दिलीप कुमार
लेखक
हिन्दी सिनेमा का पहला हीरो, यूँ कहें सिल्वर स्क्रीन का पहला सुपरस्टार, हिन्दी सिनेमा में सभी के दादा मुनि ‘कुमुद कुमार गांगुली’ अशोक कुमार का जिक्र आते ही, जेहन में आता है, सिल्वर स्क्रीन का वो दौर जब भारतीय सिनेमा में हीरो जैसा कुछ होता नहीं था. अब तक भारतीय सिनेमा घुटनों के बल भी नहीं चल पा रहा था. अशोक कुमार के पिता कुंजलाल गांगुली वकील थे. वो अशोक कुमार को वकील ही बनता देखना चाहते थे. नियति उनको हिन्दी सिनेमा का दादा मुनि बनाना चाहती थी. अशोक कुमार ने अपनी शिक्षा एमपी के खंडवा से प्राप्त करने के बाद अपनी स्नातक शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूर्ण की. इस दौरान उनकी मित्रता भारतीय फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी से हो गई. अपने भाई बहनो में सबसे बड़े अशोक कुमार की बचपन से ही फ़िल्मों के निर्माण में रुचि थी. अच्छी फ़िल्मों का निर्माण करना चाहते थे. महात्वाकांक्षी अशोक कुमार अपनी शख्सियत को एक बेह्तरीन फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित करना चाहते थे. अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुए अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी फ़िल्मकार शशधर मुखर्जी से कर दिया. सन 1934 मे न्यू थिएटर मे बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार को उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने बाम्बे टॉकीज में अपने साथ रख लिया.
सिल्वर स्क्रीन में अचानक से एक रौबदार शख़्स आता है,आते ही एक ट्रेंड सेट कर देता है,कि फिल्म में एक हीरो होता है,फिल्म बिना नायक के नहीं बन सकती. अशोक कुमार से पहले भी फ़िल्में बन रहीं थीं,लेकिन हीरो जैसा कोई स्कोप नहीं था.अशोक कुमार भी अभिनेता बनने के लिए नहीं,निर्देशक बनने के उद्देश्य से पिता से बगावत करने के बाद बंबई का रुख किया.’अशोक कुमार’ हीरो बनने का सोचते नहीं क्यों कि कोई उनका आदर्श भी तो नहीं था.हिन्दी सिनेमा में कोई स्थापित नाम ही नहीं था.निर्देशन में तो कह सकते हैं, कि करने के लिए बहुत कुछ था. अभिनेता के तौर पर सिर्फ़ आपको सिल्वर स्क्रीन मिलती थी, तय कुछ नहीं होता था,आप कितना कुछ दिखाते हैं, वो आप की प्रतिभा पर टिका हुआ है. मीडिया पॉलिश करने वाला भी नहीं था, ब्रांडिंग करने वाले भी नहीं थे. दिखाने के लिए सिर्फ प्रतिभा होती थी,केवल और केवल प्रतिभा,आज के दौर में दिखाने के लिए सब कुछ है, नदारद है तो अभिनय,अशोक कुमार ने हिन्दी सिनेमा को चलना सिखाया. अभिनय के बेह्तरीन मानक स्थापित किए. अशोक कुमार अभिनय के लिहाज से सारे प्रारूपों में आलोचना से परे संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर चुके थे. मोतीलाल, सोहराब मोदी, बलराज साहनी, भारत भूषण, नजम उल हसन के दौर में भी अशोक कुमार प्रमुख रूप से सक्रिय रहे. हिन्दी सिनेमा ने चलना ही सीखा था.
