लेखक : मनीष शुक्ल
मंदी की तलवार अचानक ऐसे चल जाएगी ये तो कभी सोचा भी नहीं था… रौनिक उपाध्याय सुबह तैयार होकर ऑफिस गया और शाम को टर्मिनेशन लेटर लेकर घर लौट आया। रौनिक घर आकर सीधे बेड रूम में जाकर पसर गया। न सुनिधि से कुछ बोला, न ही यशी को गोद में उठाया। बस खुद में सिमट जाना चाहता था। जहां से उसको कोई आवाज देकर वापस न बुला सके।
यशी और सुनिधि की आवाजें भी रौनिक के कानों तक जाकर रुक जा रही थी। दोनों से कुछ कहना चाहता था। अपना दर्द बांटना चाहता था लेकिन आज गला उसका साथ नहीं दे रहा था। कुछ समय पहले तक वो कंपनी का ‘दिमाग’ माना जाता था। कंपनी की ग्रोथ का भागीदार, लोगों को नौकरी देने वाला बॉस लेकिन एकाएक सब हाथ से निकल गया। पहली तिमाही की मंदी की तलवार सीधे उसपर और उसकी टीम पर चल गई। सारे सदस्य बेरोजगार हो गए।
कारपोरेट कल्चर में रौनिक कुछ ऐसा खो गया था कि घर परिवार सब पीछे गाँव में छूट चुके थे। उसकी पढ़ाई के लिए बाबू जी के गाँव का मकान गिरोह रखकर कर्ज लिया था। रौनिक के जाने के बाद गाँव की जमीन और गाय, भैसे दूसरों की देखरेख में छोड़ दिये गए। बाबूजी को उम्मीद थी कि रौनिक जल्द ही सब ठीक कर देगा। उनका, खेत, पशुधन सब वापस आएगा। मकान का कर्जा भी खत्म हो गाएगा। फिर खुशहाली लौट आएगी। यही ख़्वाहिश दिल में सँजोये बाबूजी इस दुनियाँ से जा चुके थे। अब रौनिक के साथ थे तो बस पत्नी और चार साल की बेटी। गाँव की संपत्ति दूसरों के हवाले थी। हालांकि इन सालों में रौनिक ने काफी तरक्की की थी। देखते- देखते कंट्री हेड बन गया था। गाँव के मकान का कर्जा भी चुका रहा था। घर और पशुओं की देखभाल के लिए लोग किराए पर रख लिए लिए थे लेकिन मंदी की ऐसी बयार चली कि एक ही पल में उसका सबकुछ छिन गया। वो जी भर के रोना चाहता था। पर हालात इस बात की इजाजत नहीं दे रहे थे। एकबार तो लगा कि अब जीकर क्या फायदा… पर उसके कंधों पर खुद के और गाँव के परिवार की ज़िम्मेदारी थी, जो मरने भी नहीं दे सकती थी।
सुनिधि दौड़ी- दौड़ी उसके पास आई… क्या हुआ रौनिक आज बहुत परेशान लग रहे हो। सब ठीक तो है…. हाँ कुछ खास नहीं… रौनिक ने लंबी सांस लेते हुए कहा और मुंह घुमाकर लेट गया। सुनिधि ने उसको झकझोरते हुए कहा… कोई बात तो है… तुम्हें यशी की कसम… मुझसे नहीं कहोगे तो किससे कहोगे… बताओ न… कुछ नहीं!! नौकरी छूट गई है… मंदी में कंपनी ने छंटनी कर दिया है। कुल 25 कर्मचारी निकाले गए हैं… जिसमें सबसे ऊपर मेरा नाम था। यह सुनते ही सुनिधि का चेहरा फक्क पड़ गया। नए घर की किश्तें, यशी के स्कूल की फीस, गाँव के मकान का कर्ज, बीमा, कार सबकी किश्तें अचानक साँप की तरह फन फैलाकर डंसने के लिए खड़े हो गए। कोई भी रास्ता बचने का नजर नहीं आ रहा था।
