Sunday, June 8, 2025
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लघु कहानी : जोशी जी के दर्द पर मरहम

लेखक : मनीष शुक्ल

अचानक आँखों से आंसुओं की धारा बहने लगती है। इतनी भी हिम्मत नहीं होती है कि अपना हाथ बढ़ाकर उन आंसुओं को पोंछ सकें। बस, असहनीय दर्द और अकेलेपन का अहसास यही जेहन में घूमता रहता है। शब्द खुद ब खुद बढ़बढ़ाने लगते हैं… शायद अब मेरा समय आ गया है। तभी ये लोग मुझसे दूर भागते हैं। कोई भी मेरे पास नहीं बैठता है। कोई भी मेरा ध्यान नहीं रखता है… जोशी जी बिस्तर पर लेटे- लेटे अपने वजूद को लेकर ख्याल बुन रहे थे। उनको लकवा मारे अब तीन साल हो गया था। इलाज से काफी सुधार थे लेकिन अब न तो पहले की तरह बाजार आ जा पाते और न ही दोस्त यारों के बीच बैठकर गप्पें लड़ा पाते। बिस्तर या बरामदे की कुर्सी ही उनकी दुनियाँ हो गई थी। एक ज़िंदादिल इंसान वक्त बीतने के साथ खुद को लाचार और अकेला साबित करने में जुट गया था। न कोई बोलने वाला, न सुनने वाला, जोशी जी को लगता था कि ये सब अपनी ही धुन में मस्त हो चुके हैं। इसी उधेड़बुन में लगे जोशी आज शाम भी अपनी अपनी मौत का इंतजार कर रहे थे।

तभी उनका पोता आकर उनके सीने से चिपक जाता है…

‘दादा जी… दादा जी देखो मैंने आपके लिए क्या बनाया है।‘

वो अपने हाथ से बनाया ग्रीटिंग जोशी जी को दिखाने लगता है। इतने में बहू सुचित्रा भी ऑफिस से आकर सीधे उनके मिलने जाती है और कहती है

‘बाबू जी ये देखो… आपके लिए ऑन लाइन टी- शर्त आर्डर की थी, चलिये उठिए पहना देती हूँ।‘

बहू और पोते दादा जी के साथ बात कर ही रहे होते हैं कि जोशी जी की पत्नी आकर कहती हैं…

‘दिनभर खुद से बढ़बढ़ाते रहते हैं… अब तुम्ही लोग बैठकर इनसे बातें करो…’ और फिर मियां- बीबी के बीच जीवन की नोंक- झोक शुरू हो जाती है।

