आनन्द अग्निहोत्री
पहले चरण का मतदान बहुत कुछ कह गया। किसकी जीत होगी और किसकी हार, इन 58 सीटों से प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम में कैद हो गयी। इनमें योगी सरकार के नौ मंत्री भी शामिल हैं। इसका फैसला 10 मार्च को होगा। इस बार वर्ष 2017 की तुलना में मतदान तीन फीसदी कम हुआ है। पिछले विधान सभा चुनाव में 58 में से 53 सीटें जीतने में भाजपा को कामयाबी मिली थी। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को महज दो-दो सीटों से संतोष करना पड़ा था, एक सीट रालोद के हिस्से में गयी थी। 11 सीटें निर्दलीयों ने जीती थीं। माना जाता है कि बढ़े हुए तीन फीसदी मतदान के कारण ही भाजपा को कामयाबी मिली थी, लेकिन इस बार यह घट गया है। मतदान में यह कमी क्या गुल खिलायेगी, यह देखना रोचक होगा।
इस बार 60% से कुछ अधिक वोटिंग हुई है। 2017 में इन 58 सीटों पर औसतन 63.75% मतदान हुआ था। यानी इस बार करीब 3% वोटिंग कम हुई है। 2012 में इन्हीं 58 सीटों पर 61.03% वोटिंग हुई थी। यानी 2017 में करीब 3% का वोटों में इजाफा हुआ था। भारतीय जनता पार्टी को उम्मीद है कि वह वर्ष 2017 के प्रदर्शन को दोहरायेगी। उसका यह विश्वास खरा साबित होगा, इस पर भरोसे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। पिछली बार की तुलना में इस बार की परिस्थितियां भिन्न हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इन सीटों पर गत चुनाव में सर्वाधिक भूमिका शामली जिले के कैराना में हुए साम्प्रदायिक दंगे ने निभायी थी। भाजपा ने इसकी दुहाई देकर काफी हद तक मतदाताओं को प्रभावित किया था। इस बार ऐसा कुछ नहीं है। इसके विपरीत अब सपा और रालोद यानि अखिलेश और जयंत की पार्टियों में गठबंधन है। दोनों संयुक्त रूप से चुनाव प्रचार कर रहे हैं। अखिलेश से कहीं ज्यादा इस क्षेत्र में जयंत का प्रभाव है। कारण यह कि वह जाट वर्ग से आते हैं। उनके बाबा चौधरी चरण सिंह जाटों के निर्विवाद नेता रहे। उनके पिता चौधरी अजित सिंह ने भी काफी समय तक स्वयं को जाट नेता साबित करने का प्रयास किया। इस कड़ी को अब जयंत निभा रहे हैं। पिछले चुनाव में हालांकि उन्हें शिकस्त का सामना करना पड़ा था लेकिन इस बार भी ऐसा होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। इस बार उनके साथ अखिलेश भी हैं। दोनों का संयुक्त प्रचार किस हद तक मतदाताओं को प्रभावित कर रहा है, फिलहाल यह पर्दे के पीछे है।
दूसरा बड़ा फैक्टर किसान आंदोलन है। लम्बे समय तक दिल्ली बॉर्डर पर चले धरने के बाद मोदी सरकार ने हालांकि तीनों विवादास्पद कानून वापस ले लिए लेकिन यह किसानों के जख्मों पर मरहम लगाने में नाकाफी साबित नजर आ रहा है। किसान आंदोलन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने खुलकर भाजपा की मुखालफत की है। कहने को वह स्वयं को गैरराजनीतिक बताते हैं लेकिन किसानों के बीच उनका संदेश साफ था कि भाजपा को सबक सिखाना है। किसानों में जाट भी हैं, गुर्जर और मुसलमान भी। चौधरी राकेश टिकैत इस बेल्ट में किसानों के बीच खासा रसूख रखते हैं। उनकी बात किसान एकदम अनसुनी करेंगे, ऐसा लगता तो नहीं है।
एक और फैक्टर इस बेल्ट में काम कर रहा है। वह है बसपा सुप्रीमो मायावती का मुस्लिम कार्ड। इस बेल्ट की अधिकांश सीटों पर मायावती ने मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। यूं तो मायावती का मुस्लिम मतदाताओं पर काफी प्रभाव रहा है। उन्होंने इस बार भी वही रसूख दिखलाने की भरपूर कोशिश की है लेकिन वह किस हद तक मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित कर पायी हैं, यह तो 10 मार्च को देखने को मिलेगा। अगर मुस्लिम मतदाता उनके प्रभाव में रहे तो इसका नुकसान अखिलेश और जयंत के गठबंधन को हो सकता है।