लेखक : दिलीप कुमार
हिन्दी सिनेमा की भी अज़ीब सी दुनिया है, यहां कला फ़िल्मों को बोरिंग कहकर खारिज कर दिया जाता है, वहीँ समानान्तर सिनेमा के कलाकारों को एक रस का कलाकार कहकर सीमाओं में बाँध दिया जाता है, लेकिन कई बार सिद्ध हो चुका है, कि समानान्तर सिनेमा ही प्रमुख सिनेमा है. समानान्तर सिनेमा में एक ऐसा अदाकार हुआ है, जो न अमिताभ बच्चन की तरह स्टार था, न ही नसीरूद्दीन शाह की तरह बुलन्द आवाज़ का मालिक और न ही कोई देखने में बहुत प्रभावी फिर भी अपनी शालीन, शख्सियत के साथ, अपनी हवा में बहते हुए अपना एक अलग मुकाम हासिल किया, जिन्हें हिन्दी सिनेमा का मिस्टर भरोसेमन्द कहा गया… ‘फारुख शेख’ को हिन्दी सिनेमा का ‘राहुल द्रविड़’ कहा जाता था, जिनका मुँह नहीं काम बोलता था. ‘फारुख शेख’ व्यवसायिक, एवं कला फ़िल्मों के साथ ही थिएटर की दुनिया के जाने-माने अदाकारा रहे हैं. कौन भूल सकता है, चश्मेबद्दूर में नज़र आने वाले सीधे-सादे सिद्धार्थ को, फिर चाहे फिल्म कथा का शातिर बासू हो, या शंतरज के खिलाड़ा का शकील हो, या फिर उमराव जान का नवाब सुल्तान. इन सभी यादगार किरदारों को निभाने वाले अदाकार फारुख शेख महान कलाकार की श्रेणी में गिने जाते हैं. जिन्होंने अपनी अदाकारी एवं अपनी प्रतिभा से आला मुकाम हासिल करते हुए अपने किरदारों के जरिए आज भी ज़िन्दा हैं.
‘फारुख शेख’ ने अपने करियर की शुरुआत थिएटर से की थी, ‘फारुख शेख’ शुरुआत में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) और जाने-माने निर्देशक सागर सरहदी के साथ काम किया करते थे. अपनी मेहनत, लगन और जीवंत अभिनय क्षमता से वह शीघ्र ही फिल्मी दुनिया में अपनी एक अलग छाप छोड़ने में कामयाब रहे. फ़ारुख़ शेख़ अपने किरदारों में आम ज़न जीवन को पर्दे पर उतारते हुए किरदार में जान डाल देते थे. फारुख दर्शको के साथ ऐसे जुड़ते थे कि लोगों को लगता था, कि यह अपने आसपास का कोई आदमी है. फारुख को देखकर दर्शक जुड़ जाते थे, बड़े अपनेपन के साथ… यही उनकी सबसे बड़ी सफलता भी रही है. फारुख अगर सुपरस्टार बन जाते तो शायद लोगों के साथ जमीन से जुड़ा रिश्ता कायम नहीं होता. फारुख की इस अनोखी कामयाबी के लिए उन्हें छोटे कद का बड़ा अदाकार कहा जाता था. आज भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा की आभा महसूस की जा सकती है. ‘फारूख शेख’ भारतीय आम लोगों की ज़िन्दगी, एवं मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित इन्सान के साथ-साथ मानवीय आदतों को भी पर्दे पर अभिव्यक्त करने के लिए जाने जाते थे.