भ्रामक इतिहास को सुधारने-संवारने की पहल

अरविंद जयतिलक

यह स्वागतयोग्य है कि शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाए जा रहे भ्रामक एवं गैर-ऐतिहासिक तथ्यों को हटाकर इतिहास को संवारने-सहेजने का मन बना लिया है। इस पहल से देश की नई पीढ़ी को सही और तथ्यात्मक इतिहास पढ़ने का मौका मिलेगा तथा साथ ही देश की महान विभुतियों के बारे में गढ़े-बुने गए भ्रामक तथ्यों को दुरुस्त कर सही तथ्यों व घटनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने में मदद मिलेगी। समिति का स्पष्ट मानना है कि पाठ्यक्रम का विषय-वस्तु एकपक्षीय न होकर पूरी तरह तथ्यपरक होनी चाहिए। विचार करें तो मौजूदा समय में शिक्षण-संस्थओं में जो इतिहास का पाठ्यक्रम शामिल है उनमें से अधिकांश तथ्यहीन, आधारहीन और कपोल-कल्पित हैं। इतिहास के कालखंड को लेकर भी स्पष्ट प्रमाणिकता का सर्वथा अभाव है। गौर करें तो मौजूदा समय में जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है उसमें प्राचीन और आधुनिक इतिहास का हिस्सा कम है जबकि मध्यकालीन इतिहास विशेष रुप से मुगल और दूसरे आक्रांता शासकों का हिस्सा ज्यादा है। गार्गी, मैत्रेयी जैसी महान विदुषियों का उल्लेख तक नहीं है। दूसरी ओर रानी लक्ष्मीबाई, रानी चन्नमा, झलकारी बाई जैसी महान ऐहितहासिक महिला नायकों को पाठ्यक्रम में उचित स्थान नहीं मिला है। यह स्थिति विकृत इतिहास लेखन को ही रेखांकित करता है। अच्छी बात है कि शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने लोकतांत्रिक रुख अख्तियार करते हुए स्कूली पाठ्यक्रम के तथ्यों व रुपरेखा को सहेजन व सुधारने के लिए देश भर के शिक्षाविदों और छात्रों से सुझाव आमंत्रित किए हैं। महान लेखक और राजनीतिज्ञ सिसरो ने इतिहास के बारे में कहा था कि इतिहास समय के व्यतीत होने का साक्षी होता है। वह वास्तविकताओं को रोशन करता है और स्मृतियों को जिंदा रखता है। प्राचीन काल की खबरों के जरिए भविष्य का मार्गदर्शन करता है। लेकिन जब भी पूर्वाग्रह होकर इतिहास का लेखन किया जाता है उसमें विजित की संस्कृति, सभ्यता और गरिमापूर्ण इतिहास के साथ छल होता है। अंग्रेज और भारत के माक्र्सवादी इतिहासकार भी इसके अपवाद नहीं रहे हैं। उनका सदैव प्रयास रहा है कि भारतीयों को ऐसा इतिहास दिया जाए जिससे उनमें अपने प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, आदर्श और मूल्यों के प्रति नैराश्य और घृणा का भाव उत्पन हो। संभवतः इसी उद्देश्य से भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की गौरव-गाथा को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया गया। हालांकि आजादी के बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेंद्र प्रसाद के प्रयास से शिक्षा मंत्रालय द्वारा भारतीय इतिहास को सुधारने की दृष्टि से एक कमेटी आहुत की गयी। लेकिन चूंकि कमेटी में अधिकांश सदस्य मैकाले के ही मानस पुत्र थे लिहाजा उनका इतिहास सुधारने का प्रयास निष्फल साबित हुआ। आज देश जानना चाहता है कि औपनिवेशिक गुलामी और शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह किस तरह क्रांतिकारी आतंकवादी थे और इतिहास का यह विकृतिकरण किस तरह विद्यार्थियों के लिए पठनीय है। याद होगा गत वर्ष पहले देश के जाने-माने इतिहासकार विपिन चंद्रा और मृदुला मुखर्जी की किताब में शहीद भगत सिंह को कथित रुप से क्रांतिकारी आतंकवादी उद्घृत किया गया था जो न सिर्फ एक महान क्रांतिकारी का अपमान भर है बल्कि विकृत इतिहास लेखन की परंपरा का एक शर्मनाक बानगी भी है। कोई भी इतिहासकार या विचारक अपने युग की उपज होता है। उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी लेखनी से कालखंड की सच्चाई को ईमानदारी से दुनिया के सामने रखे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंग्रेज और माक्र्सवादी इतिहासकार भारतीय इतिहास लेखन की मूल चेतना को नष्ट किया और भारतीय इतिहास के सच की हत्या की। अगर भारतीय चेतना व मानस को समझकर चैतन्य के प्रकाश में इतिहास लिखा गया होता तो आज भगत सिंह को क्रांतिकारी आतंकवादी, शिवाजी को पहाड़ी चूहिया और चंद्रगुप्त मौर्य की सेना को डाकुओं का गिरोह नहीं कहा जाता। सच यह भी है कि अंग्रेज और माक्र्सवादी इतिहासकारों ने इतिहास के सच को सामने लाने के बजाए अनगिनत मनगढंत निष्कर्ष पैदा किए। उसकी कुछ बानगी इस तरह है-रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन भारतीय गं्रथ मिथ हैं। प्राचीन भारतीय पौराणिक साहित्य में वर्णित राजवंशावलियां तथा राजाओं की शासन अवधियां अतिरंजित होने से अप्रमाणिक एवं अविश्वसनीय हैं। प्राचीन भारतीय विद्वानों में ऐतिहासिक लेखन क्षमता का अभाव रहा। भारत के प्राचीन विद्वानों के पास कालगणना की कोई निश्चित तथा ठोस विधा कभी नहीं रही। भारत का शासन समग्र रुप में एक केंद्रीय सत्ता के अधीन अंग्रेजी शासन से आने से पूर्व कभी नहीं रहा। आर्यों ने भारत में बाहर से आकर यहां के पूर्व निवासियों केा युद्धों में हराकर अपना राज्य स्थापित किया और हारे हुए लोगों को अपना दास बनाया। भारत के इतिहास की सही तिथियां भारत से नहीं विदेशों से मिली। भारत में विशुद्ध इतिहास अध्ययन के लिए सामग्रियां बहुत कम मात्रा में सुलभ रही। भारत के इतिहास की प्राचीनतम सीमा 2500-3000 ईसा पूर्व तक रही। भारत के मूल निवासी द्रविड़ हैं। यूरोपवासी आर्यवंशी हैं। सरस्वती नदी का अस्तित्व नहीं है। इस तरह के और भी अन्य-अनेक मनगढ़ंत कपोल-कल्पित विचारों को आकार देकर उन्होंने भारत के इतिहास व साहित्य को नकारने की कोशिश की। दरअसल इस खेल के पीछे का मकसद भारतीयों में हीनता की भावना पैदा करना था। गौर करें तो विलियम कैरे, अलेक्जेंडर डफ, जाॅन मुअर, और चाल्र्स ग्रांट जैसे इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को अंधकारग्रस्त और हिंदू धर्म को पाखंड और झूठ का पर्याय कहा। भारत में अंगे्रजी शिक्षा के जनक और ईसाई धर्म को बढ़ावा देने वाले मैकाले ने तो यहां तक कहा कि भारत और अरब के संपूर्ण साहित्य का मुकाबला करने के लिए एक अच्छे यूरोपिय पुस्तकालय की एक आलमारी ही काफी है। 1834 में भारत के शिक्षा प्रमुख बने लार्ड मैकाले ने भारतीयों को शिक्षा देने के लिए बनायी अपनी नीति के संदर्भ में अपने पिता को एक पत्र लिखा जिसमें कहा कि मेरी बनायी शिक्षा पद्धति से भारत में यदि शिक्षा क्रम चलता रहा तो आगामी 30 वर्षों में एक भी आस्थावान हिंदू नहीं बचेगा। या तो वे ईसाई बन जाएंगे या नाम मात्र के हिंदू रह जाएंगे। समझा जा सकता है कि इतिहास लेखन की आड़ में अंग्रेजी इतिहासकारों के मन में क्या चल रहा था। गौर करें तो इन डेढ़ सौ सालों में इतिहास लेखन की मुख्यतः चार विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हुआ-साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी, माक्र्सवादी और सबलटर्न। साम्राज्यादी इतिहासकारों की जमात भारत में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के रुप में कभी भी उपनिवेशवाद के स्वरुप को स्वीकार नहीं की। उनका इतिहास लेखन और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का विश्लेषण मूलतः भारतीय जनता और उपनिवेशवाद के आपसी हितों के आधारभूत अंतरविरोधों के अस्वीकार्यता पर टिका है। इतिहासकारों का यह खेमा कतई मानने को तैयार नहीं कि भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में था। उनके मुताबिक जिसे भारत कहा जाता है, वह वास्तव में विभिन्न धर्मों, समुदायों और जातियों के अलग-अलग हितों का समुच्चय था। दूसरी ओर राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की जमात में शामिल इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आंदोलन में जनता की भागीदारी को प्रभावकारी माना। माक्र्सवादी इतिहास लेखन की धारा भारतीय राष्ट्रवाद के वर्गीय चरित्र का विश्लेषण और उसकी व्याख्या उपनिवेश काल के आर्थिक विकासक्रमों के आधार पर करने की कोशिश कर भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण कालखंड को मलीन करने की कोशिश की। इन इतिहासकारों ने राष्ट्रवाद की प्रबल भावना को नजरअंदाज करते हुए एक साजिश के तहत भारतीय समाज को ही वर्गीय खांचे में फिट कर दिया। भारत के लिए आघातकारी रहा कि आजादी के उपरांत इतिहास लेखन की जिम्मेदारी माक्र्सवादी इतिहासकारों को सौंपी गयी और वे ब्रिटिश इतिहासकारों के कपटपूर्ण आभामंडल की परिधि से बाहर नहीं निकल सके। उन्होंने अंग्रेजों की तरह ही भारतीय इतिहास की एकांगी व्याख्या कर भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने की कोशिश की। अंग्रेजों की तरह उनकी भी दिलचस्पी भारत के राष्ट्रीय गौरव को खत्म करने की रही। आज आधुनिक भारत का पूरा इतिहास लेखन ही माक्र्सवादी इतिहास लेखन है। यह उचित है कि शिक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने इतिहास में व्याप्त भ्रामक तथ्यों, कपोल-कल्पित तथ्यों एवं आधारहीन घटनाओं को हटाने और कालखंडो को सही क्रम में संवारने का मन बना लिया है।

