: दिलीप कुमार
हिन्दी सिनेमा के युगपुरुष’ पृथ्वीराज कपूर एक ऐसा नाम जो केवल और केवल अपनी अदाकारी के लिए अमर हैं. उनको आधुनिक भारतीय रंगमंच का पितामह कहा जाए तो शायद ठीक होगा. पृथ्वीराज कपूर एक ऐसा अदाकार जो अपनी कड़क आवाज, रोबदार भाव भंगिमाओं और नायाब अभिनय के कारण लगभग चार दशकों तक रंगमंच प्रेमियों एवं सिने – प्रेमियों के लिए प्रेरणा बने रहे. वहीँ हिन्दी सिनेमा में उनका कद पितृपुरुष वाला रहा. पृथ्वीराज कपूर हिन्दी सिनेमा एवं आधुनिक रंगमंच की दुनिया के सबसे पहले अग्रदूतों में शुमार है. पृथ्वीराज कपूर थिएटर एवं सिनेमा दोनों को बखूबी जीने वाले अदाकार थे. फिर भी थिएटर उनके लिए पहला प्रेम था… पृथ्वीराज कपूर जो अपनी केवल और केवल प्रतिभा से अदाकारी के शिखर तक पहुँचे. जिन्होंने पलायन झेला. अविभाज्य भारत के लाहौर में जन्मे, जब हिन्दी सिनेमा में अपनी जगह बनाने आए, तो उन्हें क्या पता था ! घर हमेशा के लिए छूट जाएगा. अंततः उन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी, क्योंकि उस समय तक उनका रुझान थिएटर की ओर हो गया था. पृथ्वीराज कपूर 18 वर्ष की उम्र में ही शादीशुदा हो चुके थे. साल 1928 में कर्ज़ लेकर पृथ्वीराज कपूर अपने सपनों के शहर बंबई पहुंचे. पृथ्वीराज कपूर इतने महान अदाकार थे, जो अपनी मेहनत, प्रतिभा के दम पर शीर्ष तक पहुंचे. फिर भी उन्हें सबसे ज्यादा अपनी सफलता का एहसास हुआ,जब उनकी पहिचान बनी कि ये हिन्दी सिनेमा के ग्रेट शो मैन राज कपूर साहब के पिता हैं. किसी भी पिता के लिए इससे महान कुछ नहीं होता कि वो अपने बेटे के नाम से जाना जाए..
पृथ्वीराज कपूर कितने कमाल इंसान थे, उनके लिए आदर्श ही प्राथमिक थे. उसकी बानगी देखी जा सकती है. एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू जी ने उनसे विदेश जा रहे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व करने की पेशकश की थी, लेकिन पृथ्वीराज ने पण्डित नेहरू जी से यह कह उनकी पेशकश नामंजूर कर दिया “मैं थिएटर के काम को छोड़कर विदेश नहीं जा सकता. अभी आपके प्रतिनिधि मंडल से कहीं अधिक मेरे थिएटर को मेरी आवश्यकता है”. आज सरकार की चाटुकारिता करते कलाकारों को भी सीखना चाहिए. केवल महात्वाकांक्षी होने से सफ़लता नहीं मिलती. उनका समर्पण उन्हें उम्दा इंसान सिद्ध करता है. थिएटर कम्पनी खोलने से कुछ नहीं होता, उसे खुद जीना पड़ता है. पृथ्वीराज कपूर बहुत ही उम्दा इंसान थे. फिर भी कड़क स्वभाव के साथ ही अनुशासन उनको खूब पसंद था. अमर फिल्म मुगल ए आज़म फिल्म में बादशाह अकबर का कड़क किरदार निभाने वाले पृथ्वीराज कपूर को देखकर लगता है कि बहुत तेज़ – तर्रार इंसान रहे होंगे, लेकिन वो थिएटर में काम करने वालों के हितों की रक्षा के लिए खुद भी झुक जाते थे. थिएटर में हर शो के बाद पृथ्वीराज गेट पर एक झोला लेकर खड़े हो जाते थे. शो देखकर निकलने वाले लोग उस थैले में कुछ पैसे डाल दिया करते थे. इन पैसों से पृथ्वीराज थिएटर में काम करने वाले कर्मचारियों की मदद करते थे. यह अंदाज़ भी उनकी आला शख्सियत को बयां करता है.
