Sunday, September 8, 2024
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व्यंग्य : लोकतन्त्र की खूबसूरती के लिए आंदोलन में हिंसा

मनीष शुक्ल

सत्ता की सही- गलत नीतियों का विरोध करना लोकतन्त्र में अधिकार भी है और कर्तव्य भी है । कहा जाता है कि विरोध लोकतन्त्र को मजबूत बनाता है और खूबसूरत भी। इसीलिए लोकतन्त्र की खूबसूरती को चार चंद लगाने के लिए विरोध करने वालों की नई प्रजाति तैयार हुई है। जिसका मकसद विरोध के लिए विरोध किया जाए और इतना तेज किया जाए कि देश सबकुछ छोडकर उनका तमाशा देखने लगे। सत्ता पक्ष ऐसे क्रांतिवीरों को आन्दोलनजीवी का नाम देती है तो विपक्ष उन्हें आंदोलनकारी मानकर उनके पीछे खड़ा हो जाता है। फिर चाहे ये जुझारू पत्थर फेंके, ट्रेन रोककर जला दें या फिर थाने को फूंककर आगजनी करें। लेकिन आंदोलन में थोड़ी- बहुत हिंसा हो भी जाए तो लोकतन्त्र की खूबसूरती कम नहीं होती है। और लोग ताली और थाली पीटते रह जाते हैं। ऐसे ही एक क्रांतिवीर आंदोलनकारी से करते हैं हम दो टूक बात!

एंकर : आप एक के बाद एक लगातार आंदोलन करते रहते हैं। आखिर आपको इन आंदोलन की प्रेरणा कहाँ से मिलती है!

आंदोलनकारी : अरे साहब! बड़ी मेहनत करनी पड़ती है आंदोलन करने में! सरकार की हर योजना और हर घोषणा पर नजर रखनी पड़ती है। इधर सरकार ने ऐलान किया। उधर हम आंदोलन करने निकल पड़ते हैं। नारेबाजी, सड़कजाम, चक्काजाम, तोडफोड, ट्रेन रोको, काम रोको, जिस तरह से भी लोगों का ध्यान खीचना होता है। खींच लेते हैं।

एंकर : फिर भी अगर सरकार नहीं मानती है तब क्या करते हैं!

आंदोलनकारी : हमें सरकार को मनवाना भी नहीं है। सरकार अगर मान भी जाए तब भी हम नहीं मानते हैं। सिर्फ हँगामा खड़ा मकसद है मेरा, जमाने की सूरत बदले या न बदले उससे क्या फर्क पड़ता है!

एंकर : तो आप का आंदोलन कब तक जारी रहता है!

आंदोलनकारी : हम विरोध के लिए विरोध करते हैं। लोगों का ध्यान खींचते हैं। और तब तक विरोध करते हैं। जब तक कि विरोध के लिए कोई नया मुद्दा हाथ नहीं लग जाता है।

एंकर : इसका मतलब ये हुआ आप जनता को अपने आंदोलन से जगाना चाहते हैं!

आंदोलनकारी : जनता से हमें क्या लेना देना! वो सोए या जागे! हमें तो न्यूज चैनल वालों को जगाना है। जो 24 घंटे सत्ता के गुणगान में लगे रहते हैं। कुछ देर के लिए उनका ध्यान विरोध के मुद्दों पर दिला देते हैं। लोग हमें देखते सुनते हैं। चैनल वाले डिबेट में बुलाते हैं। धीरे- धीरे हम सेलिब्रिटी बन जाते हैं। बड़े- बड़े नेता- अभिनेताओं के साथ उठना बैठना शुरू हो जाता है। फिर खुद में ब्रांड बन जाते हैं। सरकार भी हमें अपने साथ रखने लगती है। चुनाव के समय में हमारी पूछ बढ़ जाती है। विपक्ष और सरकार दोनों हमसे गठबंधन के लिए उतावले हो जाते हैं।

एंकर : यानि आप अपनी लोकप्रियता भुनाते हैं!

आंदोलनकारी : क्या बेतुका सवाल है आपका ! कौन अपनी लोकप्रियता नहीं भुनाता है। नेता, अभिनेता, अफसर सारे लोकप्रियता पाने के लिए ही सब कुछ करते हैं। अगर नेता को कोई जाने नहीं तो फिर वो नेता कैसा। अगर आंदोलनकारी के साथ जनता न हो तो फिर विरोध कैसा! आप भी लोकप्रिय हैं तभी तो एंकर बने हैं। वरना आप भी कोने में पड़ी किसी कुर्सी पर बैठे कलम घिस रहे होते।

एंकर : लेकिन अब तो देश आजाद है। चुनी हुई सरकार है। आप वोट के अधिकार से सरकार बदल सकते हैं। फिर आंदोलन ने नाम पर हिंसा का रास्ता क्यों! पत्थरबाजी, आगजनी और तोडफोड से आखिर क्या हासिल होता है आपको!

आन्दोलनकारी : देखिये! हर चीज से कुछ हासिल हो, ये जरूरी नहीं है लेकिन हम ये जरूर साबित कर देते हैं कि हर हाल में सरकार को झुकना ही होगा, फिर चाहे मुद्दा कोई भी हो। अगर हम आंदोलन नहीं करेंगे तो फिर सरकार पर दबाव कैसे बनाएँगे। अगर सरकार पर दबाव नहीं होगा तो वो मनमानी पर उतर आएगी। ऐसे में थोड़ा- बहुत बवाल तो होगा ही।

एंकर : अंत में आप सरकार को क्या संदेश देंगे!

आंदोलनकारी : हम सरकार से इतना ही कहेंगे कि वो लगातार कोई न कोई घोषणा करती रहे। योजनाओं को लाती रहे। अगर सरकार काम करती रहेगी तो हमारा आंदोलन भी चलता रहेगा। लेकिन अगर सरकार चुपचाप बैठ गई तो फिर हमें भी घर में बैठना पड़ेगा जिससे लोकतन्त्र की मजबूती और खूबसूरती दोनों को नुकसान पहुंचेगा। इसलिए लोकतन्त्र के लिए सरकार और आंदोलनकारियों को ऐसे ही अपने- अपने कार्यक्रम जारी रखने होंगे।

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