बीसवीं सदी के तीसरे दशक में फिल्म ‘जीवन नैया’ का निर्माण हो रहा था. फ़िल्म की स्टार कास्ट मे ‘नजम उल हसन’ ने बीच में ही फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया. तब ज्यादा सहूलियतें नहीं होतीं थीं, मुश्किल से एक दो लोग मिलते थे, ऐक्ट्रिस तो वॊ भी दूर की बात है. च्वाइस नहीं होतीं थीं, कि आपको तय वक़्त पर कोई अभिनेता मिल जाए. एक स्टार कास्ट खड़ा करना भी बड़ी चुनौती थी ! चूंकि फ़िल्मों में अच्छे घरों के लोग काम नहीं करते, वहीँ महिलाएं तो बिल्कुल चरित्रहीन ही होती हैं,जो फ़िल्मों में काम करते हैं, हालांकि निर्माता, निर्देशक के लिए आपार सम्भावनाएं हैं,यह दृष्टिकोण अशोक कुमार का था. इस नकारात्मक प्रभाव से ग्रस्त अशोक कुमार कैसे हीरो बन सकते थे. कहते हैं कि नियति आपको वहाँ ले जाती है, जहां के लिए आप निर्धारित होते हैं. नजम उल हसन के मना कर देने के बाद बांबे टॉकीज ऑनर हिमांशु राय की नज़र अशोक कुमार पर पड़ी. हिमांशु राय ने अशोक कुमार से फ़िल्म में बतौर अभिनेता काम करने की का ऑफर दिया. अशोक कुमार ने हिमांशु राय के सामने भी चरित्र हनन की बात एवं अपना दृष्टिकोण रखा, लेकिन हिमांशु राय ने मना लिया. फिल्म ‘जीवन नैया’ में अशोक कुमार के रूप में हिन्दी सिनेमा को नया एवं पहला हीरो मिला. इससे पहले हीरो जैसा कुछ होता नहीं था.
बांबे टॉकीज के बैनर तले प्रदर्शित फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ में अशोक कुमार देविका रानी के हीरो बने. इस फ़िल्म में जीवन नैया के बाद देविका रानी& अशोक कुमार की सिल्वर स्क्रीन पर जोड़ी बनी,जो हिट साबित हुई. ‘देविका रानी’ ने कहा हीरो के लिए आपका नाम मुफ़ीद नहीं है, कुमुद कुमार गांगुली में वो वजन नहीं है, अंततः कुमुद कुमार गांगुली से अशोक कुमार बन गए. ‘अछूत कन्या’ फ़िल्म मे अशोक कुमार ने ब्राह्मण युवक का किरदार निभाया. जिन्हें एक अछूत लड़की देविका रानी से प्यार हो जाता है. सामाजिक कुरीति की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म काफी पसंद की गई. फिल्म की सफलता के बाद अशोक कुमार बतौर हीरो हिन्दी सिनेमा में स्थापित हो गए. देविका रानी के साथ अशोक कुमार की जोड़ी खूब पसंद की गई. देविका रानी एवं अशोक कुमार ने कई फ़िल्मों में एक साथ काम किया. इज्जत, सावित्री, निर्मला जैसी फ़िल्में हिट हुईं. इन फ़िल्मों को दर्शको का बेशुमार प्यार मिला. कामयाबी का पूरा श्रेय अशोक कुमार को नहीं मिला. फ़िल्मों की बेशुमार सफलता अभिनेत्री देविका रानी को मिला.
अशोक कुमार को 1943 मे बांबे टाकीज की ही एक अन्य फ़िल्म ‘किस्मत’ में काम करने का मौका मिला. इस फ़िल्म में अशोक कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री के अभिनेता की पांरपरिक लकीर को क्रॉस करते हुए अपना एक कद अपनी एक अलग पहिचान बनाई. ‘किस्मत’फ़िल्म मे उन्होंने पहली बार एंटी हीरो की भूमिका करते हुए अपनी इस अदाकारी के जरिए भी वह दर्शको का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल रहे. किस्मत ने बॉक्स आफिस के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए कोलकाता के चित्रा सिनेमा हॉल में लगभग चार वर्ष तक लगातार रिकॉर्ड चलती रही.
