डॉ. नितिन सेठी
समय अपने गर्भ में अनगिनत रहस्यों-तथ्यों को समेटे रहता है। अपने प्रवाह के साथ समयचक्र इन्हें अपने अस्तित्व में अतीत का चोला पहना देता है। अतीत के रूप में ये रहस्य और तथ्य इतिहास की संज्ञा से विभूषित होते हैं। इतिहास में मात्र अतीत या प्राचीनकाल की घटनाओं का संकलन ही नहीं होता अपितु इनका विश्लेषण-विवरण भी इतिहास के अन्तर्गत समाहित होता है। ’इतिहास- शब्द इति+ह+आस से बना है, जिसका अर्थ निकलता है- निश्चित ही ऐसा हुआ था। विचारक हेनरी पिरेण इतिहास को समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों और उपलब्धियों की कहानी बतलाते हैं। अतीत का सार्थक और व्यवस्थित अध्ययन जहाँ हमारे वर्तमान को सही दिशा में चलने की प्रेरणा देता है, वहीं भविष्य को अंतर्दृष्टि और अनुशासन भी।
हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए यह बात संतोषजनक हो सकती है कि इसके इतिहास पर अनेक विद्वानों ने प्रत्येक दृष्टिकोण से विचार किया है। गार्सा द तासी से लेकर यह परम्परा अनवरत रूप से आज भी गतिमान है। ‘भक्तमाल‘, ‘शिवसिंह सरोज‘, ’द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर आव हिन्दुस्तान’ जैसे ग्रंथों से होती हुई इतिहास लेखन की यह प्रक्रिया आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास‘ तक आकर अपने नवोत्कर्ष को प्राप्त करती है। संतोष की बात है कि आज हमारे पास डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जैसे लेखकों के महत्वपूर्ण इतिहास ग्रंथ हैं।
सामान्य रूप से उपरोक्त सभी इतिहास ग्रंथ हिन्दी भाषा के प्रौढ़ साहित्य को ही गद्य-पद्य विधाओं में समाकलित करते दिखते हैं। विधा विशेष के रूप में भी हम साहित्य के किसी विशेष पक्ष का इतिहास ही देखते हैं। इन सबमें अगर बालसाहित्य जैसे विषय को ढूँढा जाये तो निराशा ही हाथ लगती है। स्वतंत्रता प्राप्ति तक हमारे पास हिन्दी साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित ग्रंथों की संख्या बहुत कम थी, तो फिर भला बालसाहित्य का इतिहास संजोने की साधना कौन करता। हर्ष का विषय था कि बरेली के बाल साहित्यकार निरंकार देव सेवक ने इस दिशा में प्रथम प्रयास किया। सन् 1966 में आपने ’बालगीत साहित्य’ ग्रंथ की रचना कीजो किताब महल, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। इस 276 पृष्ठीय कृति में उस काल तक ज्ञात-अज्ञात अनेक बाल साहित्यकारों (विशेषतः कवियों) का एक दुर्लभ विवरण प्राप्त होता है। सेवक जी बाल मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ रखते थे। यहाँ उन्होंने अनेक रचनाकारों पर इसी दृष्टि से विवेचना प्रस्तुत की। ’बालगीत साहित्य’ का संशोधित संस्करण उ.प्र. हिन्दी संस्थान ने सन् 1983 में प्रकाशित किया। कुछ महत्वपूर्ण संशोधनों के साथ इसमें नवीन कवियों को भी स्थान मिला। सम्बंधित रचनाकार का चित्र भी इस संस्करण में दिया गया था जिससे यह संस्करण बाल साहित्य का विश्वकोष-सा बन गया।
