Sunday, September 8, 2024
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यादें : निर्देशकों के लिए सिलेबस हैं ऋषिकेश दा…

दिलीप कुमार

स्तंभकार

सत्यजीत रे को सिनेमा का पूरा संस्थान कहते हैं, तो विमल रॉय को सिनेमा का अध्यापक कहते हैं. वही ऋषिकेश दा को उस विद्यालय का स्टूडेंट कह सकते हैं. सत्यजीत, विमल रॉय, ऋषिकेश दा आदि का सिनेमा की यात्रा अपने आप में मुक्कमल सिलेबस है. फिल्म निर्देशन की दुनिया में गहराई, अध्यापन, सामजिक मूल्यों को दर्शाती फ़िल्मों के निर्देशक ऋषिकेश दा संजीदा अभिनय से हंसी के साथ आंसुओं को मिलाकर मानवीय संवेदनाओं का ऐसा कॉकटेल तैयार करते थे, कि फिल्म देखकर निकल रहे मजबूत दिल वाले दर्शकों की आंखें भी नम हो जाती थी.

ऋषिकेश दा  का अंदाज़ ही दूरदर्शी था, सिनेमाई समझ में बहुत विद्वान थे, फ़िल्मों, स्क्रिप्ट में डूब जाते थे. प्रत्येक फिल्म में जीने की फिलासफी समझा जाते थे. हंसते – हंसाते फ़िल्मों में जीवन की सच्चाई को उजागर करते हुए एक संदेश दे जाते थे. जब बॉलीवुड व्यपारिक फ़िल्में बना रहा था तब ऋषिकेश दा विशुद्ध पारिवारिक फ़िल्मों से सिनेमा ही नहीं समाज को भी एक दिशा दे रहे थे. उनकी सिनेमाई पृष्ठभूमि गांव, जीवन दर्शन की सच्चाईयों पर आधारित थी. ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में कहानी की खास अहमियत होती थी. चमक-दमक से इतर वो सामाजिक द्वंद उसके व्यवहार, दैनिक जीवन को दर्शाते थे.  छोटी-छोटी कहानियों को बड़ा आसमान देते थे.भारतीय सिनेमा ने प्रमुखता से ऐसा  दौर देखा जिसमें हीरो के इर्द-गिर्द कहानी चलती थी. जिस कारण समाज की हकीकत, संवेदना,सामजिक मूल्य उजागर नहीं हो पाते थे. हिन्दी सिनेमा ने सत्तर के बाद से धारा बदलने की कोशिश हुई. मानवीय मूल्यों को बड़े पर्दे पर फिल्माने की शुरुआत हुई. पहले पहल ये काम निर्देशक बासु चटर्जी ने राजेंद्र यादव के उपन्यास ‘सारा आकाश ‘ को फिल्मा कर किया. उसके बाद अनेक सामाजिक पहलुओं को बड़ी संवेदनशीलता के साथ सिनेमाई पर्दे पर जगह मिलनी शुरू हुई.

बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य और ऋषिकेश मुखर्जी  निर्देशकों ने सिनेमा को गढ़ा जिसमें शहर, गांव, कस्बे नज़र आने लगे. वहीं मध्य वर्ग की आकांक्षाओं और समस्याओं को फिल्मी नज़र से देखा गया. ये वो दौर था जब सिनेमा गोल्डन एरा से आगे बढ़ रहा था. देव – राज – दिलीप त्रिमूर्ति की छाया फीकी पड़ती जा रही थी. उसी समय नए-नए निर्देशक तकनीक और सिनेमाई कौशल के सहारे नए प्रयोगों की शुरुआत कर रहे थे.नए प्रयोगों  पर नज़र डालें तो फिल्म एडिटर, पटकथा लेखक और निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी अलग तरह से फिल्मी दुनिया में मुकाम रखते हैं. सत्यजीत रे, विमल रॉय, गुरुदत्त, महबूब खान के बाद वो एक ऐसे निर्देशक थे जिनकी फ़िल्मों में जीने मरने का ढंग, सामजिक मूल्यों को फ़िल्माना ही प्रमुख रहा, यह कला उनके सादगी पूर्ण जीवन का प्रतिनिधित्व करते हुए दर्शाती है.

