लेखक : दिलीप कुमार
देश की आज़ादी एवं हिन्दी सिनेमा का एक अंतर्संबंध रहा है. आज़ादी के बाद बंटवारे की त्रासदी के साथ ही उस दौर में जाने कितने कलाकारों ने अपने ख्वाबों को टूटते देखा होगा, तो कईयों ने पलायन, आदि का दर्द झेलते हुए कामयाबी हासिल की है . सिनेमा समाज का दर्पण होता है. उसी बदलते हुए समाज ने न जाने कितने बात करने के लिए मुद्दे दिए, क्लासिक कल्ट फ़िल्में दी, अविस्मणीय सिनेमा गढ़ा… सिनेमा बनाने वाले दिए. आज़ादी के वक्त देश के लोगों ने न जाने कितने अमूर्त सपने देखे थे, लेकिन उन सपनों के साकार होने में अभी वक़्त दरकार था. जब लोग आभाव से जूझ रहे थे, तो सिनेमा ने उनके वो ख्वाब पूरे करने शुरू किए. नेहरू युगीन सिनेमा का समाज को नए सिरे से गढ़ने में भी एक खास योगदान रहा है.
जिन कलाकारों की वजह से हो रहा था उनमें कई बंटवारे की त्रासदी के शिकार कलाकार थे, जो अपना सब कुछ छोड़कर भारत आए थे . ऐसे ही एक ऐक्टर राजेंद्र कुमार रहे हैं, जो बंबई आए तो थे फ़िल्मकार बनने, लेकिन नियति ने उन्हें अदाकार बना दिया. मजबूरी में ऐक्टर बने राजेन्द्र कुमार को एक दौर में सस्ता ट्रेजडी किंग कहा जाता था, फिर उन्होंने अपनी विविधतापूर्ण अदाकारी से खुद को जुबली कुमार के नाम तक ले गए.. स्टारडम ऐसा की 60-70 के दशक के सबसे बड़े सुपरस्टार राजेन्द्र कुमार ही थे.. एक वक्त था, जब उनकी हर फिल्म सिल्वर जुबली होती थी. सिल्वर जुबली मतलब 25 हफ़्ते तक लगातार फिल्म चलती रहे.
राजेंद्र कुमार बचपन से ही फ़िल्मकार बनने का सोचते थे. आज़ादी मिलने से पहले लाहौर में भी सिनेमा खूब पँख पसार रहा था.. राजेंद्र कुमार सपना देखते थे कि बड़े होकर वो भी लाहौर जाएंगे और फिल्मों में काम करेंगे…उनका ये सपना पूरा होता उससे पहले ही देश का बंटवारा हो गया और राजेंद्र कुमार का लाहौर में हीरो बनने का ख्वाब टूट गया. आख़िरकार सरहद पार कर राजेंद्र कुमार बंबई पहुंचकर निर्देशक एच.एस रवैल को असिस्ट करने लगे. यह सब इतना आसान नहीं रहा होगा, जितना सोचने में लग रहा है.. न जाने कितनी रातें भूखे पेट गुज़र गई होंगी. इसी दौरान केदार शर्मा की नज़र इन पर पड़ी और उन्होंने राजेंद्र को अपनी फिल्म ‘जोगन’ में दिलीप कुमार और नर्गिस के साथ साइन कर लिया. ये साल था 1950 इस फिल्म के लिए इन्हें मात्र 1500 रूपये मिले थे. ये फिल्म हिट हुई, और राजेन्द्र कुमार फिल्म में खूब प्रभावी रहे.
पहली फिल्म हिट होने के बाद राजेंद्र के पास फिल्मों के खूब ऑफर आने लगे. इसी कड़ी में महबूब खान की कल्ट फिल्म ‘मदर इंडिया’. उनकी अगली फिल्म थी. इस फिल्म में इनके सह-कलाकार थे, सुनील दत्त, राज कुमार और नर्गिस…. फिल्म में राज कुमार और नर्गिस ने सुनील और राजेंद्र के माता पिता की भूमिका अदा की थी. लेकिन इनकी उम्र में कोई ज़्यादा अंतर नहीं था.. एक बार राजेंद्र कुमार बताते हैं – “इस फिल्म की शूटिंग के दौरान भी नर्गिस हमारा अपने बच्चे जैसा ही ख्याल रखती थीं. सुबह हाथ में ब्रश और पेस्ट लेकर वो ही मुझे और सुनील को जगाने आती थीं…” वैसे भी अभिनय को जीने के लिए वाकई किरदार को जीना पड़ता है… तब कहीं मदर इन्डिया जैसी कल्ट फ़िल्में बन पाती हैं. वैसे देखा जाए तो ऐसी फ़िल्में बनाई नहीं जातीं बन जाती हैं.