आम तौर पर ‘फारुख शेख’ व्यावसायिक एवं कला फ़िल्मों में समान रूप से सक्रिय थे, एवं ग़ज़ब का समन्वय स्थापित किया. फिर भी ‘फारुख शेख’ अधिकांश व्यावसायिक फिल्मों से परहेज़ करते थे. फारुख हमेशा उन फिल्मों को प्राथमिकता देते थे, जिसमें उन्हें उनकी इच्छा का काम करने को मिलता था. फारुख शेख हमेशा से ही सिनेमाई दुनिया की चकाचौंध से दूर रहते थे, हमेशा सादगीपूर्ण जीवन के पैरोकार फारुख शेख एक अमीर परिवार में पैदा हुए फिर भी दुनिया को देखने का नज़रिया ही उन्हें एप्टा तक खीच लाया था. फारुख शेख 25 मार्च 1948 को गुजरात के अमरौली में जन्मे थे. फ़ारुख़ शेख़ ऐसे कलाकार थे, जो बड़े और असाधारण श्रेणी के फ़िल्मकारों की फ़िल्मों में एक ख़ास किरदार निभा गए, जो उसी ख़ास किरदार के लिए बने थे. फारुख केवल अभिनय नहीं करते, बल्कि उस किरदार को भी को जीते थे. अदाकारी के प्रति उनका समर्पण आदरणीय है. ऐसे किरदार ही जहन में इतना प्रभाव छोड़ जाते हैं, कि दर्शक युगों तक याद रखते हैं. विनम्र से दिखाई देने वाले ‘फ़ारुख़ शेख़’ ने अपने समय के सबसे महान फिल्मकारों के साथ काम किया था . ‘फारुख शेख’ ने महान सत्यजीत रे, मुजफ्फर अली, ऋषिकेश मुखर्जी, केतन मेहता, सई परांजपे, सागर सरहदी जैसे फ़िल्मकारों को अपने तिलिस्मी अभिनय के पाश में बाँध लिया था.
हिन्दी सिनेमा के के बड़े-बड़े अभिनेताओं के बीच फारूख को वो मुकाम नहीं मिला, जिसके हकदार थे. फारुख बेहतरीन अभिनय के लिए जाने जाते थे. उनका अभिनय बेजोड़ रहा है . उन्होंने अपने करियर की शुरुआत थिएटर से की थी. किसी भी अदाकार के लिए थिएटर सीखने के लिहाज से सबसे बड़ा संस्थान है, हालांकि अभिनय के लिए एक बहुमुखी एवं सबसे अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जो, थिएटर के जरिए एक अदाकार हासिल कर लेता है. फारुख की संजीदा, कॉमिक अदाकारी में देखी जा सकती है. जमीदार परिवार में जन्मे फारुख ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत साल 1973 में आई फिल्म गरम हवा से की थी. फारुख को थिएटर में दमदार अभिनय के कारण एमएस संधू द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गर्म हवा’ में ब्रेक मिला. जो भारत पाकिस्तान के विभाजन की पृष्ठभूमि पर बनी थी. फिल्म में मुख्य भूमिका में न होते हुए भी फारुख शेख ने अपने दमदार अभिनय की अमित छाप छोड़ी. गर्म हवा को कला फ़िल्मों की सबसे शुरुआत की फिल्म कह सकते हैं, यह महान अदाकार बलराज साहनी की अंतिम फिल्म थी. उसके बाद उनके अभिनय का सिलसिला इस तरह चला कि वर्ष 1977 से लेकर 1989 तक वे बड़े पर्दे और साल 1999 से लेकर 2002 तक छोटे पर्दे पर भी सफल हुए.
