लेखक- दिलीप कुमार
कन्हैया लाल जी ने खुद को पूर्णतः बनारसी रंग में ढाल रखा था, उनकी शख्सियत को आवरण पूरी तरह से गंवई बुजुर्ग का था. आम तौर पर चमक – दमक वाला हिन्दी सिनेमा ऐसी सादगीपूर्ण शख्सियत को कभी स्वीकार नहीं करता. कैरियर के शुरुआती दौर में कन्हैयालाल संघर्ष करते रहे. बाद में कन्हैया लाल ने अपने अभिनय की एक लकीर खींच दी, बाद में रूपहले पर्दे पर बहुत से लोग उनके तरह भी अभिनय करना चाहते थे, सिल्वर स्क्रीन पर यह मुकाम बहुत कम ही लोगों को नसीब हुआ है, लिहाजा इसके लिए संघर्ष, मेहनत की पराकाष्ठा से गुजरना होता है. इस बेरहम दुनिया में अपने हिस्से का संघर्ष बेचकर सफ़लता प्राप्त की जा सकती है. आज के दौर की पीढ़ियां भले ही अभिनेता कन्हैयालाल जी को न पहिचानते हों, लेकिन कन्हैयालाल जी अपनी सिनेमाई यात्रा में हर वो मुक़ाम हासिल किया, हिन्दी सिनेमा ने अपने पूर्वजों को न्यायोचित सम्मान कभी नहीं दिया. कन्हैयालाल जी ने अपने तीन दशक से ज्यादा के कॅरियर में कंजूस, कठोर सेठ, लालची साहूकार, चालाक नौकर, बेईमान पोस्टमैन, झूठी गवाह, अपने निजी फायदे के लिए पूरे गांव को लड़ाने वाला रईस आदि आदि छोटी मगर प्रभावी भूमिकाओं के लिए याद किए जाते हैं,सबसे प्रमुख संदर्श उनके भोले चेहरे के पीछे खलनायक भी छिपा था. जो मौके पर अंगारे बरसा सकता है…
कन्हैयालाल जी ने जो भी रोल किए, अपनी अदाकारी के लिए एक मिसाल बन गए. सबसे पहले पर्दे पर धोती, कुर्ता, गंजी, गंवई जैकेट, साफा, गंवई पगड़ी, हाथ में छाता, मूंछें, आदि पुरानी फ़िल्मों में कोई भी अभिनय करते दिखता था, तो बचपन में हर अभिनेता में हमे कन्हैयालाल दिखते थे. अभिनय की बारीकियों को देखा जाए तो, कन्हैयालाल चालाक साहूकार बनकर पूरी फिल्म की कहानी में सभी को ठगते थे, बाद में तालियां बटोर कर दर्शकों के दिल जीत लेते थे. कन्हैयालाल जी को देखा गया है, वो अभिनय नहीं करते थे, वो उस किरदार को अपने जीवन की सच्चाई मानकर खुद को ढालते हुए, किरदार को रूपहले पर्दे पर पेश करते थे. यही कारण है, कि उनके चलने, बोलने, में चेहरा मटका कर संवाद अदाकारी में, वहीँ सभी को अपनी चाल में फंसा देने के लिए, चालाकी में उस्ताद यहां तक कि बुज़ुर्ग की स्टाइल में खांसना भी कन्हैयालाल जी की अपनी अदाकारी का एक उच्च स्तर था. कन्हैया लाल के रोल बने हुए फिक्स होते थे, कि वो क्या बनेंगे. कई बार एक आदमी एक ही प्रकार के रोल करता है, तो वो अप्रभावी हो जाते हैं, लेकिन कन्हैया लाल ने अपनी अदाकारी को कभी भी पुरानी नहीं होने दिया. पुजारी, हकीम, सेठ, चोर, बदमाश, तेज तर्रार, सीधा – सादा गंवई, शहरी चालाक, यहां तक कि शोषण करने वाले एवं कराने वाले दोनों भूमिकाओं में पारंगत रोल के साथ संतुलित न्याय करते थे. कन्हैयालाल कॉमिक उस्ताद भी थे, इससे भी अधिक ड्रामेबाज उनके रोल में तेज़ी होती थी, वहीँ आवाज़ लाउड, कहीं मद्धम, तेज तब होती जब साहूकार बनते, अगली ही भूमिका में जब नौकर बनते तो तो आवाज़ मद्धम कर लेते, उनका तर्क था, नौकर तेज बोलता जोकर लगेगा. वहीँ गांव के सेठ लोग रईस अपना प्रभाव ज़माने के लिए तेज आवाज में बोलता है. इस गहराई के साथ शहर गांव… मालिक – नौकर की भूमिकाओं के साथ न्याय कर सकते थे.