फिर भी सुनिधि ने रौनिक को ढांढस बंधाते हुए कहा, कोई बात नहीं… नौकरी छूटी है, कौन सा हमारे जीवन का जहाज डूब गया है। फिर नौकरी मिल जाएगी, हम नई शुरुआत करेंगे, तब तक खर्च में कटौती करके जी लेंगे। जरूरत पड़ी तो अपने गहने बेंच देंगे। आखिर ये वक्त जरूरत के लिए ही बनवाए थे। तुम चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा। कहने को सुनिधि ने आसानी से ये कह दिया लेकिन दोनों जानते थे कि आने वाले जीवन की राहें बड़ी मुश्किल होंगी। धीरे- धीरे जमा पूंजी खत्म हो जाएगी। कार और घर की किश्त अदा न करने पर ये छिन जाएंगे। गाँव का मकान भी बिक जाएगा और यशी का इन्टरनेशनल स्कूल भी छूट जाएगा। इस सब से बढ़कर रौनिक के लिए चिंता का विषय ये था कि उसकी टीम के सदस्य बेरोजगार हो गए हैं। उसने ही इंटरव्यू लेकर सबको नौकरी पर रखा था। रौनिक ने अपनी टीम को परिवार का ही दर्जा दिया था। तभी कंपनी की तरक्की में सबने दिन- रात एक कर दिये थे लेकिन रौनिक ये नहीं समझ सका कि कारपोरेट कल्चर में परिवार और रिश्तों के लिए कोई जगह नहीं होती है। मुनाफा ही रिश्तों का सफर तय करता है। पर रौनिक आज भी रिश्तों कि अहमियत को समझता था। वो जानता था कि जब तक मंदी चल रही है, तब तक उसकी टीम के सदस्यों को कोई नौकरी मिलने वाली नहीं है। ऐसे में वो खुद को ही अपनी टीम की बेरोजगारी के लिए जिम्मेदार मान रहा था।
आखिर करें तो करें क्या, जिससे इस मुसीबत से खुद को और सारे टीम मेम्बर को आर्थिक संकट से बाहर निकाला जा सके। रौनिक इसी उधेड़बुन में लगा परिस्थितियों से बाहर निकलने का रास्ता खोज रहा था। आखिरकार उसने टीम के सारे सदस्यों को बुलाया और इस हालात से निपटने के लिए रास्ता खोजने की कोशिश की। ज़्यादातर युवा सदस्य ग्रामीण परिवेश के ही थे। जिनके पास न तो पैतृक संपत्ति थी और न ही जमा पूंजी, ऐसे में कोई बड़ा उद्योग भी लगाना संभव नहीं नजर आ रहा था। हाँ, थोड़ी बहुत गाँव की जमीन और पशु धन ही सबके पास था लेकिन इससे नई कंपनी नहीं खड़ी की जा सकती थी। फिरभी हाथ पर हाथ रखकर बैठा नहीं जा सकता था। उसने सारे सदस्यों से चर्चा की और अपने- अपने आइडिया देने के लिए कहा। काफी चर्चा के बाद तय हुआ कि अगली मीटिंग में वो ऐसे व्यवसाय पर चर्चा करेंगे जो सब मिलकर आसानी से खड़ा कर सकें।
रौनिक के बेरोजगार होने के बाद गाँव की जमीन, घर और पशुओं की देखभाल के लिए धन की दोबारा किल्लत हो गई थी। ऐसे में रौनिक ने फैसला किया कि वो खुद गाँव जाएगा और वहाँ जाकर पशुओं और खेतों की देखभाल करेगा। उसने गाँव जाकर खेती और पशु पालन में असीम संभावना देखी। वापस शहर आकर अगली बैठक में रौनिक ने कहा कि हम सभी के पास पूंजी के नाम पर केवल कृषि योग्य जमीन और पशुधन ही उपलब्ध है। अगर सब मिलकर अपने ही गाँव में खेती और पशु पालन का व्यवसाय करें तो ज्यादा पूंजी की जरूरत नहीं होगी और प्रकृति की सेवा भी हो सकेगी। रौनिक