Friday, October 18, 2024
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बेतरतीब विकास : दरकते पहाड़, सिसकती धरती

मनीष शुक्ल

कहानी दशकों पुरानी है| बदस्तूर जारी है| समय के साथ दर्द, पीड़ा और पलायन बढ़ता जा रहा है| रिपोर्ट पर रिपोर्ट जारी हो रही हैं लेकिन कहानी है जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है| ये कहानी है हमारे पहाड़ी राज्यों के बेतरतीब विकास की| जिसकी वजह से पहाड़ दरक रहे हैं| धरती सिसक रही है| इस आपदा की कहानी को ख़त्म करने के लिए रहत पैकेज दिए जा रहे हैं| जांचें और आयोग बनाकर दायित्वों की इतिश्री हो रही है| पर मर्ज बढ़ता ही जा रहा है|  

बात ठीक बीस साल पहले की है जब उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद में 2003 में वरुणावत पर्वत से भूस्खलन हुआ था| उस प्राकृतिक आपदा ने यहाँ का भूगोल ही बदल दिया| आज दो दशकों बाद उत्तरकाशी के 56 गांवों पर हर समय आपदा का खतरा मंडरा रहा है| खुद राज्य सरकार प्रदेश के 465 गावों को संवेदनशील घोषित कर चुकी है| खतरे की स्थिति का आकलन करने के लिए कई बार सर्वे हो चुके हैं लेकिनं खतरा बढ़ता ही जा रहा है| जोशीमठ की आपदा इसी खतरे की आहट भर है|

उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों की विडंबना है कि यहाँ विकास और प्रकृति के बीच संतुलन की गंभीर चुनौती है| प्रदेश के विकास के लिए सड़क, रेल और बिजली और जल विद्युत परियोजनाओं का लम्बा जाल बिछाया जा रहा है तो इस विकास के बोझ से कमजोर पहाड़ दरक रहे हैं| भूस्खलन, भूकम्प, बाढ़ से प्रदेश के गाँव और शहर जूझ रहे हैं| अगर केवल उत्तरकाशी पर ही नजर डालें तो पिछले वर्ष 2022 में यहाँ 12 बार भूकंप के झटके महसूस किए गए थे| आपदा के लिहाज से बेहद संवेदनशील उत्तरकाशी में भटवाड़ी, मस्ताड़ी, अस्तल, उडरी, धनेटी, सौड़, कमद, ठांडी, सिरी, धारकोट, क्यार्क, बार्सू, कुज्जन, पिलंग, जौड़ाव, हुर्री, ढासड़ा, दंदालका, अगोड़ा, भंकोली, सेकू, वीरपुर, बड़ेथी, कांसी, बाडिया, कफनौल एवं कोरना समेत कुल 27 गांवखतरे के जोन में हैं। यह आंकड़ा पहाड़ के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है| धार्मिक और सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण चारधाम मार्ग पर अलकनन्दा और पिण्डर नदियों के संगम पर स्थित कर्णप्रयाग नगर भी धंस रहा है। महाभारत काल के महायोद्धा दानवीर कर्ण के नाम से बसे शहर पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है| गोपेश्वर के हल्दापानी क्षेत्र में भू-धंसाव के कारण दर्जनों मकानों पर  दरारें आ चुकी हैं। पोखरी और गैरसैंण से लेकर बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, मुन्स्यारी और धारचुला, टिहरी गढ़वाल के नरेन्द्र नगर तहसील क्षेत्र के अटाली गांव में भी ऐसी ही दरारे मिली हैं|    

पहाड़ की असल समस्या दशकों से हो रहा अनियंत्रित विकास है| इसके लिए सिस्टम से लेकर आम आदमी भी जिम्मेदार है| अगर जोशीमठ की आबादी देखें तो पिछले 100 साल में यह  50 गुना बढ़ चुकी है| धार्मिक और एडवेंचर पर्यटन होने के कारण पूरे क्षेत्र में  150 से अधिक छोटे बड़े होटल, लॉज और होम स्टे हैं| पर्यावरण की परवाह किये बिना तमाम सरकारी- गैरसरकारी योजनाओं को यहाँ मूर्त रूप दिया गया है|  पांच दशक पहले आई 1976 की मिश्रा कमेटी रिपोर्ट में ही जोशीमठ क्षेत्र में भारी निर्माण के खिलाफ चेतावनी दी गई थी|  इसके बाद 2006 में और 2009 में प्रकाशित रिपोर्ट्स में यही चेतावनी दोहराई गई| दो साल पहले 2021 में हुए हादसे के बाद भी एक और चेतावनी जारी की गई | लेकिन समस्या के हल न होने से 2023 में जोशीमठ में आई दरारें सवाल खड़ा कर रही हैं| अनियंत्रित विकास का ही नतीजा है कि पहाड़ी राज्य की शहरी आबादी का आंकड़ा 11 साल पहले ही 30 फीसदी को पार कर चुका है| मसूरी और नैनीताल सहित लगभग समेत सभी प्रमुख नगर आबादी के बोझ तले दबे जा रहे हैं| हाल के वर्ष में नेचर जियो साइंस में प्रकाशित शोध में ग्लेशियरों के पीछे खिसकने का कारण जल विद्धुत परियोजनाएं बताई गई हैं| इस पर तत्काल नियंत्रण जरुरी है| पहाड़ पर गहराते संकट से निपटने के लिए प्रकृति और विकास के बीच तालमेल जरुरी हो गया है| इन्सान को विकास चाहिए तो पर्यावरण को निर्बाध हवा, पानी की जरुरत है| लेकिन पिछले कई दशकों से जैसे- जैसे संसाधनों की बाढ़ आई है| प्रकृति भी इधर- उधर करवट लेकर डोल रही है| ऐसे में समय रहते हुए पहाड़ की दरार को भरने की जरुरत है| जो हिमालयी क्षेत्र को संरक्सित करके ही हो सकती है| इसके लिए हिमालय के अति संवेदनशील क्षेत्रों को प्रकृति के हवाले करना ही होगा वरना एक दिन प्रकृति तांडव करके सबकुछ छीन लेगी| 

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