लेखक : दिलीप कुमार पाठक
कुछ ऐक्टर होते हैं, जिनको पर्दे पर देखना सिर्फ़ अच्छा लगता है, उनकी मौजूदगी फिल्म को खास बना देती है. कई फ़िल्मों में ख़ास स्टोरी नहीं होती, फिर भी कुछ अदाकार अपनी वर्सेटैलटी से फिल्म के कथानक को रोचक बना देते हैं.. ऐसे ही नवाजुद्दीन सिद्दीकी (नवाज़) हैं, जो अपनी मौजदूगी से ही फिल्म को यादगार बना देते हैं. आज गिरते हुए अदाकारी के दौर में नवाज गिने-चुने अभिनेताओं में शुमार हैं, जिन्होंने अदाकारी की आबरू बचा रखी है. नवाज का फिल्म में होना मतलब स्टोरी बढ़िया होगी. नवाज आज सबसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी अदाकार हैं. उनकी सबसे बेहतरीन अदाकारी माउंटेन मैन मांझी में देखने को मिलती है. यह फिल्म रियल स्टोरी पर बनाई गई है. देखकर लगता ही नहीं किसी भी एंगल से कि नवाज हीरो हैं. फ़िल्मों में बायोपिक के सबसे बड़े उस्ताद नवाज ही हैं, फिर चाहे बाला साहब ठाकरे की बायोपिक हो या मशहूर लेखक, कहानीकार मंटो का किरदार हो, किसी भी रोल में नवाज का कालजयी अभिनय देखा जा सकता है. मंटो जैसी शख्सियत पर आज के व्यपारिक दौर में फिल्म बनाना अपने आप में बहुत बड़ा रिस्क है, कौन लेगा? वहीँ ऐसे कठिन किरदारों को निभाने के लिए बड़े से बड़े हीरो तैयार नहीं होते. वहीँ नवाज़ जैसे हीरो अच्छी कहानी के लिए तैयार रहते हैं. नंदिता दास जैसी फ़िल्मकार मंटो जैसे किरदारों पर फिल्म इसलिए बना पाई, क्योंकि हीरो नवाज थे. नवाज़ अच्छी कहानी के कितने भूखे हैं, इस बात से ही पता चलता है कि उन्होंने फ़िल्मकार नंदिता दास से बतौर ऐक्टर एक रुपये मेहनताना लिया था…
ख़ासकर 2015 में बजरंगी भाईजान में पाकिस्तानी पत्रकार चाँद नवाब की भूमिका में तो क्या ही कहने! देखा जाए तो नवाज न देखने में हीरो लगते हैं, न आवाज़ ही आकर्षक है, फिर क्या है जो नवाज़ को छोटे से गांव की गलियों से चौकीदारी नौकरी से हिन्दी सिनेमा के किंवदंतियों में खुद को शुमार करा दिया. जाहिर है कि अपने जुनून को पूरा करने के लिए समर्पण रहा होगा . नवाज फ़िल्मों में वही करते हैं जो रोल होता है. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में लुंगीबाज फैजल ने तो फिल्म में बड़े-बड़े दिग्गजों के बाद भी पूरी फिल्म तालियां समेट ले गए थे. साल 2012 में आई विद्या बालन की फिल्म ‘कहानी’ बहुत कम लोगों ने देखी होगी, जिसने भी देखी होगी, उसके तेज तर्रार पुलिस ऑफिसर खान (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) तो याद ही होंगे. नवाज़ की ऐक्टिंग का एक क्लास है, जो केवल और केवल वे ही कर सकते हैं . 2017 में आई श्री देवी की फिल्म मॉम फिल्म में उनका निभाया गया किरदार बहुत उम्दा था. नवाज़ को अधिकांश साधारण रोल ही मिले, जो बाद में उनकी अदाकारी से खास बन गए.
