जगदीश जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
निर्वाचन आयोग उत्तर प्रदेश सहित तमाम चुनावी राज्यों में अपना दौरा पूरा कर चुका है। राजनीतिक दलों से लेकर चुनाव कार्य में लगने वाली प्रशासनिक मशीनरी से भी विमर्श हो चुका है। जैसी कि चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा आशंका जताई जा रही है कि कोरोना की तीसरी लहर शुरू हो चुकी है। मुंबई, दिल्ली में नए केस बढ़ रहे हैं, यूपी भी इनके पीछे-पीछे चल रहा है। स्कूल-कॉलेज बंद किए जा रहे हैं, कई राज्यों में नाइट कर्फ्यू लगाया गया है। केंद्रीय सरकार ने भी अवर सचिव से नीचे के कर्मचारियों की ऑफिस में 50 प्रतिशत ही उपस्थिति को मंजूरी दी है। सीधे शब्दों में कहें तो कोविड-19 की ओर से ओमिक्रॉन एक्सप्रेस को झंडी दिखाई जा चुकी है। ऐसे में संशय होना स्वाभाविक है कि चुनावी मेल को हॉल्ट स्टेशन पर रोकना पड़ेगा क्या? ओमिक्रॉन से ‘रेस’ लगाना ठीक रहेगा क्या? अथवा यह कहें कि हालात और बिगड़ते हैं तो चुनाव कराने उचित होंगे क्या?
राजनीतिक दलों ने भले ही अपनी तैयारी कर ली हो, एक छोटे से दल को छोड़ सबने निर्वाचन आयोग के सामने चुनावों पर हामी भर ली हो। लेकिन चुनावों पर निर्णय करना निर्वाचन आयोग के लिए इतना आसान नहीं है। राजधानी लखनऊ में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में बार-बार पूछे जाने के बावजूद टेंटेटिव तारीखों का खुलासा करने से भी आयोग कतराता रहा। जनवरी के पहले हफ्ते में वोटर लिस्ट का अपडेशन पूरा होना है। आयोग ने यह भी कहा कि नामांकन शुरू होने के दिन तक कोई युवा मतदान की उम्र पूरी कर लेता है तो उसका नाम वोटर लिस्ट में दर्ज किया जाएगा। इसके लिए पूरे इंतजाम कर लिए गए हैं। मगर आचार संहिता कब से लगेगी के सवाल पर भी निर्वाचन आयोग ने साफ नहीं किया। इसका मतलब स्पष्ट है कि निर्वाचन आयोग अब भी दुविधा में है, कोई राय बनाने से पहले ओमिक्रॉन और अन्य हालात पर नजर बनाए रखना चाहता है।
यदि चुनाव विलंब से होते हैं तो क्या किसी दल को फायदा होता है? अगर फायदा होता है तो कितना? नुकसान होता है तो कितना? पहले यह आकलन कर लें, चुनाव टलते हैं तो कितने समय तक टल सकते हैं। दरअसल यूपी छोड़ अन्य राज्यों को मार्च के आखिर तक नई विधानसभा की जरूरत है, लेकिन यूपी की 17वीं विधानसभा का कार्यकाल 14 मई तक है। यूपी में चुनाव के लिए कम से कम दो महीने का समय लगता है। ओमिक्रॉन के कारण फरवरी-मार्च में होने वाले चुनाव टलते हैं तो तीसरी लहर की पीक के बाद कम से कम तीन महीने में हालात सामान्य होंगे। इस पर भी विचारना होगा कि उसके अगले ही महीने मतदान करने की स्थिति में आम जनता होगी कि नहीं? ओमिक्रॉन का पीक जनवरी के आखिर या फरवरी में आता है तो मई के बाद ही चुनावी प्रक्रिया शुरू हो सकती है। तब तक प्रदेश में राष्ट्रपति शासन की नौबत आ चुकी होगी।
भीषण गर्मी में वोटर का टर्न आउट कितना होगा कहा नहीं जा सकता। ऐसे में बाढ़-वर्षा का दौर खत्म होने के बाद अक्टूबर-नवंबर का समय ही ठीक रहेगा। तब तो इन चुनावी राज्यों में राष्ट्रपति शासन का एक कार्यकाल पूरा होने को होगा।