पृथ्वीराज कपूर प्रतिभा की इज्ज़त करते थे, 1949 में आई फ़िल्म अंदाज़ उसमें नरगिस, राज कपूर – दिलीप कुमार थे. इस फिल्म की स्क्रीनिंग हुई तो महबूब खान ने पृथ्वीराज को यह कहकर खास तौर पर आमंत्रित किया.”आपके बेटे राज कपूर जी ने बहुत उम्दा काम किया है”, पृथ्वीराज एक पिता के तौर पर हाथ में एक फूलों की माला लेकर फिल्म देखने पहुंचे. कि यह माला राज कपूर को पहना दूँगा. फ़िल्म देखकर बाहर निकले उन्होंने वह माला दिलीप कुमार को पहना दिया. उन्होंने कहा “राज कपूर मेरा बेटा है, उसने बहुत उम्दा अभिनय किया है, लेकिन राज से भी बढ़िया ऐक्टिंग दिलीप ने किया है.. राज कपूर साहब को भी अपने पिता के आदर्शो पर खुशी हुई थी.. कभी – कभार आदमी जवानी में गलतियां कर बैठते हैं, फिर वो चाहे अभिनय सम्राट दिलीप साहब ही क्यों न हों! दिलीप साहब को मुगल ए आज़म फिल्म में इस बात पर एतराज था, “मेरा एवं मधुबाला का नाम पृथ्वीराज कपूर जी से बाद लिखा जा रहा है, जबकि हम इस फिल्म में लीड रोल में हैं”. फिल्म निर्देशक के आसिफ़ भी मूडी इंसान थे “उन्होंने कहा दिलीप साहब आप लीड रोल में नहीं है, पृथ्वीराज कपूर जी लीड रोल में हैं, फिल्म का नाम साहिबे आलम नहीं है, बल्कि फिल्म का नाम मुगल ए आज़म है, ध्यान रखिए मुगल ए आज़म के रोल में पृथ्वीराज कपूर जी हैं”. ये वही पृथ्वीराज कपूर थे, जिन्होंने दिलीप साहब के असल विवाह में उनके पिता की भूमिका निभाते हुए बारात की अगुवाई की थी…हालाँकि फिर दिलीप साहब उनको पिता तुल्य ही मानते थे.
अपने सिनेमाई सफ़र के शुरुआत में 1928 में पृथ्वीराज कपूर मुंबई में इंपीरियल फ़िल्म कंपनी से जुडे़ थे. फिर 1930 में बीपी मिश्रा की फ़िल्म ‘सिनेमा गर्ल’ में उन्हें अदाकारी करने का मौका मिला. इसके कुछ समय बाद एंडरसन की थिएटर कंपनी के नाटक शेक्सपियर में भी उन्होंने अभिनय किया. लगभग दो वर्ष तक फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष करने के साल 1931 में आई फिल्म ‘आलमआरा’ में उन्होंने 24 साल की उम्र में ही जवानी से लेकर बुढ़ापे तक की भूमिका निभाकर हर किसी का दिल जीत लिया था. पृथ्वीराज कपूर कितने उम्दा अदाकार रहे हैं, वो कभी भी दखल नहीं देते थे, हमेशा से ही कहानी के हिसाब से निर्देशक के आधार पर काम करते थे. हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म मुगल ए आज़म किसको याद नहीं है, ख़ासकर इस फिल्म में निभाया गया उनका किरदार आज भी लोगों को याद है. ‘युद्ध के दृश्यों में, उन्होंने बिना किसी शिकायत के असली लोहे का भारी कवच पहना था. सीक्वेंस के दौरान जब अकबर (पृथ्वीराज कपूर) एक बेटे की मन्नत मांगने के लिए अजमेर शरीफ जाते हैं, तो वे सचमुच ही रेगिस्तान की धूप में नंगे पैर चले थे, और उनके तलवों में छाले पड़ गए थे. फिर भी शूट पूरा किया.. पृथ्वीराज कपूर थोड़ा पारिवारिक उसूल वाले व्यक्ति तो थे, जिससे उन्हें फिल्म मुगल ए आज़म में मधुबाला के बगावती गीत “जब प्यार किया तो डरना क्या” के दौरान बादशाह (पृथ्वीराज कपूर) की आंखें गुस्से से लाल हो जाती हैं. उन्होंने यह सीक्वेंस बिना ग्लिसरीन के लिए पूरा किया था. के आसिफ ने उन्हें अपना समय लेने के लिए कहा. पृथ्वीराज कपूर बैठे- बैठे उसी अवस्था में पहुंच गए थे. और उनकी आंखें लाल हो गईं थीं. इस अदाकारी क्लास को सिनेमा की दुनिया में मेथड ऐक्टिंग कहते हैं.. मेथड ऐक्टिंग मतलब जो भी हो स्वाभाविक हो…
