लेखक : मनीष शुक्ल
रात भर वो इधर से उधर करवट बदलती रही। आने वाली सुबह उसके संघर्ष से भरे जीवन का अंत कर सकती थी। उसके जीवन में खुशियाँ भर सकती थीं। एक ओर संघर्ष से घिरी अंधेरी ज़िंदगी दूसरी ओर रोशनी से भरा भविष्य, लेकिन फैसला लेना आसान नहीं था… बस एक फासले पर था उसका फैसला और उसकी दुनियाँ बदल सकती थी। दौलत- शौहरत, सुकून और ऐशो- आराम से भरपूर एग्रीकल्चर साइंटिस्ट की जॉब। दूसरी तरफ वैशाली के सिर पर थी माता- पिता के संघर्षों की पोटली। उनके खोये सम्मान को लौटाने का दायित्व… अपनी दो छोटी बहनों को गर्व से जीने की आजादी दिलाना, खुद को बेटे से बढ़कर साबित करने की चुनौती। अपने बंजर खेतों को नया जीवन देने का संकल्प। लड़की के रूप में जन्म लेने के बाद बचपन से ही अपने नाते- रिशतेदारों से खूब ताने सुने थे। अब वक्त आ गया था कि वो उन तानों का जवाब दे लेकिन अपने काम से।
रात भर उसके कानों में बार- बार यही शब्द गूंज रहे थे।
“तोहरी अम्मा कुल हंता है। अब पूरे खानदान पर कालिख पोत कर छोरियों को पराए शहर पढ़ें भेज रही है। लिख के रख लेओ सत्तू, खानदान की नाक कटा के न लउटे तो अपनी अम्मा का नाम बदल देहो। ”
सत्तू और कुसुमा ने अपनी अम्मा की पुरुष सत्ता को चुनौती देकर तीनों बेटियों की परवरिश की थी। जिस दिन वैशाली पैदा हुई थी उस दिन कुसुमा की सास ने चूल्हा नहीं जलाया था। पूरे परिवार में अम्मा की सत्ता ही चलती थी लेकिन अम्मा थीं जिनको वंश आगे बढ़ाने के लिए कुसुमा से एक लड़का पैदा होने की उम्मीद थी। वैशाली के बाद भैरवी का जन्म हुआ तो अम्मा बिलकुल टूट गईं लेकिन सत्तू को हौसला देते हुए बोलीं कि
“एक बार और कोशिश करो, अपने खेत- खलिहान जमीन- जायजाद संभालें के लए एक लल्ला होने जरूरी है।“
सत्तू ने लाख मना किया। वो बोला “माँ आजकल छोरी- छोरों से कम नहीं होवे हैं। वंश आगे बढ़ना होगा तो छोरियाँ ही वंश का नाम रोशन कर देंगी “ लेकिन माँ की जिद के आगे सत्तू और कुसुमा की एक न चली। कुसुमा फिर गर्भवती हुई, अम्मा ने साफ कह दिया कि इस बार लल्ला ही होएगा, वरना तुम लोग अपने बोरिया- बिस्तर का इंतजाम कर लेना।
नियति को अम्मा का फैसला मंजूर नहीं था। इस बार भी हुआ वही जिसका डर सबको था। कुसुमा ने फिर बेटी जनी। अब अम्मा के सब्र का बांध टूट गया था। कुसुमा की गोदी में शिप्रा थी। वो आँगन में खड़ी कमरे में जाने का इंतजार कर रही थी लेकिन अम्मा ने कुसुमा को कमरे के अंदर जाने नहीं दिया। वो कुसुमा के हाथ में लड़की देखते ही भड़क कर चिल्ला उठीं… “न तो मायके से बर्तन भाड़ा लाई, न ही कऊनों गहना… तबहौं संतोष कर लीन्ह, कोऊ बात नाहीं, बहू अब लल्ला जनेगी तो सबका दुख दर्द दूर हो जाई। अपन कुल का नाम आगे बढ़ी… पर यो तो छोरी पैदा करें वाली मशीन बन गई… सत्तू बस अब और न चली… एखा लई जाओ और अलग रहें की व्यवस्था कर लो…”
