Tuesday, December 3, 2024
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सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है

लेखक : दिलीप कुमार

आजकल एनिमल फ़िल्म चर्चा का विषय बनी हुई है. बनना भी चाहिए, क्योंकि हिन्दी सिनेमा की दूसरी सबसे कामयाब फ़िल्म बन गई है. मैं रणबीर का बहुत बड़ा प्रसंशक हूं, फिर भी एनिमल फ़िल्म मैं झेल नहीं पाया, और फ़िल्म आधी छोड़कर ही चला आया. मुझे तो विचित्र नहीं लगा, और भारी मन से इस बात को स्वीकार करता हूँ, क्योंकि मैं फ़िल्म देखने से पहले कहानी, निर्देशक, ऐक्टर सबकुछ समझने के बाद अपने तीन घण्टे खर्च करता हूँ…. मैं जानता हूं एक फिल्म बनने में कई परिवारों के लोगों की मेहनत शामिल होती है, इसलिए फिल्म न देखने का आव्हान मैं कभी नहीं कर पाता, अतः लिख देता हूं फिल्म मुझे पसंद नहीं आई, हालांकि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, हो सकता है आपको पसंद आए.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, हर कोई अपने विचार रख सकता है. हमारे विचार ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचते, लेकिन जावेद अख्तर साहब जैसे नामचीन हस्तियों का बोलना मतलब पूरे समाज़ में उनका भाषण असर करता है. जावेद अख्तर साहब ने कहा – “एनिमल फिल्म में नायक – नायिका को मारता है, और कहता है मेरे जूते चाटो’ ग़र ऐसी फ़िल्में ब्लॉकबस्टर हो रहीं हैं तो यह समाज के लिए बहुत ख़तरनाक बात है”. यह सुनकर एनिमल फिल्म के रायटर संदीप रेड्डी वांगा ने जावेद अख्तर साहब की रायटिंग स्किल पर ही सवाल उठा दिया, जो न काबिले बरदाश्त है. आप अपनी बात रख सकते थे, कोई प्रश्न कर सकते थे, जावेद अख्तर साहब सम्मानित इंसान हैं, वो खुद बड़ी विनम्रता पूर्वक जवाब देते, मुझे संदीप का जवाब अभद्र लगा हमें अपने से बड़ों के प्रति ऐसे कटुता के शब्द नहीं बोलने चाहिए.

मैं जावेद अख्तर साहब से पूर्णतः सहमत हूँ, ऐसी फ़िल्में समाज के लिए हानिकारक हैं, लेकिन मेरा एक छोटा सवाल यह भी है ‘जैसा कि मैंने पहले बोला कि मेरी पसंद सार्वभौमिक सत्य नहीं है, और न ही जावेद अख्तर साहब की फ़िर भी वो कौन से लोग हैं जिन्होंने एनिमल फिल्म को’ ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर’ बना दिया? सवाल तो करना पड़ेगा. मैं जवाब देना चाहता हूं, वो इसलिए कि’ सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है’. जी हां यह बात मैं बड़ी जिम्मेदारी से कह रहा हूं.

जब हिन्दी सिनेमा में अमर प्रेम, आराधना, गोलमाल, चुपके – चुपके जैसी शुद्ध पारिवारिक फ़िल्में बन रहीं थीं, दूसरी ओर पार, बाज़ार, चश्मे बद्दूर, अर्धसत्य, सद्गति, स्पर्श, मासूम, आक्रोश जैसी कला फ़िल्में बन रहीं थीं, तब कौन से लोग थे, जिन्होंने डॉन, दीवार, ज़ंजीर जैसी फ़िल्में इन फ़िल्मों को ख़ारिज करते हुए नई धारा की फ़िल्में चलने लगी थीं… जावेद अख्तर साहब सलीम साहब ने हिन्दी सिनेमा की दुनिया ही बदल डाली थी… मैं अपनी कोई हैसियत नहीं समझता कि जावेद साहब से सवाल कर सकूं फिर भी अभिव्यक्त की स्वतंत्रता है तो पूछना चाहूँगा ‘आदरणीय जावेद अख्तर साहब मेरी गुस्ताख़ी मुआफ कीजिएगा,  डॉन, दीवार, ज़ंजीर, शराबी फ़िल्मों से क्या सीख मिलती है? समाज़ क्या सीखेगा?? आप दार्शनिक इंसान हैं आप बेहतर समझा सकते हैं, फिर भी मेरे शब्दों से कोई ठेस पहुंची हो तो आप मेरे बड़े हैं, मैं आपका छोटा हूं मुझे मुआफ कर दीजिएगा, क्योंकि आप मेरे अपने हैं.