क्यों महत्वपूर्ण है आत्म-स्वीकृति , सात लाभ

स्वयं को स्वीकार करने का कार्य, समझने की क्रिया या स्थिति और अपनी क्षमताओं और सीमाओं को पहचानना। उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करें जिन्हें आप नियंत्रित कर सकते हैं; और उन चीजों पर ध्यान केंद्रित न करें जो आपके नियंत्रण में नहीं हैं।

मनीष नIगर “-ग्रोथ मार्केटर”, प्रैक्टिशनर लाइफ कोच

1.आत्म-स्वीकृति के लिए हमें कुछ विनम्रता विकसित करने की आवश्यकता है

चाहे वह दुनिया की स्थिति हो, हमारा पड़ोस, हमारे सहकर्मी, पड़ोसी, या परिवार के सदस्य जो हमें परेशान करते हैं। स्वीकृति के साथ, हम स्वीकार करते हैं कि हम शो के प्रभारी नहीं हैं और हम दुनिया के निर्देशक नहीं हैं। हमें सही आकार का अभ्यास करने के लिए याद दिलाया जाता है। स्वीकृति हमें अपने अनुभव से सावधान रहने में मदद करती है, क्योंकि यह वास्तव में है, बजाय इसके कि हम इसे कैसे चाहते हैं

  2.स्व-स्वीकृति हमारे भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य का समर्थन करती है।

जब हम अपने विचारों, भावनाओं, शब्दों या व्यवहार के माध्यम से कहते हैं कि यह ऐसा कुछ है जिसे मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, तो हम जो तनाव पैदा करते हैं, उसके कारण प्रतिरोध या इनकार हमारे संतुलन को नाटकीय रूप से अस्त-व्यस्त कर सकता है। स्वीकृति के साथ, हमारे निपटान में बहुत अधिक ऊर्जा होने की संभावना थी, क्योंकि अब हमें अपनी भावनाओं से बचने, इनकार करने या दूर करने या एक डरावनी स्थिति से बचने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।

3.स्व-स्वीकृति स्वस्थ संबंधों में योगदान करती है

स्वीकृति हमें अपनी आवश्यकताओं पर जोर देने की अनुमति देती है, जबकि यह भी स्वीकार करती है कि कोई और हमसे अलग महसूस कर सकता है, उदाहरण के लिए, और यह समझते हुए कि वे ऐसा क्यों महसूस कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण आपसी सम्मान और सहयोग का मार्ग प्रशस्त करता है, मेरे रास्ते या राजमार्ग के दृष्टिकोण के विपरीत।

4. एक चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करते समय आत्म-स्वीकृति हमारे पास चार विकल्पों में से एक है।

हम या तो कुछ छोड़ सकते हैं, इसे बदल सकते हैं, स्वीकार कर सकते हैं या दुखी रह सकते हैं, जैसा कि डायलेक्टिकल बिहेवियरल थेरेपी के निर्माता मनोवैज्ञानिक मार्शा लाइनहन ने बताया है। कभी-कभी कुछ बदलने या दूर जाने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए स्वीकृति ही हमारी एकमात्र व्यवहार्य पसंद बन जाती है यदि हम कुछ हद तक संतोष और समभाव के साथ रहना चाहते हैं।

5. अपनी भावनाओं को स्वीकार करने से हमें खुद को बेहतर तरीके से जानने में मदद मिलती है।

हमारी भावनाएँ हमें और अन्य लोगों को इस बारे में बहुमूल्य जानकारी देती हैं कि हमारे लिए क्या महत्वपूर्ण है, और अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने का प्रयास करने से हम खुद से अलग हो सकते हैं और सुनिश्चित नहीं हो सकते कि हम कौन हैं। अपनी भावनाओं को स्वीकार किए बिना, हम अपने इमोशन माइंड से खुद को अलग कर लेते हैं, जो हमारे तर्कसंगत दिमाग और समझदार दिमाग के साथ मिलकर हमें स्वस्थ निर्णय लेने में मदद करता है।

6. स्व-स्वीकृति, कृतज्ञता के भाव में मदद करती है।

पीड़ित की भूमिका मानने और मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ, इसके बजाय, हम यह कहना चुन सकते हैं (कभी-कभी दांत पीसकर), इस अनुभव के लिए धन्यवाद। मैं इससे सीखूंगा कि मैं इससे क्या कर सकता हूं। मैं समाधान का हिस्सा बनूंगा।

       7.स्व-स्वीकृति हमें बेहतर समस्या समाधानकर्ता बनने में मदद करती है। हो सकता है कि हम यह स्वीकार करने से कतराते हों कि हमें व्यसन की समस्या है, या कि हमारा    काम अब हमें पूरा नहीं करता है। हालाँकि, एक बार जब हम वास्तविकता को स्वीकार कर लेते हैं, तो इनकार या प्रतिरोध में रहने के बजाय, हम अपने विकल्पों पर विचार करने और एक उपयुक्त कार्य योजना चुनने की बेहतर स्थिति में होते हैं। आखिरकार, वास्तविकता को खारिज करने से वास्तविकता नहीं बदल जाती है।