’बालगीत साहित्य’ का ही दूसरा परिवर्द्धित संस्करण उ.प्र. हिन्दी संस्थान से सन् 2013 में प्रकाशित हुआ, जिसकी सम्पादक प्रख्यात् बाल साहित्यकार प्रो. उषा यादव हैं। यह ग्रन्थ अपने वृहद् रूप में 524 पृष्ठों का है और कुल चौदह अध्यायों में विभक्त है। बाल साहित्य पर मनन-चिंतन करने वाले व्यक्ति के लिये यह बात अनिवार्य ही कही जायेगी कि उसे बाल मनोविज्ञान की पूरी-पूरी जानकारी हो। बच्चों के स्वभाव पर बात कर पाना हर एक के वश की बात नहीं। सेवक जी इसकी महत्ता समझते हैं। इसीलिये कृति का प्रथम अध्याय उन्होंने रखा था ’बाल स्वभाव’। मनोवैज्ञानिक पीठिका और सामयिक चिंतन नामक दो खण्डों में विभक्त यह अध्याय बच्चों के स्वभाव को मनोवैज्ञानिक नज़रिये से देखता है। बालक की आयु का मनोविकास किन पाँच क्रमों में होता है, इस पर चर्चा उपयोगी है। सामयिक चिंतन के अन्तर्गत वैज्ञानिकता, वैश्वीकरण, बाज़ारवाद, वस्तुवादी सोच जैसे तत्व अध्याय की उपादेयता को बढ़ाते हैं। सेवक जी लिखते हैं,“ कोई सुने या न सुने, लेकिन यह तय है कि बालक के मन की बात को बाल साहित्य ने बड़ी संजीदगी से सुना और समझा है। इक्कीसवीं सदी के बालक के वैज्ञानिक सोच और अनुभूतिप्रवण मन की उसने गहरी परख की है। उसे पता है कि बालक ही राष्ट्रीय चिंतन की इकाई है और उसकी अवज्ञा करके कोई राष्ट्र फल-फूल नहीं सकता। बच्चा जिस घर में रहता है, वह ईंट-पत्थरों से निर्मित छत और चहारदीवारी भर नहीं है, इंसानी जज़्बात, आपसी प्यार और विश्वास ही उसे ‘घर’ बनाते हैं। इसलिए बचपन से ही देश के नौनिहालों में उच्च सांस्कृतिक मूल्यों और स्नेहिल व्यवहार का बीजारोपण जरूरी है। इसमें संदेह नहीं है कि आज की हिंदी बाल कविता में आज का बच्चा अपनी सभी समस्याओं और संभावनाओं के साथ एक विराट चित्र फलक पर उपस्थित है। इस चित्र में हिंदी के बाल कवियों द्वारा अभी और संजीव रंग भरे जाएंगे, यह तय है।”
बड़ों की कवितायें आखिर छोटे बच्चों की कविताओं से कैसे अलग हैं और कैसे अलग हों, इसका विवचेन ’बड़ों की कविता और बालगीत’ में मिलता है। एक महत्वपूर्ण अंतर बालगीत और बालकविता में सेवक जी द्वारा दर्शाया गया है। वैयक्तिकता, आवेगदीप्ति, हार्दिकता, रागात्मकता, संगीतात्मकता, प्रवाह और संक्षिप्तता जैसे गीति काव्य के गुण जिस बाल कविता में हैं, वही बालगीत का दर्ज़ा प्राप्त कर सकती है। अन्यान्य शैलियों में लिखी गई कवितायें बालकविता की श्रेणी में आती हैं। सेवक जी का महत्वपूर्ण चिंतन है,“स्वानुभूति की अभिव्यक्ति की दृष्टि से बच्चों के गीत और बाल गीतों में बहुत अंतर होता है। बच्चों के गीतों की प्रेरणा कवि को स्वयं अपनी अनुभूतियों से मिलती है। उसे अपने मन में उठने वाली भावनाओं का उफान गीतों में व्यक्त करने के लिए विवश कर देता है पर बालगीतों को रचने की प्रेरणा कवि को स्वयं उसकी अपनी अनुभूतियों से नहीं मिलती। वह बच्चों की भावनाओं से प्रेरणा ग्रहण करके कोई बालगीत लिखता है।बच्चों की दुनिया ही बड़ों की दुनिया से सर्वथा भिन्न होती है। बच्चे जिस कौतूहलपूर्ण दृष्टि से सृष्टि के पदार्थों को देखते हैं बड़ों के पास वह दृष्टि नहीं होती। उनके लिए प्रयत्न करके भी उस दृष्टि को प्राप्त करना कठिन होता है।”
लोक साहित्य अपने आप में बहुत कुछ समेटे रहता है। यहाँ अनेक ऐसी चीजें होती हैं, जो परम्परा से प्रसार पाती रहती हैं। अलिखित बालगीतलोक साहित्य की थाती होते हैं। ये बालगीत कभी भी किसी किताब पर सुदर-सलोने चित्रों के साथ नही छपे होंगे, इन्हें कभी बच्चों की किसी परीक्षा में स्थान नहीं मिला होगा। साहित्य में जिस प्रकार से लोकगीत होते है, उसी प्रकार ये बालगीत भी लोकरंजन-बालरंजन करते दिखते, सुनाई पड़ते हैं। ’हाथी घोड़ा पालकी‘, ‘मोटे लाला पिलपिले,’ ‘एक जानवर ऐसा,’ ’छलकबड्डी आल ताल’ जैसे बालगीतों की भी एक लम्बी परम्परा है जिनके रचनाकारों के नाम भी शायद ही किसी को मालूम होंगे। लेकिन आज भी बच्चे-बच्चे की जुबान पर ये गीत हमें मिल जायेंगे। आवश्यकता इन गीतों के संकलन की भी है। प्रख्यात विचारक हैगर्ड ने एक बार लिखा था, ’’जीवन के प्रारम्भ में ही बच्चों को शिशुगीत देकर हम उसका सम्बन्ध उस सृष्टि से जोड़ देते हैं जो सर्वत्र नियमक्रमबद्ध है।’’