चूंकि आप तक मेरे सवाल नहीं पहुंच पाएंगे.फिर भी मुझे अपने सवालों के जवाब तो चाहिए थे, फिर मैंने खुद को समझाया कि फ़िल्में सिर्फ मनोरंजक उद्देश्य से देखी जानी चाहिए.ज्यादा भावुकतापूर्ण उद्देश्य से फ़िल्मों को देखना हानिकारक हो सकता है. समाज फ़िल्मों से प्रभावित होता है, फिर भी, हिन्दी सिनेमा की अधिकांश फ़िल्मों में कानून की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं, समाज में अपराधीकरण का प्रमुख कारण यह हो सकता है, शाहरुख खान की डर, बाजीगर, अंजाम फ़िल्म देखकर तब के युवाओं ने सिर्फ़ और सिर्फ़ ल़डकियों को परेशान करना सीखा होगा… अजय देवगन की संग्राम फिल्म को देखकर तब के युवाओं ने लड़की को अपने जूते पर नाक रगड़ना ही सीखा होगा… अन्यथा ऐसी फ़िल्में देखकर सीख क्या मिलेगी??  हिन्दी फ़िल्मों में अधिकांश फ़िल्मों में लड़कियों, महिलाओं की बेज्जती ही की जाती रही है, एक फ़िल्म है, रानी मुखर्जी एक ऐसी लड़की का किरदार करती हैं, जिसमें उस लड़की किरदार का बलात्कार हो जाता है, वही लड़की अदालत के जरिए उस रेपिस्ट से पत्नी का हक मांगती है, बताइए कितनी दुःखित बात है.. 90 के दशक में अधिकांश फ़िल्मों में नायिका नायक के पीछे भागती हुई बार – बार बेज्जत करती हुई दिखाई देती है… क्या असल में ऐसे होता है??

अमिताभ बच्चन की शराबी फिल्म के बाद न जाने कितने युवाओं ने शराब पीना शुरू किया होगा. आज फ़िल्मों के पोस्टर ऐक्टर के हाथ में सिगरेट के बिना बनते ही नहीं है.  युवाओं को इससे क्या सीख मिलेगी?? अंततः मैंने खुद को समझाया कि फ़िल्मों को मनोरंजक उद्देश्य से देखना चाहिए, जो बात सीखने लायक हो सीख लो अन्यथा बुरे विसंगति वाले लोगों से हम घिरे रहते हैं, हम यहां से भी सीख सकते हैं. जिसे बुरी आदतें सीखना होता है सीखता ही है, उसे कोई रोक नहीं सकता, लेकिन युवाओं का मन ब्रेनवॉश तो होता ही है. आज के जो बुजुर्ग हैं, वो शराबी, डॉन, जैसी फ़िल्में बड़ी चाव से देखते थे, आज उन्हें एनिमल बर्दाश्त नहीं हो रही, आज के युवा जो एनिमल बड़े चाव से देख रहे हैं, भविष्य में उन्हें आने वाली फ़िल्में बर्दाश्त नहीं होंगी. क्योंकि समय समय पर सिनेमा बदलता है, और लोगों की रुचि बदलती है. पहले पारिवारिक, संजीदा, सामाजिक, थ्रिलर, सस्पेंस फ़िल्में बन रहीं थीं, फिर एक विधा आई एक्शन… एडल्ट फ़िल्मों की भी भरमार है, जिनमे नग्नता होती है, उसमे लिखा होता है, यह फिल्म फलाने वर्ग के लिए है. हमें उदारवादी होना पड़ेगा, अब समाज बदल रहा है..हमेशा बदलता रहा है, मैं एनिमल फिल्म को वाहियात श्रेणी में रखते हुए भी यही कहना चाहता हूं, कि आप को जो फिल्म पसन्द आए तो देखिए अन्यथा छोड़ दीजिए, और अपनी पसंद की फ़िल्मों का इंतज़ार कीजिए, अब तो ढेर सारे ऑप्शन हैं… वहीँ संदीप रेड्डी ने जावेद अख्तर साहब को जो बोला है, उसमे भी हैरां नहीं हूं, क्योंकि अब बडों की इज्ज़त न करने का रिवाज़ भी ट्रेंड में है… हम सब को ग़र अपने जीवन को कुढ़ते हुए नहीं बिताना तो उदारवादी बनना पड़ेगा, क्योंकि समाज चल पड़ता है, हम पीछे छूट जाते हैं.. क्योंकि ‘सिनेप्रेमी युवाओं का ढंग हमेशा ही विपरीत रहा है’.

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