Sunday, September 8, 2024
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75 सालों में बदल गई है बीमारी की परिभाषा

लेखक डॉ आलोक चांटिया

अखिल भारतीय अधिकार संगठन

1948 से संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुषांगिक संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन हर वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस मना रहा है और यह आज की वर्तमान वैश्विक परिस्थिति में जानना अत्यंत आवश्यक है कि आपने 1948 के संविधान में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य की जो परिभाषा बीमारी और कमजोरी का अभाव होना ही स्वस्थ होना नहीं है बल्कि मानसिक शारीरिक और सामाजिक आरोग्यता की पूर्णता ही स्वास्थ्य है उस पर विमर्श होना आवश्यक है सिर्फ डॉक्टर और जनसंख्या के बीच का अनुपात दवा वितरण प्रणाली बाजारीकरण में औषधियों का महंगा होना कि केवल स्वास्थ्य का विषय नहीं है बल्कि आज विश्व में वह मानव जो संस्कृति का निर्माता है वह मानव जो अपने को अपनी जटिल मस्तिष्क की विशेषताओं के कारण पशु जगत से अलग खड़ा करता है वह मानव डरा हुआ है वह अपने कल को लेकर उतना ही सशंकित है जितना कि वह विकास के क्रम में इस मानव की उद्विकास पीढ़ी का सबसे पहला मानव ऑस्ट्रेलोपीथिकस रहा होगा भारतीय सुरक्षा संरक्षा को लेकर मानव ने संस्कृति का निर्माण किया वही संस्कृति आज मानव को अस्तित्व के निर्धारण में वहां ले जाकर खड़ा कर चुकी है जहां पर मानव मानव से ही श्रेष्ठता साबित करने में पर्यावरण संतुलन पैदा कर रहा है युद्ध के माध्यम से वायु प्रदूषण की उस सीमा को खड़ा कर रहा है जहां पर सांस लेना दूभर हो रहा है वैज्ञानिक आविष्कारों ने व्यक्ति के अंदर शारीरिक सुख और जैविक शरीर के प्रति लोलुपता को इस कदर बढ़ा दिया है प्रकृति के साथ रहने वाला शरीर विज्ञान के साथ रहकर बहुत अप्राकृतिक हो गया है और देखते देखते वही मानो बीमार रहने लगा है मानसिक आरोग्यता अब एक दिवास्वप्न हो चुका है भूमंडलीकरण से जहां एक तरफ पूरी पृथ्वी एक कमरे में सिमट कर रह गई है वही पूरी पृथ्वी को अपने मुट्ठी में समेट लेने और उसको पूरा न कर पाने के लिए व्यक्ति के दिमाग में जो द्वंद पैदा हुआ है द्वंद ने उसके मस्तिष्क को इतना संक्रमित कर दिया है कि वह हीन भावना से ग्रस्त रहने लगा है अवसाद कुंठा निराशा उसके जीवन का एक बड़ा विषय हो गया है वहां तंजानिया के सेरेंगीति जंगल में रहने वाले उन जानवरों से भी अपने को हीन समझने लगा है जो मौसम बदलने के साथ-साथ अपने आवास स्थल को बदल ले कर अपने जीवन के स्थायित्व को व्यवस्थित करते हैं क्योंकि मानव परिवर्तन के अनुसार अपनी मूल स्थिति और अस्तित्व को बनाए रखने की बात से ज्यादा अब इस बात पर ध्यान देता है कि कितने परिवर्तन भौतिक संस्कृति में उसके चारों तरफ हो रहे हैं वह सभी कुछ उसके मुट्ठी में क्यों नहीं है धर्म के मनोविज्ञान को उसने तर्क के साथ जोड़कर उस अलौकिक शक्ति को भी सिर्फ एक परंपरा का विषय मानकर स्वयं के अस्तित्व को ही सर्वोच्चता प्रदान कर दिया है जिसके कारण मानव ना सिर्फ अकेला हो गया है बल्कि उसका जीवन इकांगी हो गया है जिसका परिणाम मानसिक रुग्णता के रूप में हमारे सामने जिस पर आज बहस की आवश्यकता है