आज भी फिल्म में कमियां निकाली जा सकती हैं. माउंटेन मैन मांझी फिल्म 2015 में आई. दशरथ मांझी बनकर पर्दे पर नवाज ने समाज को प्रेरणा भी दी… इसी फिल्म में एक सीन है दशरथ मांझी (नवाज) ट्रेन से दिल्ली जाने की कोशिश करते हैं, लेकिन टिकिट न होने के कारण ट्रेन से फेंक दिया जाता है. अपनी धुन के पक्के दशरथ मांझी (नवाज) ट्रेन की पटरी के किनारे – किनारे दिल्ली जाते हैं. जाते हुए कहीं थकान उतारने के लिए आराम करने लगते हैं, उन्हें पता नहीं चला उनकी पीठ पर वहीँ पड़ा एक दिल्ली चलो पोस्टर चिपक जाता है. अब दशरथ मांझी (नवाज) जहां जहां से गुजरते हैं, लोग उनके पीछे – पीछे दिल्ली चलो दिल्ली चलो के नारा लगाते हुए चल पड़ते हैं. नवाज दिल्ली पहुँच जाते हैं, संसद घेराव कर देते हैं, उनको पता भी नहीं होता यह भीड़ क्या कर रही हैं, क्यों कर रही है. उन्हें तो सिर्फ़ पीएम इंदिरा गांधी जी से मिलना था… बाद में किसी पुलिस वाले ने पूछा बाबा संसद घेराव क्यों कर रहे हो? दशरथ मांझी (नवाज) कहते हैं ‘इंदिरा जी से मिलना हैं’. पुलिस वाले समझ जाते हैं.. मिलवाने का आश्वासन देकर बिहार जाने वाली ट्रेन पर सवार कर देते हैं. दशरथ मांझी (नवाज) को लगता है इन्दिरा जी मदद नहीं करेंगी! खुद ही पहाड़ तोड़ना होगा. अपनी पत्नी की याद में दशरथ मांझी (नवाज) अपनी ज़िन्दगी के आधे से ज्यादा पहाड़ तोड़ने में ही बिताते हैं. एक डायलॉग तो काफ़ी लोकप्रिय हुआ “जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं”, छोटे कद काठी के नवाज़ पहाड़ तोड़ सकते हैं, दर्शकों को यकीन हो गया था. यह भूमिका केवल नवाज ही कर सकते थे. मांझी फिल्म नवाज की महान अदाकारी की गवाही देती है.
नवाज के एक – एक किरदार को देखने का अपना मजा है. वो ऐक्टिंग नहीं करते, बस उस किरदार को जीने लगते हैं. उनकी इस सफ़लता के पीछे मेहनत की पराकाष्ठा है. आज भी आम तौर पर माना जाता है कि हीरो लम्बे – चौड़े गोरे रंग के होते हैं. ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर के बाद तो ये भी तय हो गया है, कि हीरो गुड लुकिंग न हो तो आवाज़ ही भारी हो . नवाज की तो आवाज़ भी भारी नहीं है, फिर भी उनकी अदाकारी तो भारी है. हिन्दी सिनेमा में नवाज़ जैसे अदाकार को शुरू में खुद को साबित करने के लिए ज्यादा मेहनत करना पड़ा. बेहद कम संसाधन में बड़े हुए बच्चे हर मौसम की मार खाने के बाद ज़िन्दगी जीने का सलीका सीख ही जाते है. कहते हैं दुःख में सृजनशीलता निखर कर आती है. नवाज शुरुआत की फ़िल्मों में वेटर, नौकर, आदि रोल करते थे. ये सब रोल शुरुआत में इस लिए भी कर लेते थे, कि उन्होंने इस ज़िंदगी को खुद ही जिया है, तो इसमे अभिनय करने जैसी बात नहीं है.
अभिनय को भी सीखा जा सकता है, अगर अच्छे अध्यापकों का मार्गदर्शन मिले. आखिरकार अभिनय भी तो विधा है. संघर्ष के दिनों में नवाज दिल्ली में NSD दिल्ली से जुड़े, आम तौर पर देखा जाए तो NSD में पढ़े – लिखे अदाकार अपने संवाद, साहित्यक समझ, अदाकारी के लिहाज से सबसे उम्दा होते है. नवाज भी गिने – चुने अदाकार में शुमार हैं, जिन्होंने थिएटर, एवं सिल्वर स्क्रीन को भरपूर जिया है. नवाज NSD से अभिनय की बारीकियों को सीखकर मुम्बई का रुख कर गए. मुंबई बहुत ही विचित्र शहर है, वो किसी को कभी स्वीकार करता ही नहीं है. नवाज मुंबई की ख़ाक छान रहे थे.. शक्ल ऐसी की सिनेमा के लिहाज से शापित… शक्ल देखकर ही भगा दिया जाता. रंगभेद, नस्लवाद हमारे समाज में आज भी व्याप्त है. किसी को नस्लीय टिप्पणी करते हुए दुत्कारा जाए तो उस पर क्या गुजरती है, उस पीड़ा को केवल वो ही महसूस कर सकता है. दरअसल हम एक बेशर्म समाज में रहते हैं, रंग, रूप से प्रतिभा का चयन करते हैं. नवाज आज अपनी प्रतिभा, जिद, समर्पण से हिन्दी सिनेमा के सारे रंग – रूप के मानकों को ध्वस्त कर चुके हैं, लेकिन उन्होंने कितना अपमान सहा होगा. इसी लिए तो कहते हैं जितना ज्यादा संघर्ष उतनी बड़ी सफलता!