जन्मदिन पर विशेष : खलनायक और नायक के बीच झूलता संजू बाबा

संजू बाबा यानि संजय दत्त… बॉलीवुड के इस बिगड़ेल नायक की ज़िंदगी पर बनी फिल्म संजू के जरिये हमने कई रूप देखे। कभी वो नशे से जूझता युवा दिखा तो कभी आर्म्स एक्ट में फंसा खलनायक लेकिन संजय दत्त हर बार बुरे दौर से उभर कर नए रूप में सामने आए। आज संजू बाबा के जन्मदिन पर उनके फेंस उनकी अदायगी से लेकर ज़िंदगी तक पर चर्चा कर रहे हैं।  

29 जुलाई 1959 का दिन बॉलीवुड के दिग्गज कलाकार सुनील दत्त  और नरगिस  के लिए खुशियों भरा था, क्योंकि इसी दिन संजय दत्त  का जन्म हुआ था। इनकी खुशियों का ठिकाना नहीं था। बेहद लाड़-प्यार में पले संजू बाबा बड़े होने के साथ गलत आदतों के शिकार हो गए थे। संजय दत्त ने अपनी जिंदगी में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं. संजय दत्त की बायोपिक ‘संजू’ से उनकी जिंदगी के बारे में काफी कुछ जानने को मिलता है।

संजय दत्त की फिल्म ‘संजू’ में बताया गया है कि उनकी लाइफ में एक दो नहीं बल्कि 300 गर्लफ्रेंड्स रहीं हैं. इसके अलावा नशे के बुरी तरह शिकार हो गए थे. नशे का आलम ये था कि उनके हाथ से कई हिट फिल्में निकल गई. मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो सुपरहिट फिल्म ‘हीरो’ जैकी श्रॉफ से पहले संजय को ही ऑफर हुई थी. अपने बेटे की हालत से परेशान सुनील दत्त ने संजय को नशे के चंगुल से छुड़ाने के लिए काफी कोशिश की. अमेरिका के रिहैबिलिटेशन सेंटर में भर्ती करवाया. समय के साथ इस लत से छुटकारा पाने में संजय कामयाब रहे।  

इसके बाद मुंबई ब्लास्ट मामले में जेल की सलाखों के पीछे रहे. जेल की जिंदगी ने संजय को काफी कुछ सिखाया. इस एक्टर ने जितना झेला उतना कोई और होता तो कबका खत्म हो गया होता. लेकिन संजय दत्त की जिंदगी में भी वो पल आया जब उन्होंने अपनी इच्छा शक्ति के बूते सभी बुरी आदतों से छुटकारा पा लिया।   लाइफ में सब कुछ ठीक होने लगा था. मतलब मान्यता दत्त और अपने दो बच्चों के साथ फैमिली लाइफ बिता रहे थे कि फिर इनकी जिंदगी में संकट आ गया. संजय दत्त पिछले साल कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी के शिकार हो गए थे, लेकिन जिंदगी की हर जंग जीतने वाले इस एक्टर ने कैंसर को भी मात दे दिया. फिलहाल स्वस्थ हैं और अपनी फैमिली लाइफ एन्जॉय कर रहे हैं।

व्यक्तित्व विकास : बाधाओं और चुनौतियों को अवसर के रूप में लें…

  • खुद  को विकसित करने के लिए ग्रोथ और लाइफ हैक्स के 5 तरीके

मनीष नागर @ “ग्रोथ मार्केटर”, प्रैक्टिशनर लाइफ कोच।

अक्सर हम एक बाधा से विचलित हो सकते हैं और अपना रास्ता खो सकते हैं। आपका दिमाग तुरंत आपके सामने आने वाली चुनौती से डरता है और आत्म-संदेह करने लगता है, और वही आपको हराने के लिए काफी है। आपके द्वारा चुने गए प्रत्येक पथ में बाधाएं हैं। यहां तक ​​​​कि अगर आपने उनसे बचने के लिए अपनी शक्ति में सब कुछ किया है, तब भी आप उनका सामना करेंगे। यहां कुछ तरीके दिए गए हैं जिनसे आप अपनी बाधाओं को अवसरों में बदल सकते हैं।

1. आप जो कर सकते हैं उस पर ध्यान दें।

आप जो नहीं कर सकते उसके बारे में सोचने के बजाय, सोचें कि आप क्या कर सकते हैं। बाधा को बेहतर बनने के साधन के रूप में उपयोग करें या इसे दूर करने के रचनात्मक तरीकों के बारे में सोचें।

2. आगे बढ़ते रहो और बाधा को चुनौती दो।

दृढ़ संकल्प और सकारात्मकता के साथ समस्या पर हमला करने पर ध्यान दें, आप जीतेंगे। आप हमेशा स्थिति को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं, लेकिन आप अपने दृष्टिकोण को नियंत्रित कर सकते हैं। अपने आप में और अपनी क्षमताओं में एक अटूट विश्वास विकसित करें, और आप किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करेंगे। जब जीवन में अराजकता होती है, तो आपको उस प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता होती है जो एक रास्ता प्रदान कर सके। यह आपको इस बात की चिंता किए बिना स्थिति से निपटने में मदद करेगा कि क्या हो सकता है, जब संदेह में बस आगे बढ़ते रहें।

3. अपनी ताकत पर ध्यान दें, कमजोरियों पर नहीं।

जब कोई संकट आपके सामने आता है, तो स्वाभाविक प्रवृत्ति अपनी कमजोरियों के बारे में सोचने की होती है। लेकिन जो आप नहीं कर सकते उसके बारे में सोचने के बजाय इस बारे में सोचें कि आप क्या कर सकते हैं। और यह गेम चेंजर होगा। यदि आप अपने सामने आने वाली बाधा की कठिनाई का अधिक विश्लेषण करते हैं, तो आप इसे दूर नहीं कर पाएंगे।

4. बाधाओं के प्रति अपनी धारणा बदलें।

अपनी बाधाओं को अवसरों में बदलने के लिए, आपको सबसे पहले उन्हें केवल एक चक्कर के रूप में समझना होगा। आपका लक्ष्य प्राप्त करने योग्य है, और जब तक आपका दिमाग ऐसा नहीं सोचता, तब तक आप उस पर काम करना शुरू नहीं करते। बाधाओं के बिना, कुछ भी हासिल करना आसान होगा, और संघर्ष के बिना, जिस चीज के लिए आप लक्ष्य कर रहे हैं, उसके लिए लड़ने का कोई मतलब नहीं है।