ऋषिकेश मुखर्जी को एवं उनकी प्रतिभा को निखारने में सही मुकाम तक पहुंचाने में मशहूर निर्देशक विमल रॉय का योगदान है. ऋषिकेश दा ने 1951 में दो बीघा ज़मीन फिल्म में विमल रॉय के सहायक के रूप में जुड़े. विमल दा के साथ जुड़ने के बाद छह साल तक सिनेमाई समझ को विकसित करते हुए बारीकियों को सीखा. 1957 में उन्होंने बतौर फिल्म निर्देशक फिल्म मुसाफ़िर से शुरुआत की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफल नहीं हुईं, लेकिन फिल्म को साराह गया उसको एक कल्ट फिल्म माना गया. मुसाफ़िर फिल्म देखकर ग्रेट शोमैन राजकपूर इतने मुतासिर हुए कि उन्होंने अपनी फिल्म अनाड़ी के निर्देशन का जिम्मा ऋषिकेश मुखर्जी को सौंप दिया. अनाड़ी ब्लॉक बस्टर हुई ऋषिकेश मुखर्जी इस फिल्म से पूरी तरह स्थापित हो चुके थे. इस फिल्म के बाद राजकपूर – ऋषिकेश मुखर्जी परस्पर दोस्त बन चुके थे. एक – दूसरे के साथ बैठते बातेँ करते मुखर्जी ग्रेट राजकपूर को राजू कहकर संबोधित करते, वहीँ मुखर्जी उनको बाबू मोशाय कहकर संबोधित करते.

राजकपूर को ध्यान में रखते हुए 1957 में ऋषिकेश दा को एक फिल्म बनाने का विचार आया “आनन्द” उन्होंने कई बार राजकपूर से जिक्र किया. राजकपूर तब बहुत व्यस्त होते थे, तो फिल्म पर काम शुरू नहीं हो सका. अंततः मुखर्जी ने स्क्रिप्ट ठंडे बस्ते में डाल दिया. सालों बाद राजकपूर बीमार हुए हस्पताल में भर्ती थे. ऋषिकेश उनसे मिलने पहुंचे उन्होंने राजकपूर की हालत को देखकर लगा शायद राजू नहीं बचेगा, मिलकर घर लौटे तो आनन्द स्क्रिप्ट फिर से दिमाग में घूमने लगी. अवचेतन मन भी ऐसे ही होता है, उन्होंने पूरी बात राजकपूर को याद दिलाई राजकपूर स्वस्थ्य हो गए, हालाकि राजकपूर अब तक बुजुर्ग हो चुके थे. हीरो के रूप में फिट नहीं होते तो मुखर्जी ने शशि कपूर से सम्पर्क किया वो बहुत व्यस्त थे, समय नहीं मिल सका. बंगाली सुपरस्टार उत्तम कुमार ने भी मना कर दिया, कि इसमे नायक की मृत्य हो जाती है. अंततः मुखर्जी को लगा शायद फिल्म नहीं बनेगी, अभिनेता और गायक ‘किशोर कुमार’ और ‘महमूद ‘ पर। फिल्म में कैंसर के विशेषज्ञ डॉक्टर भास्कर बैनर्जी यानि बाबू मोशाय का किरदार महमूद द्वारा निभाया जाना था. महमूद तैयार भी हो गये उन्होंने ऋषि दा से कहा की ”पहले किशोर से बात कर लीजिए ” फिर इस फिल्म के लिए ऋषिकेश जी किशोर कुमार के पास गए, बात पक्की हुयी, पर कुछ ऐसा हुआ की शूटिंग शुरू करने के कुछ ही दिन पहले किशोर कुमार को ऋषिकेश दा ने फिल्म से ‘आंनद ‘से निकाल दिया.

किशोर कुमार को ‘आनंद’ फिल्म से निकाले जाने की इस घटना के पीछे का कारण काफी दिलचस्प है. उस वक्त किशोर कुमार एक बंगाली फिल्म निर्माता के साथ कई स्टेज शो कर रहे थे,लेकिन पैसो को लेकर कुछ अनबन हो गई तिलमिलाए और गुस्सा हुए किशोर घर लौटे और उन्होंने अपने बंगले के गार्ड को बड़े सख़्त लहज़े में साफ़ साफ़ कह दिया. ”खबरदार, उस बंगाली फिल्म निर्माता को मेरे घर के अंदर कभी मत आने देना. ” अब वो बात अलग है की किशोर खुद भी बंगाली ही थे, वो मूडी किस्म के इंसान थे. जब ऋषिकेश मुखर्जी किशोर कुमार के घर अपनी फिल्म ‘आनंद’ के बारे में कुछ चर्चा करने पहुंचे, जैसे ही उन्होंने एक फिल्म निर्माता के रूप में अपना परिचय किशोर दा के बंगले के गार्ड को दिया. गार्ड को गलतफहमी हो गई जब गार्ड को पता चला की वो एक फिल्म निर्माता है और बंगाली भी तो उन्होंने अपने मालिक के हुक्म अनुसार बंगले के अंदर आने से मना कर दिया.साथ में यह भी कह दिया की ये हुक्म इनके मालिक किशोर कुमार का है,ऋषिकेश काफी गुस्सा हुए इस घटना से मुखर्जी बेहद आहत हुए उन्होंने किशोर कुमार के साथ काम नहीं करने और ‘आनंद ‘फिल्म को किशोर कुमार के बिना बनाने का फैसला कर लिया. नतीजतन, महमूद को भी फिल्म छोड़नी पड़ी और इस तरह गार्ड की गलती के वजह से किशोर कुमार के हाथ से ये फिल्म निकल गयी.