सन 1940 में बॉम्बे टाकीज के मालिक हिमांशु राय जो देविका रानी के पति थे, अचानक उनका देहांत हो जाने के बाद 1943 में अशोक कुमार बॉम्बे टाकीज को छोड़ फ़िल्मिस्तान स्टूडियो से जुड़ गए. 1947 मे देविका रानी ने बाम्बे टॉकीज छोड़ दिया. देविका रानी के बाद अशोक कुमार ने बतौर प्रोडक्शन चीफ बाम्बे टाकीज के बैनर तले मशाल जिद्दी और मजबूर आदि फ़िल्में बनाई. इसी दौरान बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले उन्होंने 1949 में प्रदर्शित सुपरहिट फ़िल्म महल का निर्माण किया. उस फ़िल्म की सफलता ने अभिनेत्री मधुबाला के साथ-साथ पार्श्वगायिका लता मंगेश्कर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया था. इस दौर में देवानंद, दिलीप कुमार संघर्ष कर रहे थे,तब अशोक कुमार ने देव साहब को जिद्दी फिल्म में काम दिया. वहीं ज्वार – भाटा फिल्म में भी दिलीप कुमार को अशोक कुमार की सिफारिश से काम मिला. अशोक कुमार ने अपने शुरुआती दौर में ऐसे कई लोगों के कॅरियर को संभालते हुए सहयोग की भावना दर्शाते हुए संवेदनशील इन्सान के तौर पर प्रसिद्ध हो गए.
आजादी से पहले एक अभिनय त्रिमूर्ति आई, देवानंद, दिलीप कुमार, राज कपूर, तीनों के कंधे पर पूरा सिनेमा टिक गया. अशोक कुमार थोड़ा उम्र के लिहाज से पक चुके थे, पूर्णतया स्थापित हो चुके थे. अशोक कुमार ने घुटनों के बल चलने वाले भारतीय सिनेमा को चलना सिखाया. इस विरासत को संभालना नामुमकिन सा लग रहा था,फिर त्रिमूर्ति देव – राज – दिलीप ने हिन्दी सिनेमा को दौड़ना सिखाया अपितु वैश्विक सिनेमा के साथ कदमताल करते हुए पूरी दुनिया में ख्याति प्राप्त करते हुए हिन्दी सिनेमा को स्थापित कर दिया. अशोक कुमार अब भी उतने ही प्रभावी थे, अशोक कुमार इन सब के होते हुए भी समान रूप से सक्रिय रहे, अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे. अंततः सत्तर का दशक आया कि, तीनों स्टार की चमक थोड़ा फीकी पड़ी, अशोक कुमार वहीँ खड़े हुए थे. अंततः तीनों सुपरस्टार आलोचना-समालोचना झेलते थे, अशोक कुमार प्रासंगिक रहे. तीसरी पीढ़ी के स्टार राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, सुनील दत्त, धर्मेंद्र, आने के बाद फीके पड़ गए थे, चौथी पीढ़ी विनोद खन्ना, अमिताभ बच्चन, जितेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा आदि भी फीके होने लगे, पांचवी पीढ़ी मिथुन, नसीरुद्दीन शाह, नाना पाटेकर जैकी शॉफ आदि आए ये भी फीके पड़ गए. अशोक कुमार अब अपनी पचास साल से अधिक की अपनी सिनेमाई यात्रा को एक युग का आकार देते हुए, अपने एक – एक संवाद डायलॉग को सिलेबस का आकार दे चुके थे. अशोक कुमार की सिनेमाई यात्रा हिन्दी सिनेमा के लिए नायाब तोहफ़ा थी. आने वाले समय में अशोक कुमार अभिनय के भीष्म पितामह बन चुके थे. अशोक कुमार कभी भी अप्रभावी नहीं रहे, अपने हंसमुख स्वभाव, सरल, मिलनसार, सहयोग की भावना होने के कारण सभी के लिए प्रेरणा एवं चहेते बने रहे. अस्सी का दशक ढलान पर था, कोई भी आलोचना से परे नहीं था, आलोचना से भी परे केवल दो अभिनेता ही रहे, जो संतृप्त अवस्था को प्राप्त कर चुके थे. अशोक कुमार एवं ग्रेट संजीव कुमार, भारतीय सिनेमा में अशोक कुमार & संजीव कुमार की अभिनय के लिहाज से किसी ने कभी कोई आलोचना नहीं की दोनों हमेशा अभिनय के लिहाज संस्थान बने रहे, आज भी अभिनय की कैटेगरी में कह सकते हैं, अशोक कुमार & संजीव कुमार दोनों अभिनय का पूरा युग हैं, अभिनय सीख रहे बच्चों के लिए सबसे पहले दोनों का नाम लिया जाएगा. इनके समानांतर न कोई था, न कोई है,न कोई रहेगा यह एक यूनिवर्सल ट्रूथ है.