ने सलाह दी कि हम एक ऐसी कंपनी बनाएँगे जो दुग्ध से संबन्धित सारे देशी उत्पाद बाजार को उपलब्ध कराएगी। साथ ही जैविक खेती कर लोगों को स्वास्थ्यफरक खाद्य सामग्री उपलब्ध कराएंगे। यह विचार सभी बेरोजगार युवाओं को पसंद आया। रौनिक ने सभी की राय के बाद “कामधेनु आपूर्ति” नाम कंपनी स्थापित की जबकि सरकार की ओर स्टार्टअप के लिए धन उपलब्ध कराया गया। अपने गाँव में उसने प्लांट स्थापित किया। टीम के सभी 25 सदस्यों को उसने बराबर की हिस्सेदारी दी। साथ सभी को खेती और पशु पालन के लिए ट्रेनिंग की व्यवस्था की। अब रौनिक ने अत्याधुनिक तकनीक और पारंपरिक विधि से जैविक खेती और पशु पालन शुरू कर दिया। जबकि टीम के सदस्यों ने अपने- अपने गाँव में जाकर यही काम शुरू कर दिया। कंपनी की गाडियाँ रोजाना सभी गांवों से दूध का कलेक्शन करने लगीं। धीरे- धीरे कामधेनु आपूर्ति देशी घी, पनीर, दही और छाछ भी सरकारी और गैर सरकारी उपक्रमों को बेचे जाने लगे। गाय के गोबर और गौमूत्र के लिए भी रौनिक ने प्लांट डाल दिया। जैविक खेती भी खूब फलने- फूलने लगी। साल भर में रौनिक और उसके टीम के सदस्यों के सारे कर्ज खत्म हो गए। रौनिक का गाँव पशु पालन और दुग्ध उत्पादन में पूरे प्रदेश में नंबर वन घोषित कर दिया गया। कंपनी के पास हजारों का पशुधन और सैकड़ों उत्पाद बाजार में आने लगे। कामधेनु ब्रांड की धूम मच गई, सभी के जीवन में एकबार फिर खुशहाली लौट आई। लेकिन अब भी एक विकट समस्या सबके सामने खड़ी थी। वो थी अपने बच्चों के लिए अच्छी और गुणवततापरक आधुनिक शिक्षा की। रौनिक के सामने भी अपनी बेटी के लिए मेट्रो शहरों जैसी शिक्षा को उपलब्ध कराने की चुनौती थी। ऐसे में उसने “मानवता मंदिर” नामक विध्यालय खोलने का निश्चय किया। तय हुआ कि शिक्षक ही इस स्कूल के स्वामी होंगे। जो बच्चों को प्राकृतिक वातावरण में भारतीय संस्कारों के साथ इन्टरनेशनल शिक्षा प्रदान करेंगे। रौनिक की पत्नी ने भी उस स्कूल में शिक्षा प्रदान करने की इच्छा जाहिर की। इसी प्रकार योग्य शिक्षक विध्यालय से जुडने लगे। संस्कृति से लेकर अंग्रेजी, विज्ञान और कम्प्यूटर की शिक्षा बच्चों को दी जाने लगी। रौनिक देखते ही देखते खुद और अपने टीम के 25 सदस्यों को बेरोजगारी से उबारकर उध्यमी बन चुका था। उसकी कंपनी में अब 5000 से ज्यादा कामगार थे। इनमें किसान, डेयरी पालक, कृषि वैज्ञानिक, पशु चिकित्सक, शिक्षक सभी शामिल थे। खास बात यह थी कि ये सभी इस उद्यम के मालिक थे। कंपनी में सबकी भागेदारी और हिस्सेदारी थी और किसी के भी सामने रोजगार छिनने का खतरा नहीं था। रौनिक एक ऐसे व्यवसाय और कंपनी को वृहद रूप दे चुका था, जो हर व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाने वाला था। रौनिक ने न सिर्फ खुद को संकट से उबारा बल्कि दूसरों के लिए भी एक मिसाल बन चुका था।