कवि, साहित्यकार कहानीकार होने के कारण बोलने की कला में पारंगत कन्हैयालाल जी डायलॉग बोलने में अपना कौशल उड़ेल देते थे, कई डायलॉग उनके आज भी बोले जाते हैं. लच्छेदार संवाद अदाकारी में मुहावरे, लोकोक्ति, कहावतें मिलाकर बोलते थे. रूपहले पर्दे के बाहर उनकी मौजूदगी में उनके सम्मान में उनके ही स्टाइल में लच्छेदार तकरीरो से उनका स्वागत किया जाता था. कन्हैयालाल जी अति महत्वाकांक्षी नहीं थे, जिससे प्रतिभा, साहित्य का अद्भुत ज्ञान भंडार होते हुए भी, सीमाओं में घिरे रहे. हिन्दी सिनेमा के कन्हैयालाल उर्फ़ लाला जी, 10 दिसंबर 1910 वाराणासी के एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे. हर किसी के जीवन में पिता एक वटवृक्ष की तरह होते हैं. उनके पिता देहांत के बाद कन्हैया की ज़िंदगी में आपार विपत्तियों, का सामना करना पड़ा. उनको आभास हुआ, जैसे उनके पिता जी का जाना ही नहीं था, बल्कि वट वृक्ष का सूख जाना था. महबूब खान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘औरत’ कन्हैया लाल की जिंदगी ही बदल गई थी. इस फिल्म के बाद कन्हैयालाल अपने अभिनय के लिहाज से घर – घर पंहुच गए. उसके बाद हिन्दी सिनेमा में हाथी घोड़ा पाल की जय कन्हैया लाल की, यह लाइन अमर हो गई थी.
कोई भी सिने प्रेमी हम पांच फिल्म के इस दृश्य को भूलना मुमकिन नहीं है, जब फिल्म में पांचों एक्टर एक बूढ़े व्यक्ति को उठाकर मस्ती करते हैं. ये कोई और नहीं बल्कि बॉलीवुड के वर्सेटाइल एक्टर कन्हैलाल चतुर्वेदी थे. कन्हैया लाल अपने गंवई स्टाइल को लेकर काफी मशहूर हुए थे, जो अपनी अदाकारी से गांव के बुजुर्ग को उकेर कर सामने लेकर आते थे. कन्हैयालाल एक कॉमिक आर्टिस्ट भी थे. हालांकि शुरुआती दौर में उनको पसंद नहीं किया गया. बाद में इस स्टाइल को लोग कॉपी करते हुए अभिनय करना चाहते थे. इसको संतृप्त अवस्था कहा जाता है. यह बिरले लोगों को मिलता है. इस बेरहम दूनिया में अपना संघर्ष खत्म करने के बाद अपनी प्रतिभा से स्थापित हो जाने के बाद उन्हें दर्शकों का साथ मिला. कन्हैयालाल रूपहले पर्दे के साथ दर्शकों में में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब हुए.
कन्हैयालाल के कैरियर महबूब खान द्वारा लेखक वजाहत मिर्जा के उत्प्रेरक की भूमिका निभाने के साथ शुरू हुआ. उसी के कारण कन्हैयालाल को फ़िल्म ‘औरत’ 1940 में सुखी लाला की भूमिका के लिए चुना गया था. उन्होंने दुष्ट साहूकार की भूमिका निभाई, जिसकी युवा विधवा पर बुरी योजनाएँ हैं. जैसा कि उन्होंने एक साक्षात्कार में याद दिलाते हुए प्रकाश डाला था, “इस प्रोडक्शन पर भी, मुझे लग रहा है था, कि कूड़े के ढेर से जैसे सुई ढूंढना हो, बहुत मुश्किल था, मुझे खुद भी यकीन नहीं था, लेकिन महबूब खान साहब जैसे विद्वान अगर आपके ऊपर यकीन करें कि आप कर सकते हैं, तो आपको भी खुद पर यकीन करना चाहिए, यूँ ही कोई महबूब खान साहब की पसंद नहीं बन जाता. फ़िल्म की स्टारकास्ट में शामिल हो जाने के बाद भी कोई मेकअप मैन मेरा मेकअप करने के लिए तैयार नहीं था, उनका कहना था, कि आपकी शक़्ल ही नहीं है, कि आप हीरो बनेंगे. इस स्तर का अपमान किसी के भी आत्मविश्वास को डिगा सकता है.सिनेमैटोग्राफर फरीदून ईरानी ने मुझसे पूछा क्या बात है? तब मैंने उनको अपनी समस्या बताता. उन्होंने शांति से कहा, ‘चिंता मत करो. तुम हो वैसे ही दिखो. तुम अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करो, अपनी अदाकारी से इन्हें जवाब दो, और मैं बिना मेकअप के तुम्हारी तस्वीर खींचूंगा. मेकअप तो बाहरी आवरण है, अभिनय के लिए ज़ज्बात, कि आवश्यकता होती है, वो तुममे कूट कर भरे हुए हैं”. मैंने मेकअप के नाम पर केवल मूंछें ही लगाया.