‘फारुख शेख’ अपने पिता से काफी प्रभावित थे, लिहाजा वकालत की पढ़ाई की फिर भी वकालत से मोहभंग के बाद फारुख अदाकारी के प्रति समर्पित हो गए. उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म ‘गरम हवा’ में मुफ़्त में काम करने को हामी भरी थी. रमेश सथ्यू यह फ़िल्म बना रहे थे. उन्होंने अपने तमाम दोस्तों से रोल करने का अनुरोध किया, लेकिन फारुख शेख मान गए. बाद में इस फ़िल्म के लिए फ़ारुख़ शेख़ को 750 रुपये मिले, वह भी पांच साल के बाद.. फ़ारुख़ शेख़ के वकालत छोड़ कर फ़िल्मों में काम करने से उनके माता-पिता को आश्चर्य तो हुआ, लेकिन तब तक उन दिनों तक यह बात ख़त्म चुकी थी कि फ़िल्मों में काम करना बुरा होता है. ‘गरम हवा’ की रिलीज के बाद फ़ारुख़ के पास दूसरी फ़िल्मों के ऑफर मिलने लगे. महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे फारुख शेख से काफी प्रभावित हुए, जिससे अपनी ड्रीम प्रोजेक्ट फ़िल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में उन्हें एक रोल ऑफर किया. सत्यजीत रे ने फोन किया तो फ़ारुख़ कनाडा में थे, उन्होंने कहा कि मुझे लौटने में एक महीने का वक्त लगेगा, लेकिन सत्यजीत रे ने कहा “मैं आपका इंतजार करूंगा, सत्यजीत रे अगर किसी कलाकार का एक महीने इंतजार कर सकते हैं तो उसके प्रतिभा की आभा समझी जा सकती है. फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई. फ़िल्म में सईद जाफ़री, संजीव कपूर और फरीदा जलाल जैसे दिग्गज कलाकार. सत्यजीत रे रोज़ सुबह आते और मेकअप रूम में एक-एक ऐक्टर के पास जाकर गुड मॉर्निंग बोलते. अब फ़ारूख़ साहब को लगता, क्या जमीन से जुड़े इंसान हैं, इतने सीनियर कलाकारों के बीच में मुझ जैसे नौसिखिये को गुड मॉर्निंग विश कर रहे है. बाद में फ़ारूख़ शेख़ के सामने यह भेद खुला कि आख़िर रे साहब 9:30 बजे आकर सबसे गुड मॉर्निंग बोलते क्यों थे! दरअसल वो थे अंग्रेजी तरबियत के बंगाली आदमी. दुनिया इधर की उधर हो जाए, पर वक्त ग़लत नहीं होना चाहिए. सत्यजीत रे साहब सिर्फ़ इसलिए सबको गुड मॉर्निंग बोलने जाते थे कि वो चेक कर सकें कि कौन लेट है, कौन टाइम पर आया है.फ़ारूख़ शेख़ समझते कि क्या मस्त इंसान है इतना बिज़ी होकर भी वक़्त निकालकर मिलने आते हैं…. महान सत्यजीत रे के साथ काम करना किसी बड़े अवॉर्ड से कम नहीं है.
फारुख शेख को याद करते हुए दीप्ति नवल को याद करना जरूरी हो जाता है, अन्यथा एक अध्याय छूट जाएगा. दोनों ने एक साथ बहुत सारी फ़िल्मों में काम किया. वहीँ चश्मे बद्दूर फिल्म हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म है, जिसके लिए दोनों याद किए जाते हैं. सई ने भी इसी जोड़ी को अपनी अगली फिल्म ‘कथा’ में दोहराया जो उनके मराठी नाटक का हिंदी संस्करण है. फिल्म में नसीरुद्दीन शाह एवं फारुख शेख दोनों अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं, दोनों का लक्ष्य दीप्ति नवल को प्राप्त करना है. दीप्ति नवल के लिए फारुख कहते थे “दीप्ति जी खाने पीने के मामले में नपा – तुला खाती हैं, घास – फूस भी खाकर गुजारा कर लेती हैं, मैं ठहरा खाने का शौकीन हर शहर में हम जहां शूटिंग करने जाते हैं, वहाँ खाने का ठिकाना ढूढ़ लेता हूं, और दीप्ति जी हमेशा मुझे इसके लिए टोकती रहतीं है. उनकी अदाकारी के बारे में ज्यादा बोलना उचित नहीं है, क्योंकि उनकी विविधतापूर्ण अदाकारी ही उनकी पहिचान है. दीप्ति जी एक अदाकारा के रूप में अभूत पूर्व हैं ‘.