नवाज़ कहते हैं- “बॉलीवुड में केवल नस्लवाद है, रंगभेद है, यह कहकर हम अपने अन्दर बैठे असंवेदनशील इंसान को छुपा नहीं सकते. हम सभी ऐसे ही होते हैं. दूसरों को ज्ञान देते हैं, लेकिन अपने अंदर झांका ही नहीं जाता. जिस दिन अपने अंदर झांकने लगेंगे, उस दिन समाज खुद सुधर जाएगा. सिनेमा समाज की कहानियों को उठा कर फ़िल्में बनाता है. समाज ने सिनेमा को बनाया है, सिनेमा ने समाज को नहीं बनाया. हम में से अधिकांश लोग आज भी अदाकारा की स्किन का रंग देखकर फ़िल्में देखने जाते हैं, कहानी, कन्टेन्ट से कोई मतलब नहीं है. इसका मतलब यह नहीं है कि केवल सिनेमा ही खराब है, समाज ठीक है. सिनेमा समाज का आईना होता है जो देखता है पेश कर देता है”. नवाज़ का यह दर्द, एवं उनकी ज़िन्दगी का अनुभव हर कोई कभी न कभी महसूस करता है, लेकिन जो सुधर जाए वो समाज कैसा! मुंबई में ख़ाक छान रहे नवाज़ को आखिरकार मौका मिला.
साल 1999 में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने पहली बार ‘सरफोरश’ फिल्म के लिए कैमरा फेस किया था. यह आमिर खान की फिल्म थी, जिसमें नवाजुद्दीन ने क्रिमिनल का रोल किया था. फिल्म में नवाजुद्दीन का रोल तो छोटा सा था, लेकिन कुछ मिनटों की झलक में भी कमाल की एक्टिंग करते हैं .खुद को मोटिवेशन ज़रूर दिलाया होगा . हालाँकि हमने भी कभी गौर नहीं किया. बहुत बाद में पता चला यह छोटे से रोल में नवाज थे. बाद में उन्होंने उसी साल 1999 में आई फिल्म शूल, में मनोज वाजपेयी का ऑर्डर लेने वाले वेटर का किरदार किया था. 2003 में आई हिन्दी सिनेमा की कल्ट फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस में नवाज़ को मिला छोटा सा रोल सुनील दत्त के साथ उनकी मुलाकात उन्हें वैचारिक रूप से संजीवनी का काम कर गई. नवाज़ कहते हैं – “दत्त साहब के साथ बिताया गया वक़्त याद है वो बहुत समझाते थे, और सेट पर मुझे उन्होंने कोकाकोला पिलाया था. मुझे लगता है उनकी आत्मीयता एवं उनके द्वारा पिलाया गया कोकाकोला मेरे लिए संजीवनी का काम कर गया”. सन 2013 में आई फ़िल्म लंच बॉक्स में अभिनय उस्ताद के इरफ़ान साथ उनकी संवाद अदायगी अदाकारी अपने आप में यादगार है. यह फिल्म सदियों तक याद रहेगी. जीनियस निर्देशक अनुराग कश्यप की साल 2012 में आई गैंग्स ऑफ वासेपुर’ सीरीज से उनकी किस्मत ही बदल गई. लुंगीबाज स्थानीय माफिया फैजल के रोल में नवाज ने ऐक्टिंग के मायने ही बदल कर रख दिया था. नवाज़ एक संवाद बोलते हैं “ए गाड़ी निकाल बाप का दादा का भाई का चाचा का सबका बदला लेगा रे अपना फैजल” यूँ तो नवाज़ औसतन शरीर के मालिक हैं, लेकिन वॊ जिस आत्मविश्वास से बोलते हैं तो दर्शकों को लगता है यह आदमी बदला ज़रूर लेगा. यही तो अभिनय है, जो विश्वास पैदा करे. आम तौर पर मैं गाली – गलौज वाली फ़िल्में देखता भी नहीं हूं, लेकिन नवाज़ की ऐक्टिंग का मैं दीवाना हूं. यही दीवानगी मुझे खींच ले गई थी. फिल्म में बड़े से बड़े अभिनय के धुरंधर थे, लेकिन नवाज़ की ऐक्टिंग का कोई सानी नहीं है. अब मैं भी उसी दर्शक वर्ग का है हिस्सा हूं, जो गैंग्स ऑफ वासेपुर3 का इंतज़ार कर रहा है.
