अरविंद जयतिलक
यह बेहद चिंताजनक है कि कोरोना महामारी के कारण 15 से 24 साल का हर सातवां भारतीय मानसिक अवसाद की समस्या से अभिशप्त है। यह खुलासा बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनीसेफ ने किया है। यूनीसेफ ने 21 देशों में 20 हजार बच्चों के बीच सर्वे के आधार रपर यह रिपोर्ट तैयार की है। सर्वे में कहा गया है कि भारत में 15 से 24 साल के किशोरों एवं युवाओं में से केवल 41 फीसद ने मानसिक समस्याओं के लिए सहयोग मानने को सही बताया जबकि पूरी दुनिया में औसतन 83 फीसद बच्चों ने सहयोग मांगने को सही माना। रिपोर्ट के मुताबिक अवसादग्रस्त लोगों ने स्वीकार किया है कि उनका किसी भी कार्य में मन नहीं लग रहा है जिससे वे डरे हुए हैं। यूनीसेफ के प्रतिनिधि की मानें तो कोरोना की दूसरी लहर के दौरान भारत के लोगों विशेष रुप से बच्चों ने अप्रत्याशित स्थिति का सामना किया जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ गया। गौर करें तो कोरोना के दरम्यान बच्चों को लंबे समय तक स्कूलों, खेलकूद प्रतिस्पर्धाओं एवं अन्य आयोजनों से दूर रहना पड़ा जिससे उन पर बुरा असर पड़ा। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 में अपनी एक रिपोर्ट में अनुमान जताया था कि 2012 से 2030 के बीच मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के कारण भारत की अर्थव्यवस्था को 1.03 लाख करोड़ डालर यानी 76 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होगा। 2019 में इंडियन जर्नल आफ साइकेट्री की रिपोर्ट से भी उद्घाटित हुआ था कि भारत में कम से कम पांच करोड़ बच्चे मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित हैं। चिंता की बात यह कि इनमें से 80 से 90 फीसद ने किसी से सहयोग नहीं मांगा है। याद होगा अभी गत वर्ष पहले लांसेट साइकैट्री में प्रकाशित ‘इंडिया स्टेट लेवल डिजीज बर्डन इनिशिएटिव’ द्वारा खुलासा हुआ था कि 2017 में प्रत्येक सात में से एक भारतीय अलग-अलग तरह के मानसिक विकारों से पीड़ित रहे। तब अध्ययन में पाया गया था कि 2017 में 19.7 करोड़ भारतीय मानसिक विकार से ग्रस्त थे जिनमें से 4.6 करोड़ लोगों को अवसाद था। अध्ययन के मुताबिक दक्षिणी राज्यों तथा महिलाओं में इसकी दर ज्यादा पाया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भी कहा जा चुका है कि भारत में मानसिक अवसाद के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत में 5.7 करोड़ लोग अवसाद से ग्रसित हैं। दुनिया भर में अवसाद से प्रभावित लोगों की संख्या 32.2 करोड़ है, जिसमें 50 प्रतिशत सिर्फ भारत और चीन में हैं। आंकड़ों के मुताबिक भारत के अलावा चीन में 5.5 करोड़, बांग्लादेश में 63.9 लाख, इंडोनेशिया में 91.6 लाख, म्यांमार में 19.1 लाख, श्रीलंका में 8 लाख, थाइलैंड में 28.8 लाख तथा आस्टेªलिया में 13.1 लाख अवसाद से ग्रसित लोग हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो दुनिया भर में अवसाद के शिकार लोगों की अनुमानित संख्या में 2005 से 2017 के बीच 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अवसाद सबसे ज्यादा पाया गया है। अच्छी बात यह है कि भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने किशारों एवं युवाओं की मानसिक समस्याओं की पहचान के लिए शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण देने की जरुरत पर बल दिया है। याद होगा देश में बढ़ते अवसाद को ध्यान में रखकर ही गत वर्ष पहले केंद्र सरकार ने संसद में मानसिक स्वास्थ्य देखरेख विधेयक 2016 पर मुहर लगायी जिसमें मानसिक अवसाद से ग्रस्त व्यक्तियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य देखरेख एवं सेवाएं प्रदान करने एवं ऐसे व्यक्तियों के अधिकारों का संरक्षण करने का प्रावधान किया गया है। चूंकि भारत अशक्त लोगों के अधिकारों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र संधि का हस्ताक्षरकर्ता है लिहाजा उसकी जिम्मेदारी भी है कि वह इस प्रकार के प्रभावी कानून गढ़ने की दिशा में आगे बढ़े। यह अच्छी बात है कि भारत ने इस दिशा में कदम बढ़ा सामुदायिक स्तर पर अधिकतम स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की