शबाना आज़मी के साथ भी फारुख की जोड़ी जमी. आमतौर पर शालीन, सीधे किस्म की भूमिकाएँ निभाने वाले फारुख ने इसमें एक तेज तर्रार युवक की भूमिक निभाई वहीँ मझे हुए अदाकार नसीरुद्दीन जैसे अभिनेता के सामने खुद को किरदार के साथ अमर कर दिया. फारुख अपनी विविधतापूर्ण अदाकारी से याद आते हैं, वहीँ बाजार फ़िल्म 1982 में रिलीज हुई थी, इसे सागर सरहदी ने निर्देशित किया था. इसमें फारुख ने गरीब, बेरोजगार मुस्लिम युवा का रोल संजीदगी के साथ निभाया था. नसीरुद्दीन शाह एवं स्मिता पाटिल जैसे महान कलाकारों की उपस्थिति के बावजूद फारुख शेख ने अपनी अदाकारी से जबरदस्त प्रभाव छोड़ा. फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी की दो फिल्मों रंग बिरंगी तथा किसी से ना कहना के अलावा टीवी धारावाहिक भी में फारुख ने अभिनय किया है. बड़े पर्दे से मन भरने के बाद वे छोटे परदे की ओर मुड़ गए, निर्देशक प्रवीण निश्चल ने शरत बाबू के उपन्यास श्रीकांत पर जो धारावाहिक बना वो लंबे समय तक चला. फारुख ने इतने दिनों तक श्रीकांत के किरदार को अपने दर्शकों के दिल-दिमाग में जीवंत बनाए रखा
‘फारुख शेख’ अपने एक साक्षात्कार में कहते थे “मुझे कभी खून से लिखा हुआ प्रपोजल तो नहीं मिला और ना ही मुझे देखकर ट्रैफिक रुकता था, और न ही मैंने ऐसे स्टारडम को कभी चाहा मैं तो फ्री भी फ़िल्मों में काम करता था, मैं केवल और केवल अदाकारी के लिए समर्पित था’. फारुख शेख ने 90 के दशक में भी काम किया, उन्होंने सास बहू और सेंसेक्स, लाहौर, क्लब 60, बीवी हो तो ऐसी जैसी कई फिल्मों में काम किया. इतना ही नहीं उन्होंने रणबीर कपूर की फिल्म ये जवानी है दिवानी और यंगिस्तान जैसी फिल्मों में छोटे-छोटे मगर प्रभावी किरदार भी निभाए. फारुख फिल्मी दुनिया के चकाचौंध, पार्टी, प्रचार में कभी डूबे नहीं. अपनी चाल से चले. अपनी पसंद के किरदार किए. नाटक उनका पहला प्यार है. अपने हंसी मजाक से वे गंभीर माहौल को भी खुशनुमा बना देते थे. फारुख शेख खाने के बहुत शौकीन थे, जब भी सेट पर शूटिंग के लिए आते अपने साथ घर से कुछ न कुछ खाने के लिए जरूर लाते थे. फिल्मों में उन्होंने पैसों को महत्व न देकर हमेशा अपनी स्ट्रांग भूमिका को महत्व दिया. तुम्हारी अमृता नाटक को उन्होंने कई देशों में मंचित किया है, इस नाटक में शबाना आज़मी के साथ दशकों तक इस नाटक को किया. वे सितारा कभी बनना नहीं चाहते थे. हमेशा आम आदमी की तरह रहे. कहा जाता है कि ‘फारुख शेख’ जितने संजीदा कलाकार थे, उससे कही अच्छे क्रिकेटर थे. वह शूटिंग के बाद क्रिकेट प्रैक्टिस करने जाया करते थे. उन्होंने भारत के पूर्व क्रिकेटर वीनू मांकड़ से कोचिंग ली थी. जब वह सेंट जेवियर कॉलेज में पढ़ने गए तो उनका खेल परवान चढ़ा. सुनील गावस्कर को फ़ारुख़ के अच्छे दोस्तों में माना जाता है. कुछ और धारावाहिक करने के बाद फारुख ने काफी परिश्रम और रिसर्च के बाद अपना लोकप्रिय शो ‘जीना इसी का नाम है’ भी किया. यह अपने ढंग का अनोखा कार्यक्रम था. इसमें प्रस्तुत कलाकार को उसके बचपन के दोस्त-सहपाठी और परिवार के सदस्यों के साथ पेश कर चौंक दिया जाता था. इस शो को देखने के साथ समझा जा सकता है कि फारुख कितने उम्दा सम्प्रेषक थे. फॉरेन छुट्टियां बिताने गए फारुख शेख को अचानक हार्ट अटैक हुआ आखिरकार इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार ने 28 दिसंबर, 2013 को अचानक उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. हिन्दी सिनेमा, थिएटर के महान अदाकार, बेहद साधारण दिखने वाले महान अदाकार को मेरा सलाम.. ऐसे लोग कभी मरते नहीं है, बल्कि अपनी रचनात्मक कार्यों से एक पूरी रचनात्मक दुनिया का निर्माण कर जाते हैं..