर एयर इंडिया के सभागार में होने वाली सेंसरशिप पर एक पैनल हुई. चर्चा पैनल में कई गणमान्य लोग थे.अमजद उनमें से एक थे.तत्कालीन केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री श्री एच.के.एल.भगत मुख्य अतिथि थे.अमजद चर्चा में अपना पक्ष रख रहे थे, जब उन्होंने भगत को देखा और दर्शकों को बताया,”ये देखिये हमारे मंत्री जी सो रहे है, ये हमारी बात क्या समझेगे?” मिस्टर भगत गुस्से से लाल हो गए, लेकिन तब एक शब्द भी नहीं कह सकते थे. वह कभी नहीं भूले कि कैसे अमजद ने उन्हें बेइज्जत किया था, और इसका परिणाम तब देखा गया जब अमजद ‘पुलिस चोर’ और ‘अमीर आदमी गरीब आदमी’ द्वारा निर्देशित दोनों फिल्मों का सेंसर द्वारा उनकी फ़िल्में रोक दी गईं थीं.
हिन्दी सिनेमा में डाकू का एक परम्परागत चेहरा चला आ रहा था. धोती-कुर्ता सिप पर पगड़ी आँखें हमेशा गुस्से से लाल. माथे पर काला तिलक, लंबी लंबी मूंछे, कमर में कारतूस की पेटी, कंधे पर लटकी बंदूक, हाथों में घोड़े की लगाम, मुँह से निकलती गालियाँ मतलब अभद्र विलेन होता था, डाकू हो तो क्या क्या ही कहने.अजीत एक ऐसे विलेन थे, जो पढ़े-लिखे सभ्य विलेन थे, उसके बाद अमजद खान ने फिल्म शोले के गब्बर सिंह डाकू की इस इमेज को एकदम काऊ बॉय शैली में बदल दिया.उसने ड्रेस पहनना पसंद किया. कारतूस की पेटी को कंधे पर लटकाया.गंदे दाँतों के बीच दबाकर तम्बाखू खाने का निराला अंदाज, अपने गुर्गों से सवाल-जवाब करने के पहले खतरनाक ढंग से हँसन….. फिर एक अकड़ से पूछना – कितने आदमी थे? अमजद ने अपने हावभाव, वेषभूषा और कुटिल चरित्र के जरिए हिन्दी सिनेमा के डाकू को कुछ इस तरह पेश किया कि वर्षों तक डाकू गब्बर के अंदाज में पेश होते रहे. महाभारत में कृष्ण का रोल करने वाले नीतीश भारद्वाज कहते हैं “हम जितने भी महाभारत के किरदार हैं,सिल्वर स्क्रीन पर हम हीरो बनने आए थे, लेकिन मुझे कृष्ण बना दिया गया, किसी को अर्जुन, किसी को दुर्योधन, नीतीश कहते हैं, कि हमारा जन्म ही शायद इसी के लिए हुआ है, और हम अपने जीवन से संतुष्ट हैं, क्योंकि महाभारत काल असर था, कि आज भी आँखे बंद करो तो किसी को देखना चाहें कल्पना में की कृष्ण कैसे रहें होंगे तो नीतीश भारद्वाज का नाम जेहन में आता है. यही बात गब्बर सिंह उर्फ़ अमजद खान के लिए सटीक बैठती है, अमजद खान इस सिल्वर स्क्रीन नहीं सभी को बता कर चले गए, कि भारत में कभी रावण था, दुर्योधन था, तो एक डाकू था,जिसका नाम बब्बर सिंह था. कलाकार की कला जब संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तो वो अमजद खान गब्बर सिंह बन जाते हैं, फिर लगता है शायद उनका जन्म गब्बर बनने के लिए ही हुआ था.
यूँ तो अमजद खान गब्बर सिंह के किरदार के लिए कभी भी पहली पसंद नहीं थे. शोले फिल्म की कास्टिंग के दौरान निर्देशक रमेश सिप्पी के जेहन में गब्बर सिंह के लिए एक ही नाम डैनी था. गौरतलब है कि शोले की पटकथा पढ़ने के बाद संजीव कुमार ने भी गब्बरसिंह का रोल करने की इच्छा जाहिर की, लेकिन सिप्पी की पहली पसंद डैनी थे, जो उस दौर में तेजी से उभरकर पहली पायदान के खलनायक बन गए थे.