एक से बढ़कर एक यादगार रोल करने वाले नवाज़ की भूख बढ़ती जा रही है. नवाज ने अपनी भूख के बारे में कहा – “हिन्दी सिनेमा में लीड रोल और साइड रोल से फर्क पड़ता है. यूरोप या हॉलीवुड में ये चीज़ मैटर नहीं करती. किरदार महत्वपूर्ण होना चाहिए. मगर यहां, सपोर्टिंग एक्टर्स को सेकंड्री बना दिया जाता है. मैंने इस मिथ को तोड़ने की भरपूर कोशिश की है, लेकिन पूरी तरह से बदल नहीं सका. मैं वो दोहराना नहीं चाहता. मैं लीड रोल्स ही करूंगा, चाहे मुझे उस फिल्म में खुद पैसा क्यों न लगाना पड़े.” वो अपनी बात को समझाते हुए कहते हैं- ”जैसे मैंने ‘रईस’ की थी. मेरा कैरेक्टर शाहरुख खान के अपोज़िट, लेकिन ज़रूरी था. मैंने ‘हीरोपंती 2’ की. भले वो नहीं चली. मगर मेरा कैरेक्टर वहां बड़ा और ज़रूरी था. वो बड़ी फिल्म में ब्लिंक एंड मिस जैसा रोल नहीं था. अगर मैं बड़ी फिल्मों की तरफ जाता हूं, तो मुझे वैसे ही रोल्स की तलाश होगी.”
अब तो नवाज़ ने दर्शकों – समीक्षकों की ऐसी ऐसी परीक्षा पास कर ली है, कि अब अभिनय सीख रहे बच्चे नवाज़ को अपना आदर्श मानते हैं. अपने छोटे से सिनेमाई सफ़र से नवाज अभिनय के किंवदन्ती बन गए हैं. नवाज़ हिन्दी सिनेमा की एक सबसे बड़ी कमज़ोरी पर भी प्रकाश डालते हुए कहते हैं, जिस पर सिनेमा के लोगों ने ध्यान नहीं दिया, तो फ़िल्मों का यही हाल होगा. देखा जाए तो संवाद फ़िल्मों का सबसे प्रमुख होता है. यह बात शायद ही हम में से किसी को पता रही हो, जो उन्होंने कहा, नवाज ने कहा- “हमारी फिल्म इंडस्ट्री में संवाद रोमन लिपि में लिखकर कलाकारों को दिया जाता है. कोई भी अदाकार हर भाषा नहीं जानता. अब कोई अभिनेता हिन्दी में सोचे उसे संवाद अंग्रेजी में मिलें, अब अँग्रेजी में पढ़ना पड़े, हिन्दी में बोलना पड़े तो संवाद में वो गहराई नहीं आती. हिन्दी सिनेमा नाम का हिन्दी सिनेमा है, पूरी कार्यप्रणाली इंग्लिश में होती है, बस संवाद हिन्दी में होते हैं… खूब बड़ा बजट होता है, अदाकार खूब अंग्रजी बोलते हैं, लेकिन उनसे पूछा जाना चाहिए कि बेहतर संवाद, अदाकारी कहाँ है?? नवाज़ को इस परिप्रेक्ष्य में पक्ष रखने के बाद सिनेमा के विद्वानों को अपनी कमियों पर ध्यान देना चाहिए. आम तौर पर यही सबसे बड़ी त्रुटि रही है. यह बात 2000 के दशक तक तो ठीक थी, अब बहुत बड़ी कमजोरी बन चुकी है. आज नायाब अभिनेता नवाज़ का जन्मदिन है. उनकी अदाकारी का क्लास समझा जा सकता है. मंटो एवं बाला साहब ठाकरे दोनों बहुत ही मुख्तलिफ शख्सियतें रहीं है, एक उत्तरी ध्रुव तो दूसरे दक्षिणी ध्रुव. वहीँ नवाज़ भी तो बहुत ही मुख्तलिफ अदाकार हैं. दोनों किरदारों को क्या खूब निभाया था. दोनों फ़िल्मों की शूटिंग भी एक ही समय साल 2015 के लगभग चल रही थी. नवाज़ आज उन चुनिंदा अभिनेताओं में शुमार हैं, जिन्होंने सिनेमा एवं अदाकारी के गिरते हुए स्तर के दौर में अदाकारी की आबरू बचा रखी है. मेन स्टीम सिनेमा आज संघर्ष कर रहा है, वहीँ आज नवाज़ जैसे अदाकार एक उम्मीद जागते है, कि सिनेमा अपने अदाकारी के मूल्यों के लिहाज से बचा रहेगा. नायाब अदाकार नवाजुद्दीन सिद्दीकी के जन्मदिन पर मेरा सलाम…