5.जीवन में बड़ी तस्वीर के बारे में सोचें। कभी-कभी जब हम लक्ष्य निर्धारित करते हैं, तो हम अपनी समस्याओं पर इतना ध्यान केंद्रित करते हैं कि हम खुद को वापस पकड़ लेते हैं और बड़ी तस्वीर से चूक जाते हैं। सभी सफल लोग जिन्होंने अपनी बाधाओं का सामना किया है और उन पर काबू पाया है, उनके मन में बड़े लक्ष्य थे और एक योजना थी कि वहां कैसे पहुंचा जाए। और इससे सारा फर्क पड़ता है। यदि आप अपने लक्ष्यों का पीछा करते हुए निराश हो जाते हैं, तो केवल शिकायत न करें और हार मान लें। इसका मतलब केवल यह होगा कि आपने कुछ भी हासिल नहीं किया है।

विशेष : इंडिया का ‘वाटरगेट’ नहीं बन पाएगा पेगासस

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पड़ताल: संवैधानिक प्रावधान की विवशता में पद पर रहते हुए अब तक तीन प्रधानमंत्री दे चुके हैं इस्तीफा

आनन्द अग्निहोत्री

लखनऊ। इजरायली पेगासस स्पाय सॉफ्टवेयर का मामला सुर्खियों में है। संसद और इसके बाहर लगातार यह मामला उठाया जा रहा है। कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने लोकसभा में ‘पेगासस प्रोजेक्ट’ रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए स्थगन प्रस्ताव नोटिस भेजा है। कांग्रेस के ही सांसद मणिकम टैगोर ने भी सरकार की तरफ से पेगासस स्पायवेयर के कथित उपयोग पर बहस के लिए लोकसभा में स्थगन प्रस्ताव नोटिस दिया है। वहीं, डीएमके सांसद तिरुचि सिवा ने भी राज्यसभा में कार्यस्थगन प्रस्ताव का नोटिस दिया है। भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी तक अपनी सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। सवाल यह है कि इतने सारे नोटिस क्या मोदी सरकार पर कोई दबाव बना पायेंगे। ‘द वायर’ ने पेगासस स्पायवेयर की रिपोर्ट जारी की थी। आखिर उसकी मंशा क्या थी। क्या वह इस फोन टैपिंग कांड को अमेरिका में 47 साल पहले हुए वाटरगेट कांड जैसा बनाना चाहता है। क्या वह अपने इरादे में कामयाब हो सकेगा। स्मरण रहे वाटरगेट कांड के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा था। रिचर्ड निक्सन अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति थे, जो पद पर रहने के दौरान इस्तीफा देने को विवश हुए थे। पेगासस प्रकरण भारत का वाटरगेट कांड बन सके, इसकी सम्भावना तो दूर-दूर तक नजर नहीं आती। हां, इतना जरूर है कि मोदी सरकार के दामन पर दाग जरूर लग गया है जिसे मिटाने में उसे वक्त लगेगा।

जितने मुंह उतनी बातें की कहावत भारत जैसे देश में ही देखने को मिलती है। प्रामाणिकता का इससे कोई लेना-देना नहीं होता। पहले कहा गया था कि भारत में 300 लोगों की जासूसी कराई गयी। लेकिन द वायर ने सोमवार को जो रिपोर्ट जारी की है उसमें दावा किया गया है कि पेगासस स्पायवेयर के जरिए सर्विलांस के लिए कुल 50,000 फोन नंबरों का डेटा बेस तैयार किया गया था। इस डेटाबेस के बारे में सबसे पहले जानकारी फ्रांस के नॉन प्रॉफिट फॉरबिडन स्टोरीज को मिली थी। उसने ही भारत समेत 10 देशों के मीडिया संस्थानों के कंसोर्टियम को यह जानकारी साझा की थी। इस लिस्ट में शामिल नंबरों का इस्तेमाल करने वाले 67 डिवाइसेज का एमनेस्टी इंटरनेशनल की ओर से विश्लेषण किया गया है। इनमें से 37 के पेगासस की ओर से हैक किए जाने की बात कही गई है। इन 37 नंबरों में से 10 भारत के बताए जा रहे हैं।

कहने को तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी कहते हैं कि सरकार ने उनका फोन टेप कराया था। लेकिन किसलिए, इसका उनके पास कोई जवाब नहीं है। बीएसएफ के पूर्व डीजी केके शर्मा, प्रवर्तन निदेशालय के सीनियर अधिकारी राजेश्वर सिंह और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के पूर्व सहयोगी एके जैन का नाम भी पेगासस की जासूसी लिस्ट में शामिल बताया जा रहा है। इन लोगों के फोन नंबरों को भी जासूसी की संभावित लिस्ट में शामिल किया गया था। इनके अलावा रिसर्च एंड एनालिसिस विंग यानी रॉ के एक पूर्व अफसर और पीएमओ के एक अधिकारी का नाम भी इसमें शामिल था। यही नहीं, रिपोर्ट के मुताबिक सेना के दो कर्नलों को भी जासूसी की इस लिस्ट में शामिल किया गया था। सवाल यह है कि मोदी सरकार इन लोगों की क्यों जासूसी कराना चाहती थी। क्या इन लोगों से सरकार को कोई खतरा था। स्मरण रहे कि इजरायली कम्पनी पेगासस स्पाय सॉफ्टवेयर किसी भी देश की सरकार को ही देती है। अगर यह सॉफ्टवेयर भारत में इस्तेमाल किया जा रहा था तो निश्चित रूप से मोदी सरकार शक के दायरे में आती है।

फोन टेपिंग कांड भारत के लिए नया विषय नहीं है। विभिन्न सरकारों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं। तब लैंडलाइन फोन टेप होते थे, अब एंड्रायड फोन टेप करने का मामला सामने आया है। यहां तो राष्ट्रपति भवन के फोन टेप किये जाने का मामला तक सामने आ चुका है लेकिन किसी भी मामले में कभी कुछ नहीं हुआ। दरअसल अमेरिका और भारत में संवैधानिक स्थितियां भिन्न हैं। अमेरिका में महाभियोग लाकर राष्ट्रपति को अपदस्थ किया जा सकता है लेकिन भारत में प्रधानमंत्री को हटाना मुश्किल है। तीन प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं जिन्हें पद पर रहने के दौरान इस्तीफा देना पड़ा है। मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुमत के अभाव में सरकार गिरने पर इस्तीफा दिया। इंदिरा गांधी के चुनाव को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अवैध करार दिया था लेकिन उन्होंने इस्तीफा देने के बजाय देश में आपातकाल लगा दिया। यह अलग बात है कि उन्हें इसका खामियाजा चुनाव में हार के रूप में भुगतना पड़ा।

