- अपना दल, सुभाषपा, निषाद पार्टी, वीआईपी, महान दल और जनवादी पार्टी पर निगाहें
- पिछली बार भाजपा गठबंधन ने आखिरी दौर में जीती थी 72 सीटें, सपा 11, बसपा छह पर थे
मनीष शुक्ल
अगले नौ दिनों बाद उत्तर प्रदेश में सत्ता का नया चेहरा साफ हो जाएगा उत्तर प्रदेश की 18 वीं विधानसभा में सत्ता के गलियारे में पहुँचने वाले 403 माननीय विधायक लखनऊ जाने की तैयारी में होंगे। किसी बड़े राजनीतिक दल के सिर पर जीत का सेहरा भी सजा होगा। लेकिन इस जीत के सेहरे को सजाने में छोटे दल बड़ी सियासी भूमिका में होंगे। 2022 के आखिरी दो चरण के चुनाव में यही छोटे दल सत्ता के खेवैया बनने जा रहे हैं जिनका प्रभाव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनात्थ के विधान सभा क्षेत्र गोरखपुर से लेकर प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र काशी तक इन दलों का प्रभाव दिखता है। इसी कारण भाजपा ने अपनी चुनावी रैली का श्री गणेश निषाद पार्टी के बैनर तले किया था। तीन मार्च और सात मार्च को होने वाले विधानसभा चुनावों में सबकी निगाहें अपना दल, सुभाषपा, निषाद पार्टी, महान दल और संजय चौहान की पार्टी पर लगी हैं।
छोटे दलों के बड़े सियासी खेल से छठवें और सातवें चरण की चुनावी तस्वीर तय होने जा रही है। चुनाव से पहले लखनऊ के रमाबाई मैदान में हुई महानिषाद रैली इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जिसमें देश के गृहमंत्री अमित शाह समेत भाजपा के कई बड़े नेता शामिल हुए थे। वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव आधा दर्जन से साथ छोटे दलों का साथ लेकर इस चरण में भाजपा को सीधी चुनौती दे रहे हैं। अगर पूर्वान्चल की राजनीतिक समीकरण की बात करें तो यहाँ पर अलग- अलग क्षेत्रों में अपलग जातीय समूहों का वर्चस्व है। अगर सवर्ण, मुस्लिम और दलित के अलावा पिछड़ी जतियों पर नजर डाली जाए तो पटेल, मौर्य, राजभर, निषाद, बिंद, कुम्हार, प्रजापति, कुशवाहा, कोइरी जैसी पिछड़ी जातियों पर यहाँ की राजनीति केंद्रित है। इन्हीं जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर यहाँ की सियासी बिसात बिछाई गई है। अगर सबसे बड़े दल भाजपा और उसके गठबंधन की राजनीति देखे तो अगले दोनों चरणों में भाजपा के साथ निषाद पार्टी और अपना दल एस की अग्नि परीक्षा है। वहीं पिछली भाजपा के सहारे सत्ता का स्वाद चखने वाले ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुभाषपा के दावों की हकीकत सामने आएगी। राजभर ने इस बार भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलकर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है। वो दस मार्च को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को सीएम बनाने का दावा कर रहे हैं। वहीं संजय चौहान की जनवादी पार्टी और कृष्णा पटेल की अपना दल की सियासी ताकत का आंकलन इस चुनाव में हो जाएगा।
अगर हम 2017 में विधानसभा चुनावों के परिणाम देखे तो छोटे दलों की भूमिका स्पष्ट हो जाती है। यहाँ पर पिछली बार 111 सीटों में से भाजपा ने 72 सीटों पर जीत हासिल की थी। उसकी सहयोगी पार्टी सुभाषपा तीन और अपना दल चार सीटों पर विजयी रही थी। निषाद पार्टी के पास एक सीट है। निषाद और अपना दल भाजपा गठबंधन से मोर्चा ले रहे हैं जबकि सुभाषपा अब समाजवादी पार्टी के साथ है। समाजवादी पार्टी ने पिछले चुनाव में सातवें चरण के मतदान में 11 सीटें जीती थीं। सातवें चरण में बसपा के भी यहाँ छह प्रत्याशी विधायक जीते थे। कांग्रेस की प्रियंका वाड्रा को इस बार यहाँ पर अच्छा- खासा समर्थन मिल रहा है। ऐसे में भाजपा, सपा, कांग्रेस और बसपा के साथ-सथ राजभर, संजय निषाद और अनुप्रिया पटेल की प्रतिष्ठा भी दांव पर है।
भाजपा ने पूर्वान्चल में पटेल बिरादरी के साथ निषाद वोटों के महत्व को भी समझा है। मोदी- योगी लहर के बावजूद 2018 के लोकसभा उपचुनाव में निषाद ने सपा के समर्थन से भाजपा को उसके गढ़ गोरखपुर सीट पर हरा दिया था। ऐसे में पार्टी के रननीतिकारों ने जाति के नेता डा. संजय निषाद को अपने पाले में कर लिया। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में संजय निषाद के बेटे संत कबीरनगर से भाजपा के टिकट से सांसद हैं।