‘शिशुगीत साहित्य’ में सेवक जी इसी विषय का विवेचन करते हैं। अंग्रेजी में ’नर्सरी राइम्स’ और बंगाली में ‘छड़ा गीत’ कहलाने वाले ये गीत बहुत छोटे बालकों की मनःस्थिति की अभिव्यक्ति करते हैं। बच्चों की अपनी भावनायें-जिज्ञासायें-प्रतिक्रियायें होती हैं, जिन्हें हम शिशुगीतों की चार से आठ लयबद्ध पंक्तियों में पाते हैं। सेवक जी यहाँ अनेक शिशुगीतों और उनकी रचना प्रक्रिया के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। शिशु गीतों की महत्ता बताते हुए सेवक जी निर्णय देते हैं,“ बच्चे के मानसिक विकास में जितनी उपयोगिता शिशुगीत की हो सकती है, उतनी बाल साहित्य की किसी भी अन्य विधा बाल कहानी, बालगीत, नाटक, जीवनी या ज्ञानवर्धक किसी रूप में लिखे साहित्य की नहीं। शिशु गीतों को सुन-सुनकर बच्चे अपनी उच्छृंखल भावनाओं को संतुलित करना आप से आप सीखते हैं और यह उनके भविष्य के जीवन में उन्हें आत्मानुशासित और आत्मविश्वासी बनाने में बड़ा उपयोगी होता है।”
बच्चे अपनी माता के आँखों के तारे कहलाते हैं। तारों के समान ही दमकते हुए अपनी चाँद जैसी उज्ज्वलता को बच्चे घर-परिवार-समाज में फैलाये रखते हैं। सेवक जी चाँद-तारों के बालगीत के अन्तर्गत इस पर प्रकाश डालते हैं। ज्ञातव्य है कि चाँद-तारों को आधार बनाकर प्राचीन समय से ही सृजन होता रहा है। गीता में भी तारों की तरह टिमटिमाने वाले सौ पुत्रों के स्थान पर चाँद के समान एक उज्ज्वल चरित्र के पुत्र की कल्पना की गई है। महाकवि सूरदास का भी एक पद हम देखते हैं- ’बार-बार जसुदा सुत बोधति आउ-चन्द तोहि लाल बुलावै’। लगभग प्रत्येक बाल साहित्यकार ने चाँद-तारों को विषय बनाकर बाल कविताओं का सृजन किया है। इसी क्रम में लोरियाँ, प्रभाती और पालने के गीतों की रचना भी की गई है। बच्चों का सोना-जागना माता की गोद में ही होता है। लोरियाँ बच्चों को सोते समय सुनाई जाती थीं। हिन्दी बालसाहित्य इस क्षेत्र में अतिशय सम्पन्न माना जा सकता है। इसी क्रम में प्रातः जागरण के लिये प्रभातियाँ भी गाये जाने की परम्परा रही है। लोरियों-प्रभातियों में चाँद, तारे, सूर्य, समीर, शांत वातावरण, पवित्रता, समर्पण जैसे सात्विक तत्वों का संयोजन और प्राकृतिक सुषमा का सजीव वर्णन मिलता है। बाल साहित्य के इतिहास में इनका विश्लेषण महत्वपूर्ण कड़ी प्रस्तुत करता है। विचारणीय यह बात भी है कि आज जहाँ दो-दो वर्ष के बच्चे प्लेग्रुप या क्रैचे में भेज दिए जाते हों, वहाँ इन ममत्वपूर्ण लोरियों- प्रभातियों का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है।