राजेन्द्र कुमार के दौर के सिने प्रेमी इस बात की पुष्टि करते हैं, कि उस दौर में दिलीप साहब जितने बड़े ट्रेजडी किंग थे, राजेन्द्र कुमार भी उतने बड़े ही ट्रेजडी किंग थे… वहीँ गुड लुकिंग के साथ ही सिल्वर स्क्रीन पर रोमांटिक हीरो के तौर पर देवानंद साहब के समकक्ष ही अदाकारी करते थे… कई फ़िल्में उनके स्टाइलिश, पर्सनैलिटी की गवाही देती हैं..वहीँ राज कपूर साहब की तरह यथार्थ अभिनय करते थे.. 80 से ज्यादा फ़िल्मों में अपनी हरफ़नमौला अदाकारी का जलवा बिखरने वाले राजेन्द्र कुमार ने 35 फ़िल्में सिल्वर जुबली दी हैं.. अभिनय तो डूबकर करते थे… जब जब सिल्वर स्क्रीन पर आते थे, दर्शकों का दिल जीत लेते थे. जितने अच्छे अदाकार थे, उतने ही उत्तम इंसान थे.. यूँ तो रफी साहब पर सभी अपना अधिकार सिद्ध करते थे, यह मुहब्बत रफी साहब महसूस करते हुए भावुक हो जाते थे. वहीँ राजेन्द्र कुमार, रफी साहब के बिना फिल्म ही नहीं करते थे, यह बात फिल्म साइन करते हुए लिखित करार करते थे. पर्दे पर मुझे रफी साहब की ही आवाज चाहिए. रफ़ी साहब की दीवानगी अपने एक अलग ही फलक पर थी. एक बार राजेन्द्र कुमार एवं शम्मी कपूर दोनों रफी साहब के सामने बहस कर रहे थे, कि मेरे लिए रफी साहब ने ज्यादा अच्छे गाने गाए हैं, हालांकि ऐसा सुनना आम बात है, कि आपके लिए अच्छे गाने गाए हैं, मेरे लिए नही! रफ़ी साहब ने दोनों को सुना की दोनों कह रहे हैं कि रफी साहब ने मेरे लिए ज्यादा अच्छा गाया है… यह मुहब्बत देख कर रफी साहब रोने लगे थे. राजेन्द्र कुमार की आवाज़ रफी साहब थे… उस दौर के यादगार होने का यह भी एक खास कारण है. जुबली कुमार के बहुमुखी अभिनय पर नजर डालें तो एक से बढ़कर एक भूमिका के ज़रिए सिद्ध करते हैं, कि कितने शानदार अभिनेता रहे हैं. इन्हें भी मेथड ऐक्टर कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए. राजेंद्र कुमार जब अपने स्टारडम के शिखर पर थे, उसी दौरान एक फिल्म आई थी ‘गूंज उठी शहनाई’, इस फिल्म में राजेंद्र कुमार ने शहनाई वादक की भूमिका निभाई थी. अपने किरदार को निभाने के लिए राजेंद्र कुमार को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी. उन्होंने शहनाई तो नहीं सीखी, लेकिन एक्सप्रेशंस सीखने पड़े. इस काम के लिए उन्होंने ग्रेट शहनाई वादक बिस्मिल्ला ख़ां से मदद ली. राजेंद्र कुमार लकड़ी की नकली शहनाई लेकर शीशे के सामने बैठ जाते और रिकॉर्डिंग के दौरान बिस्मिल्ला ख़ां के एक्सप्रेशन और कंधे-गले की हरकत को कॉपी करने की कोशिश करते. फिल्म रिलीज़ होने के बाद जब राजेंद्र कुमार ने बिस्मिल्ला ख़ां को फिल्म दिखा कर उनसे फीडबैक लिया तो उन्होंने ने कहा,’ आप फिल्म में कहां थे मैंने तो फिल्म में सिर्फ खुद को देखा.’ यह उनकी अदाकारी का कमाल था, साथ ही अदाकारी का एक सर्टिफिकेट…