अगर चुनाव समय से होते हैं तो सभी राजनीतिक दल ‘ओखली में सिर’ दे ही चुके हैं। सभी की तैयारी जोर-शोर से चल ही रही है, जनता के बीच अपनी काफी कुछ बातें पहुंचा चुके हैं। चुनाव में विलंब होने पर किसे कितना ‘पॉलिटिकल गेन’ होगा, इसके लिए सबसे पहले राजनीति की छुपा रुस्तम सुश्री मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी पर चर्चा करें तो बसपा को अपनी तैयारी बैठकों को और समय मिल जाएगा। अभी जिस ब्राह्मण समाज के लिए वह प्रयास कर रही है, उसके बीच और पैठ बना पाएगी। साथ ही दुविधा में फंसे मुस्लिम वोट बैंक के कुछ हिस्से को अपनी ओर करने का प्रयत्न करेगी।
राज्य की चुनावी राजनीति में अपने दल कांग्रेस की खेवनहार बनने को उत्सुक दूसरी नारी शक्ति प्रियंका वाड्रा गांधी इस चुनाव के लिए अपने पत्ते काफी कुछ खोल चुकी हैं। यूं कहें, चुनावी घोषणा पत्र को सार्वजनिक कर चुकी हैं। इतना हो सकता है कि इनको लेकर उन्हें जनता के बीच जाने का एक और मौका मिल सकता है, लेकिन चुनावी भाषणों में कुछ नयापन नहीं होगा।
इस चुनाव से काफी अपेक्षा लगाए समाजवादी पार्टी उन सभी ताकतों को अपने साथ जोड़ना चाहती है, जो मौजूदा योगी सरकार से नाखुश हैं। भारतीय जनता पार्टी के आरोपों पर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव कड़ा प्रहार कर रहे हैं, यह स्थिति कितने दिन चल सकती है? वह 300 यूनिट तक की बिजली मुफ्त करने का पत्ता भी खोल चुके हैं। साथ ही चचा शिवपाल यादव के रूप में तुरुप का पत्ता भी अपनी तरफ कर चुके हैं, अब इसका असर कितने दिन रहेगा कहना मुश्किल है। रही बात सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की तो उसे उन वर्गों से एंटी इंकंबैंसी कम करने का मौका मिलेगा जो फिलहाल नाराज हैं।
राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल के जरिए शासन चलेगा, उनके सलाहकार और मुख्य सचिव की भूमिका बढ़ जाएगी। इसी बीच केंद्र सरकार ने दुर्गाशंकर मिश्र के रूप में तेज-तर्रार मुख्य सचिव को उत्तर प्रदेश भेजा है। इनके बारे में कहा जाता है कि केंद्रीय सचिव रहते हुए उन्होंने देश के नौ शहरों में एक साथ मैट्रो का तेजी से निर्माण कराया। अरबों-खरबों रुपये के लोकार्पण-शिलान्यास के माध्याम से भाजपा का प्रचार कार्य तेजी से चल रहा है। प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पूरे प्रदेश को मथे हुए हैं। इस चुनावी टैंपो पर ब्रेक तो लगेगा मगर जो शिलान्यास हुए हैं उन पर कुछ जमीनी कार्य भी नजर आने लगेगा। राजनीति है ही ऐसी चीज जो हर परिस्थिति में बाजी अपने पक्ष में करने का कौशल सिखाती है। इसे आम जन भी सीख सकें तो अच्छा ही रहेगा। इस दौर में पढ़े लिखे काफी लोगों ने राजनीति और राजनीतिज्ञों से दूरी बनाई है। जाओ ‘नेता बन जाओ’ का भी आशीर्वाद उन्हें गाली के रूप में सुनाई पड़ता है। लेकिन इस बात को मानना पड़ेगा कि राजनीतिज्ञ बाजी पलटने के लिए हालातों-परिस्थितियों का हवाला नहीं देते। अगर चुनाव के नए हालात पैदा होते हैं तो भी वह उसका फायदा उठाने में जी-जान लगा देंगे। अब देखना यह है कि अगले एक महीने में ओमिक्रॉन का पलड़ा भारी पड़ता है या चुनाव का।