स्वास्थ्य की परिभाषा के दूसरे पायदान पर खड़ा शारीरिक आरोग्यता का विषय इतना गंभीर हो चुका है की भौतिक संस्कृति में आकंठ तक डूबा हुआ मानव अब इस बात को समझने के लिए तैयार नहीं है कि पेड़ों के काटने से पृथ्वी के तापमान बढ़ने से भौतिक संस्कृति की अंधाधुंध स्वीकृति से उसके जैविक शरीर पर क्या असर पड़ रहा है वह इस बात को सुनने के लिए तैयार ही नहीं है कि 20 डिग्री सेंटीग्रेड पर ही यूरिक एसिड शरीर में न रुक कर बाहर निकल जाता है वह वातानुकूलित वातावरण में रहने के लिए इस तापमान की अनियमितता को स्वीकार कर रहा है वह यह समझना ही नहीं चाहता कि हरी सब्जियों में कोलेस्ट्रॉल बिल्कुल नहीं पाया जाता वह जंतु वसा और मांस का प्रयोग इस स्तर पर कर रहा है किन्ना तो उसका हृदय और ना ही उसका लीवर सही काम कर रहा है वह अपने जैविक शरीर से ज्यादा इस बात पर विमर्श करना चाहता है कि सरकार द्वारा डॉ क्यों नहीं दिए जा रहे हैं औषधि वितरण में असंतुलन क्यों है लेकिन वह अपने शरीर को सर्वोच्चता प्रदान करके उन स्थितियों को स्वीकार नहीं करना चाहता है इन को स्वीकार करके वह चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग वाली स्थिति में अपने जैविक शरीर को एक उन्नत स्थिति में रख सकता है

तीसरे और अंतिम तथ्य सामाजिक आरोग्यता के संदर्भ में सबसे बड़ी बहस होनी चाहिए क्योंकि मानव ने संस्कृति बनाकर जिस आदर्श की परिकल्पना करके मानव जीवन में विवाह परिवार नातेदारी राजनीतिक संस्थाएं आर्थिक संस्थाएं धर्म आदि को स्थापित किया था वह सभी मानव जीवन को प्रभावित इस तरह से कर रहे हैं कि उनका जीवन नकारात्मक हुआ जा रहा है जनसंख्या और संसाधनों के बीच उत्पन्न असंतुलन मौद्रिक जीवन आधारित असंतुलन इस स्थिति में पहुंच गया है कि मानव मानव के ऊपर परजीवी के रूप में रहना चाहता है अब वह संबंधों से ज्यादा मौद्रिक संस्कृति पर विश्वास रखता है जिस तरह से संबंधों में बिखराव आया है जिस तरह से विवाह परिवार के प्रति लोगों ने अविश्वास दिखाना शुरू किया है और व्यक्तिगत जीवन को सर्वथा प्रदान करें उसने घर के अंदर और घर के बाहर एक तनाव कलह और अस्तित्व के संघर्ष को इस कदर फैला दिया है कि आदमी घर जाने से भी डरने लगा है और घर के बाहर निकलने में भी डरने लगा है किस मानव ने समाज और संस्कृति बनाकर संबंधों की वह परंपरा बनाई थी जिससे पूरा विश्व का मानव एक दिखाई देता वही मानव आज बम के धमाकों परमाणु बम आतंकवाद आपसी संघर्ष में होने वाली हत्या दुर्घटना विवाह में दहेज यौन उत्पीड़न आदि से इतना भयभीत है कि उससे अपने जीवन में कल सूरज देखने पर विश्वास रहने की क्षमता कम होती जा रही है और यह भी उसके सामाजिक संबंधों के क्षीण होने के कारण हो रहा है जो सामाजिक रुग्णता का सीधा-सीधा प्रहार है आज संस्कृति में संबंधों के विघटन स्थानीय स्तर पर परिवारिक स्तर पर और वैश्विक स्तर पर खत्म होने के कारण मानव फिर में प्रकृति के साथ जंगल में रहने वाले मानव की तरह ही एक अकेलेपन के दौर से गुजर रहा है और यही अकेलापन इस बात को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि मानव बीमार है और इस बीमारी पर भी गंभीरता पूर्वक गहराई से विमर्श की आवश्यकता है और इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी समझना होगा इस सिर्फ डॉक्टरों की लंबी लाइन और दवाओं का वितरण ही स्वास्थ्य नहीं है बल्कि संबंधों के दायरे में मानव कितना खोखला और अकेला होता जा रहा है और उसके कारण जो रुग्णता का संसार बन रहा है उस पर बहस की नितांत आवश्यकता है यही विश्व स्वास्थ्य दिवस की सबसे बड़ी बहस होनी चाहिए (लेखक विगत दो दशक से मानवाधिकार जागरूकता का कार्यक्रम चला रहे हैं)

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