फिलहाल मोदी सरकार के सामने ऐसे कोई हालात नहीं जिसे पेगासस कांड पर घेरा जा सके। विपक्ष ने बहुत दबाव बनाया तो ज्यादा से ज्यादा जांच समिति बन सकती है। यहां की जो कार्यप्रणाली है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इस समिति की रिपोर्ट जब तक आयेगी, मोदी सरकार का कार्यकाल पूरा हो चुकेगा। न्यायिक प्रणाली के बारे में भी सभी जानते हैं। विपक्ष अगर कोर्ट की शरण ले भी तो इतनी जल्दी फैसला आने से रहा। इन हालात में द वायर जैसी एजेंसी भारत में तो वाटरगेट जैसे हालात पैदा करने से रही।

आखिर क्या था वाटरगेट जासूसी कांड ?

करीब 47 साल पहले अमेरिका में यह कांड सामने आया था। साल था 1969। 20 जनवरी को रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिचर्ड निक्सन अमेरिका के राष्ट्रपति बने। शुरुआत के दो-ढाई साल तक सबकुछ ठीक था। आखिरी साल फिर से राष्ट्रपति चुनाव का था। उन्हें पता करना था कि उनकी प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेटिक पार्टी की तैयारियां क्या हैं? इसके लिए उन्होंने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया। कुछ लोगों को डेमोक्रेटिक पार्टी के नेशनल कमेटी के ऑफिस यानि कि वॉटरगेट हॉटेल कॉम्प्लेक्स की जासूसी का काम सौंप दिया। जासूसों ने उस कॉम्प्लेक्स में रिकॉर्डिंग डिवाइस लगा दी ताकि उनकी बातचीत सुनी जा सके। सब ठीक चल रहा था कि अचानक रिकॉर्डिंग डिवाइस ने काम करना बंद कर दिया.

फिर 17 जून, 1972 की रात को पांच लोगों ने फिर से उस बिल्डिंग में घुसने की कोशिश की ताकि रिकॉर्डिंग डिवाइस ठीक की जा सके। अभी वो तारों के साथ छेड़खानी कर ही रहे थे कि पुलिस पहुंच गई और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अगले दिन अमेरिकी अखबार वॉशिंगटन पोस्ट में इसकी खबर छपी। खबर की तफ्तीश करने वाले दो पत्रकार थे…बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन। जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ता जा रहा था, एक-एक करके सत्ताधारी रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं के नाम सामने आ रहे थे लेकिन निक्सन तक आंच नहीं पहुंच रही थी। मामला सीनेट में पहुंच गया, जहां इसकी सुनवाई होनी थी। मई, 1973 में केस सीनेट में शुरु हुआ। मामले की जांच के लिए हॉवर्ड के लॉ प्रोफेसर अर्चिबाल्ड कॉक्स को वकील के तौर पर नियुक्त किया गया। जब निक्सन को लगा कि वो खुद फंस जाएंगे तो उन्होंने अपने करीबियों को इस्तीफा देने के लिए मज़बूर किया। अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव हुए तो निक्सन ने खुद को पाक साफ बताया। लोगों ने भरोसा भी कर लिया और निक्सन दोबारा राष्ट्रपति बन गए। लेकिन लंबे समय तक बने नहीं रह पाए क्योंकि उन्होंने वाटरगेट कांड की जांच के लिए जिए नए वकील लिओन जोर्सकी को नियुक्त किया था, उन्होंने सारे रिकॉर्डेड टेप को रिलीज़ करने का नोटिस भेज दिया और फिर निक्सन फंस गए। 30 अक्टूबर, 1973 को निक्सन के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया। कोर्ट के काम में दखल देने, राष्ट्रपति की शक्तियों का दुरुपयोग करने और हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव के सामने गवाही देने न आने के आरोप उनपर तय किए गए। 6 फरवरी, 1974 से महाभियोग पर सुनवाई शुरू हो गई। अब उनके सामने कोई रास्ता नहीं था. 8 अगस्त, 1973 को वो टीवी पर आए। अपनी बात रखी और फिर इस्तीफा दे दिया। अमेरिका के इतिहास में ये अब तक का पहला मामला था, जब किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने पद पर रहने के दौरान ही इस्तीफा दिया था।

व्यंग्य : मीडिया स‌र्कस का ‘रंगा सियार’

रवींद्र रंजन

मीडिया स‌र्कस का ‘सियार’ बहुत फैशनेबल है। रंगा सियार है। बूढ़ा हो चुका है। जवान दिखने की हसरत है। यह हसरत हर वक्त उसके दिल में हिलोरें मारती रहती है। कई बार तो छलक कर बाहर तक आ जाती है। पूरे रिंग पर बिखर जाती है। हसरतें उससे बहुत कुछ कराती हैं। रंगा सियार खुद को रोज अलग-अलग रंग में रंगता है। कभी लाल-हरा-गुलाबी। कभी नीला-पीला। चटकीला। भड़कीला। नया रंग उसे रंगीला बना देता है। ऎसा वह मानता है। चटकीले-भड़कीले रंगों के पीछे उसकी असलियत छिप जाती है। बुजुर्गियत का एहसास दब जाता है। उम्र की लकीरें ढक जाती है। बूढ़ा सियार जवां नजर आने लगता है। मुर्गियां धोखा खा जाती हैं। बिल्ली, लोमड़ी, कबूतरी और मोरनी धोखा खाने का दिखावा करने लगती हैं। वह खुश हो जाता है। अपने मकसद में कामयाब होकर। गोया खुदा मिल गया।

