सीमा सिंह कि दो कवितायें
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घाट की सीढ़ियों पे छोड़ आये थे
जो अधूरा दिन
चलो न उसे पूरा करते हैं !
सुनो ! अबकी आना
तो इतवार की दोपहरी का
इत्तमनान भी लेकर आना ,
ढूँढनी है मुझे इस बार
चुप्पियों में छिपी संभावनाएँ ,
मौन के उस पार जो एक तुम हो
मौन के इस पार जो एक मैं हूँ
अपने अपने किनारों के साथ ,
मैं तुम्हारे कवि की तरह
सन्नाटे का छन्द नहीं बनना चाहती
न ही बुनना है मुझे
कवि का कोई सन्नाटा ,
बल्कि आवाज़ों के ताजमहल बनाने हैं
जहाँ भीड़ भरे एकांत में शाहजहाँ
गढ़ रहा अपने ऐतिहासिक अमर प्रेम को ,
सुनो ! अबकी आना
तो कांधों पे बारिशें लिए मत आना
मैंने अपना छाता खो दिया है
और नदी के मुहाने पे
ये जो बूढ़ा बरगद है न
उसकी नम मिट्टी में
खोज ली है मैंने
तुम्हारे पैरों जितनी जगह ।
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२) जीवन कहाँ कहाँ
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रौशनी में नहायी जगमगाती सड़क के
एक किनारे लगी पान की गुमटी में
लटके है जीवन के कुछ गुण सूत्र
कुछ अनुलोम-विलोम
जीवन जो भाग रहा सड़क पर
आकर थिर हो गया है इस छोटी सी गुमटी में
थका हारा राहगीर पूछता है रास्ता
पान वाले से ,और लेता है दिशा ज्ञान
जाना था उसे ध्रुव तारे की सीध में
वह भटकता भटकता यहाँ आ पहुँचा ,
जैसे भटक जाता है जीवन
और खो जाती हैं दिशाएँ
किसी अनाम यात्रा की तैयारी में ,
पोटली में बाँध संशय और संभावनाओं को
राहगीर निकल पड़ा है
अबूझ प्रश्नों की खोज में ,
गुमटी से ही पैबस्त है
एक सफेद भूरा धारीदार कुत्ता
उसकी भोली आँखों का कौतुहल
बाहर है ,घट रहे तमाम दृश्यों से
वह कुअं-कुअं की आवाज़ के साथ
हिलाता है दुम मानो जता रहा
विशाल पृथ्वी पर होना अपना ,
सड़क के उस पार
दूर क्षितिज पर डूब रहा सूरज
एक दुनिया करवट बदल
प्रवेश कर रही दूसरी दुनिया में
जीवन अपनी साधारणयता में
होता है इतना ही अद्वितीय ।
…………………………….. सीमा सिंह