हिन्दी बालगीतों का वर्गीकरण’ में विभिन्न आधारों पर बालगीतों को सेवक जी वर्गीकृत करते हैं। यह वर्गीकरण जहाँ मनोवैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरता है, सामाजिक दृष्टि से भी उपयोगी सिद्ध होता है। आयु के आधार पर तीन से बारह वर्ष तक की आयु के बच्चों को चार वर्गो में बाँटा गया है। बच्चों को प्रिय लगने वाले रस पाँच ही हैं-हास्य, वीर, शान्त, अद्भुत, वात्सल्य। श्रृंगार और करूण रसों का बालगीत साहित्य में कोई स्थान नहीं है। विषय के आधार पर व्यापक सृजन हमें बालसाहित्य में मिलता है। मनोरंजन के साथ-साथ शैक्षिक उद्देश्य भी बालगीतों में अन्तर्निहित रहे हैं। कल्पना, मनोभावों का परिष्कार, सद्भावनाओं का विकास, ज्ञानवर्द्धन और प्रेरणा प्रदान करना; बालगीतों के सृजन के शैक्षिक उद्देश्य कहे जा सकते हैं।
’हिन्दी बालगीत साहित्य के इतिहास की भूमिका’ में हिन्दी प्रौढ़ साहित्य की परम्पराओं को लेते हुए इनमें बालसाहित्य सृजन के अंकुरण का लेखा-जोखा है। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल, रीतिकाल, आधुनिक काल को परिप्रेक्ष्य में रखकर बाल साहित्य के सूत्रपात का क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसी क्रम में हिन्दी बालगीत साहित्य का इतिहास है जिसे सेवक जी ने पर्याप्त परिश्रम से लिखा है।लगभग 265 पृष्ठों के अन्तर्गत फैले इस अध्याय में बाल साहित्य के इतिहास को मोटे तौर पर तीन कालखण्डों में बाँटा गया है- स्वतन्त्रता पूर्व काल (सन् 1885 से 1947 तक), स्वातन्त्र्योत्तर बालगीत साहित्य (सन् 1947 से 1982 तक) तथा अद्यतन बालगीत साहित्य (सन् 1982 से 2012 तक)। प्रस्तुत विवरण बाल साहित्यकारों के नाम, उनके संक्षिप्त जीवन परिचय के साथ-साथ उदाहरणस्वरूप एक-दो कविताओं की प्रस्तुति देता है। प्रत्येक कालखंड के बाद उसकी संक्षिप्त प्रवृत्तियाँ और विशिष्टतायें वर्णित की गई हैं। अद्यतन बालगीत साहित्य खण्ड में नवीन प्रवृत्तियों को देखने-समझने का सुअवसर मिलता है। वैज्ञानिकता, उदारीकरण, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद, उत्तरआधुनिकता, नवमानवतावाद जैसे आयामों की उपस्थिति ने आज की कविता को प्रभावित किया है। बालसाहित्य भी इन सबसे अछूता कहाँ रह पाया है। लगभग 800 से अधिक बाल साहित्यकारों का विस्तृत परिचय, उनकी रचना प्रक्रिया,उनका बाल साहित्य में योगदान; ये सब मिलकर इस विवेचन को विशिष्ट बनाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक शोधकार्यों, संकलनों और काव्येतर विधाओं की पुस्तकों की महत्वपूर्ण सूची भी यहाँ है। सेवक जी का पर्याप्त श्रम और धैर्य का सार्थक प्रमाण इसमें मिलता है। बाल साहित्य की भाषा कैसी हो, विभिन्न कवियों की काव्यपंक्तियाँ पढ़कर सहज ही जाना जा सकता है।
’हिन्दी के राष्ट्रीय बालगीत’ में हम राष्ट्रवादी तत्वों के आलोक में लिखी गई कविताओं का मूल्यांकन बाल साहित्य के संदर्भ में देखते हैं। बच्चों के लिये हिन्दी साहित्य में अनेक ऐसी रचनायें है जिनमें देश की अखण्डता-महानता और अस्मिता के अवयवों का अवलोकन किया जा सकता है। बालगीतों की शिक्षा एवं रचना शिक्षा का अपना विशिष्ट महत्व रहा है। बालगीतों को पढ़ाये जाने की तीन प्रणालियाँ हैं- गीत तथा अभिनय प्रणाली, अर्थबोध प्रणाली, व्याख्या प्रणाली। इनके अतिरिक्त भी अन्य अनेक विधियों से बालगीत याद करवाये जा सकते हैं। काव्य की परम्परा लोक की परम्परा ही होती है। सदियों से हमारे समाज में सुख-दुख के अवसरों पर विभिन्न प्रकार की कविताओं-गीतों से, मनःस्थिति का प्रदर्शन करने की परम्परा रही है। बालगीतों में भी कुछ ऐसी ही परम्परायें जीवित रहती हैं। ’लोकगीतों में बालगीत’ के अन्तर्गत विभिन्न