वह खुश होकर कबूतरियों, मोरनियों, मुर्गियों को नजदीक बुलाता है। मोरनियां नहीं, मुर्गियां तो आ ही जाती हैं। कभी मजबूरीवश। कभी स्वार्थवश। उनके आते ही सियार स‌र्कस के शो में ‘बिजी’ हो जाता है। जब तक आसपास मुर्गियां रहती हैं। मोरनियां रहती हैं। कबूतरियां रहती हैं। वह बिजी रहता है। लोमड़ियों को वह खास पसंद नहीं करता। वह चालाक होती हैं। उसके झांसे में नहीं आतीं। मोरनियां उसे ‘मांस’ नहीं डालतीं। इसी चक्कर में वह कई बार नकली पंख लगाकर मोर बन जाता है। नाच दिखाता है। मोरनी को लुभाने की कोशिश करता है। रिंग के बाहर-भीतर, आसपास स्टाइल से मंडराने लगता है। खुद को जन्मजात मोर स‌मझने लगता है। लेकिन इस स‌बसे मोरनियां इंप्रेस नहीं होती। सियार की ये हरकत उसके लिए उपहास का स‌बब बन जाती है।

बिल्लियां उसे खासी पसंद हैं। शायद उनसे रंगे सियार को नए-पुराने शो को और चमकाने की प्रेरणा मिलती है। आयडिया मिलता है। या फिर पता नहीं ‘क्या’ मिलता है। कई बार धोखा खाने का नाटक करना मुर्गियों और मोरनियों की मजबूरी होती है। क्योंकि मोरनी और मुर्गी पास हो तो सियार को बाकी कुछ याद नहीं रहता। शो का वक्त भी भूल जाता है। उसकी यह कमजोरी मुर्गियों के लिए मुफीद है। यही स‌च है।

कभी-कभी सियार के पास स‌जने-संवरने का वक्त नहीं होता। तब वह खाल ओढ़कर भी स‌र्कस में चला आता है। कभी शेर की तो कभी चीते की। तब उसे लगता है कि वह चीफ रिंग मास्टर बन गया है। लेकिन खाल के पीछे छिपी उसकी “असलियत” बाहर आ ही जाती है। उसकी हरकतों से। उसके हाव-भाव से। उसकी आंखों से । हाथों से। बातों से । कभी-कभार कुछ नई मुर्गियां और मोरनियां स‌चमुच धोखा खा जाती हैं। रंगे सियार को पहचान नहीं पातीं। सियार इसका पूरा फायदा उठाता है। आंखों से। हाथों से। बातों से । इस‌के बावजूद अगर वह अपनी असलियत छिपाने में कामयाब हो गया तो जैसे ही वह बिल्लियों, मोरनियों और मुर्गियों के सामने पूंछ हिलाता है, लार टपकाता है, उसकी हकीकत बेपर्दा हो जाती है। खूबसूरत रंग के पीछे छिपा स्याह रंग सबको दिख जाता है। यही उसकी विडंबना है। यही उसकी परेशानी है।

सावन के अंधे को हरा-हरा ही स‌ूझता है। स‌र्कस का कोई शो वक्त पर शुरू हो या न हो। कोई कलाकार अपनी कला दिखाए या न दिखाए। किसी कलाकार का हुनर जाया हो, होता रहे। स‌ियार को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह अपनी दुनिया में मगन रहता है। मुर्गियों और मोरनियों के बीच खुश रहता है। वह बहुत ‘खुशमिजाज’ है। लेकिन ऎसा नहीं है कि सियार को गुस्सा नहीं आता है। वह भी गुस्सा हो जाता है। खासकर तब, जब वह ‘बिजी’ हो और कोई बंदर, लोमड़, कौवा, चूहा, भालू उसे ‘डिस्टर्ब’ करने की हिमाकत कर दे। चूहों स‌े वह बहुत चिढ़ता है। चूहों की तादाद भी ज्यादा है और वह जब-तब उस‌के सिर पर स‌वार रहते हैं। इससे सियार के “खेल” में खलल पड़ता है। तब वह जोर से हुआं-हुआं करता है। स‌ब डर जाते हैं। खामोश हो जाते हैं। मुर्गियां दड़बों में दुबक जाती हैं। जैसा दूल्हा, वैसे बाराती। बाज, चील, गिद्ध। स‌ब सियार के अच्छे दोस्त हैं। उनसे सियार की बहुत पटती है। शायद इसलिए कि सब ‘मांसाहारी’ हैं। खाने-पीने के शौकीन हैं। ‘फितरत’ भी मिलती-जुलती है। मिल-बांट कर खाते हैं। सियार सीनियर है। स‌र्कस का पुराना कलाकार है। वरिष्ठ रिंग मास्टर है। उसे बहुत सी कलाएं आती हैं। वैसे स‌र्कस के शो में उसकी दिलचस्पी कम ही होती है। सूत्रधार कौन है। कबूतरी कौन है। यह जानने में वह ज्यादा वक्त बिताता है। स‌बको लगता है। उम्मीद होती है। सियार स‌र्कस के स‌भी शो को चमका देगा। हर शो को हिट करा देगा। लेकिन वह ऎसा नहीं स‌ोचता। वह अपनी स्टाइल में काम करता है। मुर्गियों और मोरनियों से घिरा रहना उसे स‌बसे ज्यादा पसंद है। यह उसकी प्रथम वरीयता है। शायद उसका जन्मजात गुण है। वह इसे बदल नहीं स‌कता। या फिर बदलना नहीं चाहता। यही हकीकत है। यही स‌र्कस है।

भारतीय मूल के उपन्यासकार संजीव सहोता की किताब ‘चाइना रूम’ बुकर की दौड़ में

भारतीय मूल के ब्रितानी उपन्यासकार संजीव सहोता उन 13 लेखकों में शामिल है, जिनकी किताब ‘चाइना रूम’ को इस साल बुकर पुरस्कार के दावेदारों की सूची में शामिल किया गया है। 40 वर्षीय सहोता के दादा-दादी 1960 के दशक में पंजाब से यहां आ गए थे। सहोता ने पहले भी ‘द ईयर ऑफ द रनवेज’ के लिए 2015 के बुकर पुरस्कार के दावेदारों में जगह बनाई थी और उन्हें 2017 में साहित्य के लिए यूरोपीय संघ पुरस्कार मिला था । उनके उपन्यास ‘चाइना रूम’ को ब्रिटेन या आयरलैंड में अक्टूबर 2020 और सितंबर 2021 के बीच प्रकाशित 158 उपन्यासों में से चुना गया। अंग्रेजी में लिखे गए और ब्रिटेन या आयरलैंड में प्रकाशित पुस्तक के लिए किसी भी राष्ट्रीयता का लेखक इस पुरस्कार को जीतने का पात्र है।