मेहनत के साथ साथ नियति जैसा भी कुछ होता है. उन दिनों फिरोज खान की फिल्म ‘धर्मात्मा’ की शूटिंग में डैनी व्यस्त थे. फिरोज़ खान को पूरा वक़्त लिखित में दे चुके थे. फिर वही हुआ सभी को पता है, इतिहास है. ऐसे समय में शोले के पटकथा लेखक सलीम-जावेद ने अमजद के नाम की सिफारिश रमेश सिप्पी से की थी. सलीम – जावेद अमजद खान को थियेटर में काम करते हुए देखकर पहले से ही प्रभावित थे. रमेश सिप्पी ने आख़िरकार अमजद खान को कास्ट कर लिया, फिर गब्बर सिंह के रूप में अमजद खान अमर हो गए. अमजद को जो गेट-अप दिया गया, उस कारण उनका चरित्र एकदम से लार्जर देन लाइफ हो गया. पश्चिम के डाकूओं जैसा लिबास पहनकर, गंदे दाँतों से अट्टहास करती हँसी. बढ़ी हुई काँटेदारदाढ़ी और डरावनी हँसी के जरिये, और संवाद अदायगी में ‘पॉज’ का इस्तेमाल तो उनका बहुत ही प्रभावशाली था, क्रूरता गब्बर के चेहरे से टपकती थी,दया करना तो जैसे वह जानता ही नहीं था. उसकी क्रूरता ही उसका मनोरंजन थी. उसने बसंती को काँच के टुक्रडों पर नंगे पैर नाचने के लिए मजबूर किया. अधिकांश विलेन हिरोइन के प्रति अपनी मुहब्बत को प्रकट करते हैं, वो नायिका को प्रताड़ित नहीं करते थे, लेकिन गब्बर ने नायिका बसंती को प्रताड़ित किया, इससे दर्शकों के मन में गब्बर के प्रति नफरत पैदा हुई और यही पर अमजद कामयाब हो गए.
हिन्दी सिनेमा में महान सत्यजीत रे की शख्सियत एक फिल्मी साहित्यिक संस्थान की है. महान सत्यजीत रे अधिकांश बंगाली फिल्में बनाते थे. सत्यजीत रे ने सत्तर के दशक में मुन्शी प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित एक हिन्द़ी फिल्म बनाना चाहते थे.‘शतरंज के खिलाड़ी’ इस फ़िल्म में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के रोल के लिए उन्हें एक अभिनेता की दरकार थी. उसी समय 15 अगस्त 1975 को एक हिन्दी फिल्म आई, ‘शोले’, फिल्म देखते हुए उनको अपनी फिल्म के किरदार ‘वाजिद अली शाह’ किरदार उनको मिल चुका था. उनकी नज़र जिस कलाकार पर ‘डाकू गब्बर सिंह’. महान सत्यजीत रे हीरे की पहिचान करने वाले जौहरी थे, अंततः उन्होंने इतने बड़े किरदार के लिए अमजद खान को चुन लिया. कॅरियर के शुरुआत में ही महान सत्यजीत रे के साथ काम करना किसी को भी रोमांचित कर सकने वाला अनुभव हो सकता था. उनकी अदाकारी देखने के बाद सत्यजीत रे साहब ने पहली ही बार में तय कर लिया कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में वे अमजद खान को ही नवाब वाजिद अली शाह के किरदार के लिए लेंगे. एक दंतक कथा चलती रहती है कि कई लोगों ने सत्यजीत रे को समझाया था कि इस किरदार में अमजद को लेना ये जोख़िम होगा, लेकिन सत्यजीत रे की सिनेमाई समझ को कोई नकाराता था मैंने सुना नहीं है, किस में इतनी समझ थी कि वो उनको समझाता,हालांकि वो खुद डिस्कशन करते थे, लोगों के सुझाव मानते भी थे.