रचनात्मक और स्वागतयोग्य पहल तेज कर दी है। इस पहल से अवसाद से ग्रसित मरीजों के अधिकारों की तो रक्षा होगी ही साथ ही मानसिक रोग को नए सिरे से परिभाषित करने में भी मदद मिलेगी। मनोवैज्ञानिकों की मानें तो मनोभावों संबंधी दुख है और इस अवस्था में कोई भी व्यक्ति स्वयं का लाचार व निराश महसूस करता है। इस स्थिति से प्रभावित व्यक्ति के लिए सुख, शांति, प्रसन्नता और सफलता को कोई मायने नहीं रह जाता है। वह निराशा, तनाव और अशांति के भंवर में फंस जाता है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि अवसाद के लिए भौतिक कारक भी जिम्मेदार हैं। इनमें कुपोषण, आनुवंशिकता, हार्मोन, मौसम, तनाव, बीमारी, नशा, अप्रिय स्थितियों से लंबे समय तक गुजरना इत्यादि प्रमुख है। इसके अतिरिक्त अवसाद के 90 प्रतिशत रोगियों में नींद की समस्या होती है। अवसाद के लिए व्यक्ति की सोच की बुनावट और व्यक्तित्व भी काफी हद तक जिम्मेदार है। अवसाद अकसर दिमाग के न्यूरोट्रांसमीटर्स की कमी के कारण भी होता है। यह एक प्रकार का रसायन होता है जो दिमाग और शरीर के विभिन्न हिस्सों में तारतम्य स्थापित करता है। इसकी कमी से शरीर की संचार व्यवस्था में कमी आती है और व्यक्ति में अवसाद के लक्षण उभर आते हैं। फिर अवसादग्रस्त व्यक्ति निर्णय लेने में कठिनाई महसूस करता है और उसमें आलस्य, अरुचि, चिड़चिड़ापन इत्यादि बढ़ जाता है और इसकी अधिकता के कारण रोगी आत्महत्या तक कर लेता है। मनोचिकित्सकों की मानें तो जब लोगों में तीव्र अवसाद के मौके आते हैं तो उनमें आत्महत्या के विचार भी पनपते हैं। ऐसे हालात में परिवार की भूमिका बढ़ जाती है। परिवार की जिम्मेदारी बनती है कि वह रोगी को अकेला न छोड़े और न ही उसकी आलोचना करे। बल्कि इसके उलट उसकी अभिरुचियों को प्रोत्साहित कर उसमें आत्मविश्वास जगाए। अवसादग्रस्त व्यक्ति के प्रति हमदर्दी दिखाए और उसकी बात को ध्यान से सुने। अवसादग्रस्त व्यक्ति को बोलने के लिए और उसकी भावनाओं को साझा करने के लिए प्रेरित करे। उचित यह भी होेगा कि परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के साथ खुली बातचीत को बढ़ावा देकर शुरुआत में ही किशोरों एवं युवाओं की मानसिक समस्याओं को पहचानकर सही इलाज सुनिश्चित किया जाए। खुलकर बातचीत से बच्चे बेहिचक अपनी समस्याओं को सामने रख सकेंगे। इसके साथ ही स्कूलों में शिक्षकों को विशेष रुप से प्रशिक्षित करने की जरुरत है ताकि वे बच्चों की मानसिक समस्याओं की पहचान कर सकें। इसके अलावा अवसादग्रस्त बच्चों को मनोविज्ञानियों के संपर्क में भी लाया जाना चाहिए ताकि उनका समुचित इलाज हो सके। इसके अलावा अवसादग्रस्त बच्चों को विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भी शामिल होने के लिए प्रेरित कर उसमें सकारात्मक भाव पैदा करना चाहिए। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि यदि कोई व्यक्ति लगातार सकारात्मक सोच का अभ्यास करता है तो वह अवसाद से बाहर निकल सकता है। अकसर देखा जाता है कि ज्यादतर समय अवसाद छिपा हुआ रहता है क्योंकि इससे ग्रस्त व्यक्ति इस बारे में बात करने से हिचकता है। अवसाद से जुड़ी शर्म की भावना ही इसके इलाज में सबसे बड़ी बाधा है। पिछले कुछ समय से अवसाद से बाहर निकलने में योग की भूमिका प्रभावी सिद्ध हो रही है। योग के जरिए दिमाग और शरीर की एकता का समन्वय होता है। योग संयम से विचार व व्यवहार अनुशासित होता है। योग की सुंदरताओं में से एक खूबी यह भी है कि बुढे़ या युवा, स्वस्थ या कमजोर सभी के लिए योग का शारीरिक अभ्यास लाभप्रद है। इसलिए उचित होगा कि योग को और अधिक बढ़ावा दिया जाए। आज की तारीख में अवसाद के इलाज में कई किस्मों की साइकोथेरेपी भी मददगार सिद्ध हो रही है। देश के सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन इनमें सबसे अधिक आवश्यकता अवसादग्रस्त लोगों के साथ घुल-मिलकर उनमें आत्मविश्वास पैदा करने की है। यह कार्य परिवार के सदस्यों द्वारा बेहतर तरीके से किया जा सकता है। अगर अवसाद की गंभीरता पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2030 तक अवसाद दुनिया में सबसे बड़ी मानसिक बीमारी का रुप धारण कर सकती है।