बुकर पुरस्कार के चयनमंडल ने कहा, ‘चाइना रूम ने दो काल और दो महाद्वीपों को एक साथ बुनते हुए प्रवासी अनुभव पर आधारित कहानी के एक शानदार मोड़ के साथ हमें प्रभावित किया।’ सहोता के अलावा नोबेल पुरस्कार विजेता जापानी लेखक काजुओ इशिगुरो और पुलित्जर पुरस्कार विजेता रिचर्ड पॉवर्स प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार की दौड़ में शामिल हैं।

इशिगुरो को पुरस्कार के लिए चौथी बार नामित किया

साल 2017 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीत चुके ब्रिटेन के इशिगुरो प्रेम एवं मानवता पर आधारित उपन्यास ‘क्लारा एंड द सन’ के लिए 50,000 पाउंड के बुकर पुरस्कार के लिए मंगलवार को घोषित दावेदारों की लंबी सूची में जगह बनाने में कामयाब रहे. इशिगुरो को इस पुरस्कार के लिए चौथी बार नामित किया गया है. उन्हें इससे पहले ‘द रीमेन्स ऑफ दि डे’ के लिए 1989 में इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. अमेरिकी लेखक पॉवर्स को ‘बिविल्डर्मेंट’ के लिए नामित किया गया है. पॉवर्स ने 2019 में ‘द ओवरस्टोरी’ के लिए पुलित्जर पुरस्कार जीता था और इस पुस्तक ने बुकर पुरस्कार के अंतिम दावेदारों में भी जगह बनाई थी.

इस साल की सूची में दक्षिण अफ्रीका के डैमोन गैलगट का उपन्यास ‘द प्रॉमिस’, कनाडाई लेखक मैरी लॉसन का ‘ए टाउन कॉल्ड सोलेस’ जगह मिली है. बुकर पुरस्कार की शुरुआत 1969 में की गई थी. इनके अलावा अमेरिकी पैट्रीशिया लॉकवुड को ‘नो वन इज टॉकिंग अबाउट दिस’ और उनके हमवतन नाथन हैरिस को ‘द स्वीटनेस ऑफ वॉटर’ के लिए सूची में जगह मिली है. सूची में अमेरिकी लेखक मैगी शिपस्टेड की ‘ग्रेट सर्कल’, ब्रितानी उपन्यासकार फ्रांसिस स्पफर्ड की ‘लाइट परपेचुअल’, ब्रितानी/सोमालियाई लेखक नादिफा मोहम्मद की ‘द फॉर्च्यून मेन’, ब्रितानी/कनाडाई लेखक रशेल कस्क की ‘सेकंड प्लेस’, दक्षिण अफ्रीकी उपन्यासकार कारेन जेनिंग्स की ‘एन आइलैंड’ और श्रीलंकाई लेखक अनुक अरुदप्रगसम की‘ए पैसेज नॉर्थ’ भी शामिल है. सूची में अंतिम छह में जगह बनाने वाली किताबों की घोषणा 14 सितंबर को की जाएगी और विजेता को तीन नवंबर को लंदन में एक समारोह के दौरान पुरस्कृत किया जाएगा. इससे पहले, 2020 का बुकर पुरस्कार स्कॉटिश-अमेरिकी डगलस स्टुअर्ट ने अपने पहले उपन्यास ‘शुगी बैन’ के लिए जीता था।

कर्नाटक में नए सीएम : येदियुरप्पा के करीबी बोम्मई के पिता भी थे मुख्यमंत्री

येदियुरप्‍पा के इस्तीफे के बाद बसवराज बोम्‍मई कर्नाटक के नए मुख्‍यमंत्री नियुक्त किए गए हैं। भारतीय जनता पार्टी की विधायक दल की बैठक के बाद भाजपा केंद्रीय नेतृत्व के पर्यवेक्षक केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने मंगलवार को यह ऐलान किया। युदियुरप्‍पा ने ही बसवराज बोम्‍मई का नाम बीजेपी आलाकमान के सामने रखा था. बसवराज बोम्‍मई को केएस ईश्‍वरप्‍पा और बाकी विधायकों का समर्थन भी प्राप्‍त है। बोम्मई के पिता एसआर बोम्मई भी कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में राज्‍य की सेवा कर चुके हैं।

जनता दल से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले बसवराज बोम्मई सादर लिंगायत समुदाय से आते हैं।  बोम्‍मई को येदियुरप्‍पा का बेहद करीबी माना जाता है। येदियुरप्‍पा बोम्मई को भाजपा लाये थे। वह सरकार में गृहमंत्री भी रह चुके हैं। 28 जनवरी 1960 को जन्‍में बसवराज बोम्मई के पिता एसआर बोम्मई भी कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में राज्‍य की सेवा कर चुके हैं। बसवराज बोम्‍मई ने साल 2008 में भारतीय जनता पार्टी का हाथ थामा था. बीजेपी में आने के बाद से उनका करियर तेजी से आगे बढ़ा. वह पहले राज्य सरकार में जल संसाधन मंत्री रहे हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत जनता दल के साथ की थी। गौरतलब है कि येडियुरप्पा ने अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूरे होने के दिन सोमवार को पद से इस्तीफा दे दिया था. येडियुरप्पा (78) ने 26 जुलाई को राजभवन में गहलोत को इस्तीफा सौंपा था. उन्होंने बताया था कि उनका त्याग पत्र स्वीकार कर लिया गया है और उन्होंने ‘स्वेच्छा से’ इस्तीफा दिया है. दक्षिण भारत में भाजपा की पहली सरकार बनवाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले येडियुरप्पा ने चार बार राज्य का नेतृत्व किया. येदियुरप्पा ने चार अलग-अलग कार्यकालों के जरिए कुल 1,901 दिनों के लिए पद संभाला।