भाषाओं के बाल लोकगीतों को सेवक जी सम्मिलित करते हैं। लोरी, झाँझी, टेसू, घड़ल्ला के साथ-साथ पहेलियाँ, मुकरियाँ, कहावतें, ढकोसले भी इनके ही अन्तर्गत आते हैं। गाँव-गाँव में लोकसाहित्य के रूप में बिखरी पड़ी इन बालसाहित्य की थातियों को समेटना- सहेजना दुष्कर काम है। वास्तव में किसी भी साहित्य का मूल खजाना यही लोकतत्त्व होता है। हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के बालगीत साहित्य भी उतने ही मनोरंजक और उपयोगी हैं। इसी के साथ अंग्रेजी के बालगीतों का भी अपना ही विशिष्ट स्थान है। उल्लेखनीय है कि सम्पूर्ण विश्व के बच्चों की भाषा-बोली, रहन-सहन आदि में अंतर हो सकते हैं किन्तु भावनाएँ तो सभी बच्चों में कोमलकांत और माधुर्य भाव की ही बलवती रहती हैं। अनेक प्रसिद्ध अंग्रेजी बालगीतों पर हिंदी के बालगीतों की रचना की गई है। बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम, मराठी, गुजराती, सिन्धी, उर्दू आदि भाषाओं में रचित बालगीतों में मनोरंजन-शिक्षा-लयात्मकता और भावों की एकसमान धार बहती हुई दिखाई देती है। विभिन्न भाषाओं के बाल साहित्यकारों का उपयोगी परिचय सेवक जी करवाते हैं।
वास्तव में लगभग पौने दो सौ वर्षों के बिखरे हुए बाल साहित्य के इतिहास को एक पुस्तक में समेटना कोई आसान बात नहीं है। सन् 1963 तक तो संचार व यातायात के इतने उन्नत साधन भी नहीं थे। फिर बाल साहित्य जैसे विषय, जिसे आज भी थोड़ा दोयम दर्जे का मानने की भूल की जाती है, पर तत्कालीन समय में कलम चलाना और उसे इतिहास तथा समीक्षा का स्वरूप प्रदान करना, अपने आप में एक भागीरथ प्रयास ही कहा जायेगा। स्वयं सेवक जी के ही शब्दों में ’’मैंने हिन्दी साहित्य के कई इतिहास पढे़ पर बाल साहित्य पर किसी में कुछ भी लिखा न मिला। लोकगीतों में अनेक संकलन देखे पर किसी में अलग से कोई बालगीत नहीं मिले। बालगीतों का इतिहास लिखने के लिये मुझे तथ्यों को खोजकर अपना रास्ता स्वयं बनाना पड़ा।’’
बालगीत साहित्य ( इतिहास एवं समीक्षा) कृति अपने आप में एक अनूठा और प्रथम प्रयास ही कहा जाना चाहिए। शोध, चयन, प्रस्तुतिकरण, विश्लेषण, विवेचन और संकलन-इन सब कसौटियों पर प्रस्तुत ग्रंथ पूर्णतया खरा उतरता है। प्रो. उषा यादव ने भी इस ग्रंथ को आधुनिक समय की धारा से जोड़ने में पर्याप्त सफलता पाई है। उनका विचार उल्लेखनीय है,’’सेवक जी के ग्रंथ को अद्यतन करते हुए मेरी यथासम्भव चेष्टा रही कि उनकी मूल संवदेना, स्वर और चिंतनधारा को कहीं खंडित न होने दूँ। समकालीन बालकवियों ने पूरी ईमानदारी से बदलाव के रंगारंग चित्रों को कविता की पटी पर उकेरा है। सामयिकता बोध से जुड़ने के लिए मैंने ऐसे बिंन्दुओं का गम्भीरतापूर्वक संस्पर्श किया है। निश्चय ही इससे पुस्तक का आयाम बढ़ा है।‘‘
बालगीत साहित्य के इतिहास का जब भी ज़िक्र किया जायेगा, निःसंदेह स्मृतिशेष निरंकारदेव सेवक का प्रस्तुत ग्रंथ सम्पूर्ण श्रद्धा और अपरिमित विश्वास के साथ याद किया जायेगा। अपने ऐतिहासिक तथ्यों, मनोवैज्ञानिक आधारों और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों को समेटे हुए यह ग्रंथ अतीत के मधुर रचनात्मक अवदानों को साथ लेकर वर्तमान सृजनात्मकता का मार्ग प्रशस्त करता है तथा भविष्य को सुनहरा और सुरीला बालगीत बनाने का सलोना स्वप्न दिखाता है।
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