हिन्दी फिल्में ख़ास तौर पर, कुछ तय फॉर्मूलों पर चला करती थी. इसीलिए फिल्म बनाने वाले अक्सर कलाकारों को उसी तरह के किरदारों में बार-बार काम लेते थे. जिनमें देखने वाले उन्हें एक बार पसंद कर चुके हैं.और ‘शोले’ में अमजद खान को ‘गब्बर सिंह’ के किरदार में किस हद तक पसंद किया गया. सत्यजीत रे को कोई फर्क़ नहीं पड़ा लिहाज़ा, अमजद खान से संपर्क किया गया. जैसे ही अमजद खान ने सुना कि सत्यजीत रे उन्हें अपनी फिल्म में लेना चाहते हैं, उन्होंने तुरंत ही ‘हां’ कर दी. क्योंकि कोई बिरला ही होता, जो उनके लिए मना करता.
शबाना आज़मी कहती थीं, “मुझे महान सत्यजीत रे की फिल्म के सेट पर झाड़ू मारने का काम भी मिल जाए तो मैं काम करना चाहूँगी. सत्यजीत रे की यही करिश्माई शख्सियत थी. अमजद खान के लिए यह मौका खुद को एक मुख्तलिफ किरदार में खुद को साबित करना था, उसके लिए चुनौती आसान नहीं थी.
हालांकि अमजद खान के पास उस वक़्त शूटिंग के लिए कोई तारीख़ नहीं थी. उन्हें लगता था कि सत्यजीत रे जैसे महान आदमी मेरा इंतजार क्यों करेंगे. अंततः उन्होंने अपनी दिक़्क़त सत्यजीत रे को बता दिया. यह बात अमजद खान के लिए रोमांचित करने वाली थी, उन्होंने भी ज़्यादा वक़्त न लिया यह कहने में कि ‘कोई बात नहीं, हम इंतज़ार करेंगे’. तीन महीने महान सत्यजीत रे ने अमजद खान की तारीख़ों के लिए इंतजार किया. इसके बाद उनके हिस्से की शूटिंग शुरू हो सकी और साल 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ लोगों के सामने आई.दिलचस्प बात ये कि इस फिल्म में ‘शोले’ की तरह ‘गब्बर’ यानी अमजद खान के मुकाबले में ‘ठाकुर’ मतलब संजीव कुमार ही थे. शतरंज के मुकाबलों में. संजीव कुमार ने इस फिल्म में मिर्ज़ा सज़्ज़ाद अली का किरदार किया.
फिल्म जब आई तो फिल्म समीक्षक दंग रह गए. कि नवाब वाजिद अली शाह की सूरत में यह वही ‘गब्बर’ है, जो ‘शोले’ में तंबाकू रगड़ते हुए डायलॉग बोलता था. ‘यहां से पचास – पचास कोस दूर गांव में, जब बच्चा रात को रोता है, तो मां कहती है बेटे सो जा. सो जा, नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा’. या, ‘कितने आदमी थे. सुअर के बच्चो. वो दो थे और तुम तीन. फिर भी वापस आ गए’.महान संजीव कुमार के ही सामने, ‘बहुत जान है तेरे हाथों में. ये हाथ हमको दे दे ठाकुर. ये हाथ हमको दे ठाकुर. ऐसे दमदार अभिनय करना आसान नहीं होता. बेमिसाल अदाकार अमजद खान, जिनका कमाल अभिनय सिर्फ़ दो किरदारों में नहीं बाँध सकते. अमजद खान ने हर किरदार को बखूबी निभाया.
अमजद खान मेन स्ट्रीम हीरो नहीं थे, फिर भी इस किस्म के शायद इकलौते अदाकार थे. एक साथ दस – दस फिल्मों की शूटिंग करते थे. सभी फिल्मों में उनके किरदार अलग होते थे. हर अलग किरदार को अलग तरीके से निभाना, एक ही दिन में कई तरह से कहानियो पर काम करना आसान नहीं था. एक किरदार को दूसरे के साथ मिक्स नहीं किया. सभी किरदारों में एक अलग लेवल होता था. अमजद खान को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो थियेटर, नाटक, मूलत अभिनय में पारंगत थे. इसलिए इस विधा में इस खास मुकाम पर पहुंच सके. अमजद खान ने ख़ुद एक इंटरव्यू के दौरान कहा था, ‘मैं ख़ुश-क़िस्मत हूं कि मुझे इस तरह के डायरेक्टर्स और राइटर्स मिले, जिन्होंने मुझे एक तरह के किरदार में डूबने से बचा लिया. उन्होंने मेरे अन्दर किरदारों को देखा और ऐसे तमाम किरदार मेरे हवाले किए, जिन्हें देखकर देखने वाले मेरी हौसलाअफजाई करते हैं.