रंजीत मूवी के बैनर तले वर्ष 1940 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘पागल’ में पृथ्वीराज कपूर ने अपने सिने कैरियर में पहली बार एंटी हीरो की भूमिका निभाई. इसके बाद वर्ष 1941 में सोहराब मोदी की फ़िल्म सिकंदर की सफलता के बाद पृथ्वीराज कामयाबी के शिखर पर जा पहुंचे. पृथ्वीराज कपूर ने पृथ्वी थिएटर से शुरुआत की. पृथ्वी थिएटर में उन्होंने आधुनिक और अर्बन विचारधारा का इस्तेमाल किया, जो उस समय के फारसी और परंपरागत थिएटरों से काफ़ी अलग था. पृथ्वी थिएटर में नवयथार्थवाद, देशभक्ति की चेतना प्रसार के लिए गांधी जी की विचारधारा का प्रभाव देखा जा सकता था. उस दौर में उन्होंने आज़ादी की अलख जगाने वाले नाटकों को प्राथमिकता दी थी, जिससे कारण उन्हें भारी नुकसान भी उठाना पड़ा. उस दौर में धीरे-धीरे दर्शकों का ध्यान थिएटर की ओर से हट गया, क्योंकि उन दिनों दर्शकों के ऊपर सिल्वर स्क्रीन का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था. बहुत कम 15 साल के समय में पृथ्वी थिएटर के 2662 शो हुए जिनमें पृथ्वीराज ने लगभग सभी शो में मुख्य किरदार निभाया. पृथ्वी थिएटर के प्रति पृथ्वीराज इस क़दर समर्पित थे, कि तबीयत ख़राब होने के बावजूद भी वह हर शो में हिस्सा बनते थे. उस दौर में सीमित संसाधनो के बीच भी शो एक दिन के अंतराल पर नियमित रूप से होता था. आज के दौर में संसाधन हैं, लेकिन वो समर्पण नहीं है. जो पृथ्वीराज कपूर के दौर में होता था. पृथ्वीराज कपूर कमाल की पारखी नज़र रखते थे, वो किसी भी कलाकार को एक बार देख कर , बता देते थे, कि यह लम्बी रेस का घोड़ा है. उन्होंने अपने थिएटर के जरिए कई महान हस्तियों को तराशने के लिए मंच दिया, एवं उन्हें प्रतिभा को आगे बढ़ने का मौक़ा दिया. कविराज शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, रामानंद सागर शंकर-जयकिशन जी, गायक मुकेश जी जैसे नाम शामिल हैं. इन्हीं बड़े – बड़े नामों को मिलाकर आर के स्टूडियो भी बुलन्दियों तक पहुँचा था. दमदार आवाज़ के मालिक पृथ्वीराज कपूर ने सिनेमा और रंगमंच दोनों को अपनी अदाकारी से सींचा था. पृथ्वीराज कपूर जब रंगमंच की दुनिया में आए थे, तो सिनेमा घुटनों के बल चल रहा था. हालांकि उनका पहला प्यार थिएटर ही था. उन्होंने भारत को ग्रेट शो मैन ऑफ हिन्दी सिनेमा दिया, जिनके बिना कभी सिनेमा पूरा नहीं होगा. शम्मी कपूर, शशि कपूर, जैसे सुपरस्टार पैदा करने वाले सुपरस्टार थे. उन्होंने भारतीय रंगमंच में जो अतुलनीय योगदान दिया वो सदियों तक याद रहेगा. बीते सोमवार 29 मई आधुनिक रंगमंच के पितामह श्री पृथ्वीराज राज कपूर साहब की पुण्यतिथि थी…. विराट व्यक्तित्व को मेरा सलाम……