अखिलेश यादव ने भी यहाँ पर छोटे दलों का सहारा लिया हाई। अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल सपा के साथ हो गई हैं। अपना दल कमेरावादी ने सपा से गठबंधन किया है। इसके अलावा सुभासपा के राजभर, महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य भी गठबंधन का हिस्सा हैं। भाजपा सरकार में मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे पिछड़े नेताओं के सपा में शामिल होने से यहाँ चुनावी लड़ाई भाजपा और सपा के बीच सिमटती जा रही है। भारतीय मानव समाज पार्टी, शोषित समाज पार्टी, भारतीय समता समाज पार्टी, मानव हित पार्टी, पृथ्वीराज जनशक्ति पार्टी और मुसहर आंदोलन मंच- गरीब पार्टी और हिस्सेदारी मोर्चा जैसे दल अपने- अपने क्षेत्रों में प्रभावी नजर आ रहे हैं। इंका प्रभाव वोटों में कितना तब्दील हो पाता है, ये दस मार्च को ही तय होगा।
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तीन बार पूर्ण बहुमत की सरकार
पिछले तीन विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नज़र डालें तो साफ हो जाता है कि वोटों का बिखराव रुका है। मतदाता किसी एक दल के साथ जाकर पूर्ण बहुमत की सरकार बना रहा है। 403 विधानसभा सीटों वाले प्रदेश में पूर्ण बहुमत के लिए 202 सीटें जीतना ज़रूरी है। ऐसे में वर्ष 2007 में बसपा सुप्रीमो मायावती ने 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो 2012 के चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव 224 सीटों के साथ मुख्यमंत्री बने। भाजपा ने पहली बार 2017 में ओमप्रकाश राजभर और अनुप्रिया पटेल के दल के साथ गठबंधन किया और एतिहासिक जीत हासिल की। तब 312 सीटों के साथ योगी आदित्यनाथ यूपी के सीएम बने। इस बार भी सपा और भाजपा ने छोटे दलों के साथ गठबंधन किया है। बसपा और कांग्रेस अकेले सत्ता में वापसी की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए दोनों चरणों का चुनाव रोचक हो गया है।
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सुभाषपा के राजभर
साल 2002 में स्थापित होने वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का प्रभाव क्षेत्र पूर्वी उत्तर प्रदेश की लगभग दो दर्जन सीट पर माना जाता है। हालांकि ओम प्रकाश राजभर दावा करते हैं कि उनका समाज प्रदेश की लगभग 100 सीटों पर अपना प्रभाव रखती। साल 2017 में राजभर ने बीजेपी के साथ गठबंधन करके तीन सीटें हासिल की थीं। इस चुनाव में वो सपा के खेवैया बनना चाहते हैं।
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अनुप्रिया पटेल का अपना दल
प्रदेश के पूर्वी हिस्से खासतौर पर वाराणसी और आसपास के क्षेत्र में कुर्मी वोटरों का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘अपना दल’ इस समय बीजेपी के साथ गठबंधन में है। डॉक्टर सोने लाल पटेल ने साल 1995 में अपना दल की स्थापना की थी। अब उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल अपना दल की नेता हैं। वो मिर्ज़ापुर से सांसद हैं जबकि प्रदेश की विधानसभा में उनके हिस्से में 9 सीटें हैं।
अपना दल कमेरावादी
अनुप्रिया पटेल और उनकी माँ कृष्णा पटेल के बीच तनाव के बीच पार्टी दो हिस्सों में बंट गई। माँ कृष्णा पटेल और छोटी बहन पल्लवी पटेल इस बार सपा गठबंधन से चुनाव मैदान में है। पल्लवी सिराथू विधान सभा सीट से सपा के टिकट पर उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को चुनती दे रहीं हैं। तो अनुप्रिया पटेल ने माँ के खिलाफ अपनी पार्टी का प्रत्याशी उतारने से इंकार कर दिया है।
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केशव देव मौर्य का महान दल
साल 2008 में बहुजन समाज पार्टी से अलग होकर महान दल की स्थापना करने वाले केशव देव मौर्य ने हाल ही में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया है. उत्तर प्रदेश के मौर्य, भगत, भुजबल, सैनी और शाक्य जैसी कई जातियों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले केशव देव मौर्य सपा के कितने फायदेमंद साबित होती हैं ये तो दस मार्च को ही पता चल पाएगा।
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निषाद पार्टी
पूर्वान्चल को नदियों का आँचल भी कहा जाता है। गंगा के कछार क्षेत्र में इलाहाबाद से लेकर गोरखपुर और वाराणसी तक निषाद समाज की ख़ासी संख्या है। बीजेपी की तमाम कल्याणकारी योजनाओं में निषाद समाज को फायदा दिया जा रहा है। भाजपा ने निषाद पार्टी के नेता डॉ संजय निषाद के साथ गठबंधन कर समाज को संदेश भी दिया है। अब निषाद पार्टी भाजपा को कितना फायदा पहुंचाती है, दे देखने वाली बात है।