अमजद खान बचपन से ही शरारती थे, कहते हैं कि आदमी का बचपन उसके अपने किसी न किसी कोने में जरूर रहता है. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि ‘शोले’ की रिलीज के पहले मैंने ईश्वर से कहा था कि यदि फिल्म सुपरहिट होती है तो वे फिल्मों में काम करना छोड़ दूँगा, कोई अपने पीक पर काम करना क्यों छोड़ देगा, हालांकि यह मेरा बचकाना निर्णय था. हालांकि फिल्म हिन्दी सिनेमा में मील का पत्थर साबित हुई, अमजद खान के लिए अब रास्ता शुरू हुआ था, क्यों छोड़ देते. एक कार दुर्घटना में अमजद बुरी तरह घायल हो गए. एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में लोकेशन पर जा रहे थे. वो ठीक तो हो गए. लेकिन डॉक्टरों की बताई दवा के सेवन से उनका वजन और मोटापा इतनी तेजी से बढ़ा कि वे चलने-फिरने और अभिनय करने में कठिनाई महसूस करने लगे. वैसे अमजद मोटापे की वजह खुद को मानते थे. अमजद ने अपना वादा नहीं निभाते हुए काम करना जारी रखा. कहते थे, कि मैंने खुदा के साथ किया गया वायदा नहीं निभाया. इसलिए मेरा इतना वजन बढ़ गया. यह सज़ा खुदा ने मुझे दे दिया है. इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो अमजद खान ही जानते थे.
फिल्मी पर्दे पर खूबसूरत वसंती पर भी अत्याचार करने वाला गब्बर निजी जीवन में बहुत ही शालीन शख्स थे, खूब प्रेम बांटने वाले, खूब प्यार करने वाले थे. आमिर खान की फिल्म ‘राजा हिन्दुस्तानी’ का गाना ‘परदेसी परदेसी’ हर सिने प्रेमी को याद है. इस गाने में कल्पना अय्यर ने काम किया था. इस गाने में अभिनेत्री ने बंजारा लुक और डांस से सभी को दीवाना बना दिया. कल्पना अय्यर ने फिल्मों में आइटम नंबर्स कर लोगों के दिलों में एक अलग पहचान बनाई. कल्पना अय्यर और अमजद खान के का अफेयर काफी चर्चा में रहा. दोनों एक साथ फिल्म ‘प्यार का दुश्मन’ में नजर आए थे. कल्पना अय्यर अमजद खान को बहुत प्यार करतीं थीं, और वह अमजद से शादी करना चाहती थीं. कल्पना अय्यर अमजद खान के प्यार में इस कदर समर्पित थीं, कि अमजद खान की मौत हो जाने के बाद उन्होंने कभी शादी नहीं की. वो आज तक कुंवारी ही हैं. ऐसा प्रेम दुर्लभ होता है, ऐसा समर्पण, त्याग, लोगों को बताता है कि केवल पाना ही प्यार नहीं है, आप प्रेम मन से करते हैं उसको आप आजीवन कर सकते हैं, अमजद खान एवं कल्पना अय्यर का रूहानी प्रेम आजकल के प्रेमियों के लिए प्रेरणा है…..
अमजद खान बहुत ही बेपरवाह आदमी थे, मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसे लोग बहुत पसंद आते हैं. इसके अलावा वे चाय के भी शौकीन थे. एक घंटे में दस कप तक वे पी जाते थे. इससे भी वे बीमारियों का शिकार बने. मोटापे के कारण उनके हाथ से कई फिल्में फिसलती गई. 27 जुलाई 1992 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और दहाड़ता गब्बर हमेशा के लिए इस फानी दुनिया को रुखसत कर गया. अमजद खान का एक कालजयी डायलॉग था, जो डर गया समझो मर गया….. यह डायलॉग उनकी ज़िन्दगी का पूरा का पूरा दस्तावेज है… अमजद खान उर्फ गब्बर न कभी डरेगा न कभी मरेगा अपनी स्मृतियों के साथ जिंदा रहेगा…..