राजेश खन्ना उस समय सबसे ज्यादा व्यस्त रहने वाले बहुत बड़े सुपरस्टार थे, बहरहाल उनको पता चला कि ऋषिकेश दा आनन्द फिल्म बनाना चाहते हैं, वो खुद पहुंच गए कि मैं काम करूंगा. मुखर्जी ने राजेश खन्ना को फिल्म दे दिया. ऋषिकेश मुखर्जी के बहुत करीबी थे, धर्मेद्र उनको पता चला कि अपनी ड्रीम फिल्म में वो राजेश खन्ना को ले रहे हैं तो उन्होंने बात किया अपितु बात नहीं बनी. ऋषिकेश दा उसूल वाले थे. फिल्म की शूटिंग शुरू हुई राजेश खन्ना लेट आते थे. ऋषिकेश मुखर्जी वक़्त के बहुत पाबंद एक दिन गुस्से में पैक अप करवा दिया, कि अब यह फिल्म नहीं बनेगी. राजेश खन्ना कई बार ऋषिकेश मुखर्जी के सामने गलती मानकर गिड़गिड़ाते रहे, तो ऋषिकेश मुखर्जी ने शूटिंग शुरू कर दिया. आनन्द फिल्म 28 दोनों में बनकर पर्दे पर रिलीज होने के लिए तैयार थी.

आनंद के किरदार में उन्होंने कुछ इस तरह उस मृत आत्मा में प्राण डाले कि दर्शक सिनेमा हाल से जैसे जीवन दर्शन समझ कर बाहर निकले कि ‘जिंदगी बड़ी होनी चाहिए बाबू मोशाय, लंबी नहीं! ‘कैंसर से जूझता वो नायक आनंद जिसके सामने मौत खड़ी है, लेकिन वो कहकहे लगाता है, और मौत का मजाक बनाता हुआ, अपने आसपास के लोगों को जीने का ढंग सिखा जाता है. आनंद वो नायक था जो खुद पूरी फिल्म में हंसता है लेकिन दर्शक अपने आंसू रोक नहीं पाते. मशहूर फिल्ममेकर फ्रांक कापरा ने कहा था कि असली ट्रेजेडी वो नहीं होती जब एक्टर रोता है, ट्रेजेडी वो होती है जब दर्शक रोते हैं। आनंद पर ये कथन पूरी तरह सच साबित हुआ। ऋषि दा संवेदनशीलता और भावनाओं के संगम को जिस तरह से अपनी फिल्मों में दिखाते थे वो फिल्म आनंद में अपने चरम पर पहुंच गई.

चुपके – चुपके, सत्यकाम, आन्नद, गुड्डी, अनाड़ी, मिली, ज़िन्दगी, बावर्ची, नमक हराम,अभिमान, गोलमाल, अनुपमा, आदि कालजयी फ़िल्मों से हिंदी सिनेमा को एक दिशा दी. आज भी ऋषिकेश मुखर्जी प्रासंगिक हैं. उनकी फ़िल्मों में बड़े – बड़े सुपरस्टार ड्राईवर, बावर्ची आदि बनने के लिए तैयार रहते थे. उनकी फ़िल्मों में देवन बर्मा, असरानी, आदि कलाकार भी अपना असर छोड़ जाते थे. कुलमिलाकर देखा जाए तो ऋषिकेश मुखर्जी की सिनेमाई यात्रा को समझा जाए तो आज के दौर में निर्देशकों के लिए पूरा सिलेबस हैं.

ऋषिकेश दा का फिल्मी सफर जारी रहेगा…..

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