बहुत सारे सिनेमैटोग्राफर ऐसे नहीं होते जो बिना मेकअप के कलाकारों की सहमति पर भी फोटोग्राफ नहीं लेते. मैंने मिस्टर ईरानी के साहस और आत्मविश्वास के लिए उनकी प्रसंशा की, एवं मुझे उन्होंने आत्मविश्वास दिया. मैं खुद का भी सम्मान करता हूं, औरत की भूमिका वास्तव में बेहतरीन थी. वजाहत मिर्जा ने मेरे लिए जो लाइनें लिखीं, उससे मुझे काफी मदद मिली. मेरा मानना है, कि एक अभिनेता को सबसे ज्यादा अच्छे संवाद की जरूरत होती है, ताकि वह अच्छा प्रदर्शन कर पाए, लेकिन इससे भी ज्यादा भाषायी अध्ययन बहुत आवश्यक है”
निर्माता, निर्देशक महबूब खान फ़िल्म औरत से संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने 1 1957 में फिल्म के रीमेक मदर इंडिया का निर्माण किया. महबूब खान ने कहानी फिल्म की पूरी की पूरी स्टारकास्ट बदल दिया. उन्होंने फिल्म के अहम किरदार सुक्खी लाला के रोल में बार फिर कन्हैया लाल जी नजर आए. हिन्दी सिनेमा में यह अनोखा कारनामा था, जो एक ही कहानी के वही रोल एक ही अभिनेता ने किया हो, महबूब खान साहब के द्वारा उनका चयन कन्हैया लाल जी के लिए बेहतरीन अभिनेता का अवॉर्ड है.
कन्हैयालाल जी अचानक ही हीरो नहीं बन गए, यह अभिनय का बीज़ उनके बालमन से ही उनके मन में बोया जा चुका था. उनके पिता सनातन धर्म रामलीला मंडली के संचालक थे. उनके बड़े भाई अभिनय भी करते थे. कन्हैया लाल और उनके बड़े भाई एक्टिंग के बेहद शौकीन थे यही वजह थी कि उनका पढ़ाई में मन नहीं लगता था, अक्सर वह कहा करते थे कि – किताबों में क्या रखा है बंदे अरे सबक लेना चाहिए, ज़िन्दगी को नजदीक से देखने का नज़रिया इज़ाद करना चाहिए, आख़िरकार किताबें भी यही दृष्टि बनाने में सहायक होती है. कन्हैया लाल बनारसी तो थे ही साथ ही पान खाने के काफी शौकीन थे. पान खाने की उनकी दीवानगी देखने लायक थी. अभिनेता ओमप्रकाश के घनिष्ठ मित्र थे, ओमप्रकाश जी कहते थे ” यूँ तो ज़िंदगी में सुख-दुःख आते ही रहते हैं, लेकिन मैं दो लोगों के जाने के बाद टूट गया था, मुझे लगता था, कि अभिनय करना ही छोड़ दूँ. एक तो मेरी पत्नी दूसरे मेरे प्रिय मित्र कन्हैयालाल जी मुझे हमेशा याद आते हैं, उनके देहांत के कुछ दिनों बाद तक मैं नॉर्मल नहीं हो पाया था”. कन्हैयालाल जी का ज़िन्दगी का तिलिस्म फ़िल्मों से बाहर भी था. जितने अच्छे अदाकार इतने ही बेहतरीन कवि और लेखक भी थे. उन्होंने कई फिल्मों में गाने भी लिखे थे. अज़ीब सा दुःख मेरे अन्दर रहता है, कि गोल्डन एरा के महान कलाकारों को भुला दिया गया है, क्या हम इतने नशुक्रे हैं, कि अपने पूर्वजों को ही भुला देते हैं. कन्हैयालाल जी कोई साधारण अभिनेता नहीं थे, उनके जैसे वो खुद ही अनोखे थे, हम ऐसे लोगों की प्रतिभा की विरासतें कितना सहेज पाए हैं, यह तो विमर्श का विषय है. पैसे के पीछे भागने वाले हिन्दी सिनेमा से उम्मीद नहीं है, एवं हर संदर्श में भारतीय समाज कृतघ्न रहा है, इसने हमेशा चढ़ते सूरज को सलाम किया है, लेकिन ज़ड़ के बिना वृक्ष का विकास सम्भव नहीं है. कन्हैयालाल आखरी बार हथकड़ी फिल्म में नजर आए, जो साल 1983 में उनके निधन के बाद रिलीज हुई थी. कन्हैया लाल जी आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अपनी बेमिसाल, अद्वितीय अदाकारी के लिए आज भी सिने प्रेमियों के दिल में धड़कते रहेंगे. समान्तर सिनेमा के एक नायाब फनकार के हुज़ूर में सलाम..!