पूरा घर- परिवार इकठ्ठा हुआ। सारे भाई बैठे, अम्मा- बापू और भाइयों की रजामंदी से तय हुआ कि बगीचे के ऊसर वाली जमीन सत्तू को दे दी जाए। वहीं वो अपना परिवार लेकर रहे और तीज- त्योहार और जरूरत पड़ने पर घर आता रहे। सत्तू के हिस्से का राशन वहीं भिजवा दिया जाएगा। फैसला हो चुका था। सत्तू के सारे भाइयों के बेटे थे, इसलिए उन सबको उपजाऊ जमीन मिली थी जबकि कुलहंता करार दिये गए सत्तू और उसकी बीबी कुसुमा को घर दे दूर खेतों में रहने का वनवास मिल चुका था। सत्तू और कुसुमा अपनी तीनों बेटियों के साथ अपने ही घर से दूर चले गए थे।
सत्तू को ईश्वर के निर्णय और अपनी बेटियों के भाग्य पर भरोसा था। उसने बेटियों के अधिकारों के लिए अपने घर से लेकर बाहर तक संघर्ष का निर्णय लिया। बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने का फैसला लिया और अपनी बेटियों को पढ़ाने का फैसला लिया। जमीन भले ही बंजर थी लेकिन थी एकड़ों के हिसाब से। सत्तू ठहरा जमींदार बाप की औलाद तो कुछ जमीन को उपजाऊ बनाने की कोशिश में लग गया। बाकी जमीन बटाई में दे दी, बस इस तरह से उसका गुजर बसर चलने लगा।
सत्तू और कुसुमा का दोतरफा संघर्ष बाकी था। वो दोनों जब भी अपनी बेटियों को लेकर माँ के पास जाते तो उसकी माँ तीनों बेटियों को ताना मारती कि “सत्तू के तीन छोरे होते तो तुझे जमीन को किराए पर न देना पड़ता। हम लोग जमींदार हैं, लोगों से अपने खेतों पर काम करवाते हैं लेकिन तेरी छोरियों ने तुझे मुनीम बनाकर छोड़ दिया। बहू ने एक के बाद एक बेटियाँ जनकर तेरा ये लोक और पर लोक दोनों बिगाड़ दिये। “ माँ की बातें तीर से भी ज्यादा जुभती थीं। अब तो वैशाली भी बड़ी होने लगी थी। वो दादी के ताने समझने लगी थी। वो जब भी जाती तो दादी की जली- कटी बातें सुनती और फिर अकेले में जी भर के रोती। उसको लगता कि क्या माँ ने उसको पैदा करके कोई अपराध कर दिया है। क्या माँ को उस परिवार में रहने का हक नहीं था, जो माँ- बापू दोनों को पैतृक घर से बाहर निकाल दिया। उनके हिस्से में जमीन का वो हिस्सा आया जिसमें कुछ उगता ही नहीं था।
वैशाली ने गाँव के पास के इंटर कालेज से 12वीं पास करने के बाद पिता से शहर जाकर पढ़ाई करने की जिद की। उसने बताया कि वो एग्री कल्चर इंजीनियरिंग में दाखिला लेगी। पढ़ाई के बाद गाँव लौटेगी और नई तकनीकी से अपने खेतों की दशा बदल देगी। सत्तू और कुसुमा ने सारा संघर्ष अपनी बेटियों के अधिकारों के लिए ही किया था। दोनों ने अम्मा और अन्य घर वालों की विरोध के वावजूद वैशाली को शहर भेजने का फैसला किया। अब बारी वैशाली के फैसले की थी। कृषि इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद उसका वैज्ञानिक पद पर चयन हो चुका था। अपनी सात पीढ़ियों में वो पहली वैज्ञानिक थी। माता- पिता दोनों ही इस उपलब्धि से गर्व महसूस कर रहे थे लेकिन वैशाली का अन्तर्मन उसे गाँव वापस जाकर अपने बंजर खेतों को उपजाऊ बनाने के लिए कह रहा था।
आखिरकार उसने अपने दिल की बात सुनी और वैज्ञानिक बनने की जगह किसान बनकर मिट्टी की सेवा का निर्णय लिया। बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए गोबर को उर्वरक के रूप में खेतों में इस्तेमाल करना शुरू किया। नई तकनीकी का इस्तेमाल करके खेतों को उर्वर बनाया। जल संचयन कर पानी की कमी का निपटारा किया। आसपास के लोगों को जैविक खेती के लिए प्रशिक्षित किया। अपनी जमीन को छोटे- छोटे हिस्सों में बांटकर खेती शुरू की। फिर एक एकड़ जमीन पर रोजमर्रा के जीवन में उपयोग होने वाली करीब 100 फसलें उगाईं। खेतों के अलग- अलग भाग करके जमीन पर दलहन, अनाज और हरी सब्जियां उगानी शुरू कर दीं। अंगूर और सोयाबीन की भी खेती करनी शुरू की। फिर अगले साल भी इन्हीं फसलों को दोहराया। इस बार मौसम ने फिर साथ नहीं दिया लेकिन जल संचयन का तरीका काम आया। जहां गाँव के ज़्यादातर लोगों की फसलें बर्बाद हो गईं वहीं वैशाली के वैज्ञानिक तरीके ने बंजर खेतों को उपजाऊ बनाकर नई मिसाल पेश की। वैशाली ने लगभग 5000 किलो फसल उपजाई, जिसमें 15 फीसदी का इस्तेमाल स्वयं कर बाकी बची हुई फसल का व्यापार किया। जैविक खेती में उसने प्रति एकड़ 11000 रूपये की लागत लगा कर दो फसली मौसम में करीब एक लाख रुपए तक का मुनाफा कमाया। खेतों में उपयोग करने के लिए खाद की जगह अपनी गाय के गोबर का प्रयोग कर खाद का पैसा भी बचाया।
वैशाली की ये सफलता किसी चमत्कार से कम नहीं थी। राज्य के शीर्ष कृषि विज्ञान केंद्र ने वैशाली के खेतों का सर्वे किया। तो बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने का नायाब फार्मूला हासिल हुआ। कृषि वैज्ञानिकों ने वैशाली को देश का सर्वश्रेष्ठ किसान घोषित करने की सरकार से सिफ़ारिश की। केंद्र सरकार ने वैशाली का अद्भुत काम देखकर कृषि क्षेत्र का ब्रांड अम्बेस्ड़र बनाने का फैसला लिया साथ ही प्रधानमंत्री के हाथों से पुरस्कार देने की घोषणा की गई। यह सुनकर पूरे गाँव में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। सबने आकर सत्तू, कुसुमा और वैशाली के दादा- दादी को बधाई दी। आखिरकार वो दिन भी आ गया जब वैशाली को सपरिवार देश के प्रधानमंत्री के हाथों पुरस्कृत होने का न्योता मिला। सत्तू और कुसुमा के लिए ये दिन उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा दिन था। वो दोनों वैशाली को लेकर दादा- दादी के घर गए। कुसुमा बोली.. अम्मा, परधानमंत्री ने आपको और बापू को हमारे साथ दिल्ली बुलाया है। वहाँ पर वो खुद वैशाली को सम्मानित करेंगे। ये देखो सबके लिए जहाज की टिकटें भी भेजी हैं। इतना सुनते ही अम्मा ने वैशाली को गले लगा लिया… “मेरी पोती… जो काम कोई न कर पाया वो इस छोरी ने कर दिया। पूरे कुल को ‘तार’ दिया। सातों पीढ़ियों का नाम रोशन कर दिया। अपनी अम्मा का जीवन धन्य कर दिया। हमें तो जीवन भर सत्तू और इसकी छोरियों की चिंता जताए रहती थी। अब हम और सत्तू के बापू निश्चिंत होकर अपनी आंखे बंद कर सकेंगे।“ यह सुनते ही वैशाली, सत्तू और कुसुमा एक दूसरे को देखकर मुस्कराने लगे।