दादा मुनि की नायाब फ़िल्मों में अगर देखा जाए तो उनकी प्रत्येक फिल्म अभिनय के लिहाज से पूरा सिलेबस है, वहीँ अशोक कुमार जिस फिल्म में होते तो फिर दूसरा पात्र दिखता ही नहीं है. नज़र केवल टिकेगी तो अशोक कुमार के ऊपर, दादा मुनि ने 1930 से 1960 तक बतौर लीड ऐक्टर फ़िल्मों में सक्रिय रहे, अशोक कुमार एक अद्वितीय नैसर्गिक अभिनेता थे. उनकी प्रमुख फ़िल्मों में हावड़ाब्रिज, कानून, ज्वेलर थीफ, गुमराह, अछूत कन्या, किस्मत, महल, बेवफा, संग्राम, परिणीता, चलती का नाम गाड़ी, ममता, गहना चोर, बंदिनी, अशीर्वाद, मिली, आदि प्रत्येक अभिनेता की छवि एक प्रमुख फिल्म के कारण किसी के अवचेतन मन में अंकित हो जाती है. मेरे जेहन में दादा मुनि की छवि ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अशीर्वाद’के किरदार जोगी ठाकुर के रूप में अंकित हैं.अशीर्वाद फिल्म में अशोक कुमार खूब रुलाते हैं, वहीँ सामजिक समानता की सीख भी देते हैं, उदारवाद का संदेश देती फिल्म, सामजिक गैरबराबरी पर चोट करती हुई मानक सिद्ध होती है. उनका इस फिल्म में अभिनय पूरे हिन्दी सिनेमा में शिखर माना जाता है. इस फिल्म को दादा मुनि की सिग्नेचर फिल्म कह सकते हैं. अशीर्वाद फिल्म दादा मुनि के प्रतिभा कौशल के लिए उनका पूरा दस्तावेज है.
देव साहब अपने सबसे पसन्दीदा हीरो ‘दादा मुनि अशोक कुमार’ को याद करते हुए अपनी आत्मकथा ‘रोमांसिंग विथ लाइफ’ में लिखते हैं, मैं अपने मनपसंद नायक अशोक कुमार को अपनी महात्वाकांक्षी फिल्म ‘ज्वेल थीफ’ में लेना चाहता था, मेरी दिली इच्छा थी, कि ग्रेट दादा मुनि मेरे साथ स्क्रीन साझा करें. आप सभी को याद होगा, कि उन्होंने ही मुझे ज़िद्दी फ़िल्म में ब्रेक दिया था. ज्वेल थीफ में उनका रोल बहुत ही नकारात्मक था, लेकिन अत्यधिक महत्वपूर्ण था. मुझे लगा शायद वह रोल के लिए मानेंगे नहीं, क्योंकि वो ऐसे रोल करते नहीं थे, हालांकि उनके लिए कोई रोल करना बड़ी बात नहीं थी. तो हुआ यूं कि मैंने फिल्म के निर्देशक छोटे भाई विजय आनन्द (गोल्डी) को यह काम सौंपा कि तुम दादा मुनि को मनाओ. गोल्डी इस काम में माहिर था. उसने अशोक कुमार को मना लिया. इस प्रकार दादा मुनि इस फ़िल्म से जुड़ गए और हम तीनों ने मिलकर एक रहस्यमयी फ़िल्म का निर्माण कर डाला. ज्वेल थीफ फ़िल्म के आख़िरी दिन की शूटिंग पर जरनल सगट सिंह ने अपना मिलिटरी बेंड मँगवाया और वह हमारे साथ जश्न में शामिल हुए. साथ में सिक्किम के राजा चोगयाल तथा उनकी रानी भी शामिल हुई, और वो ख़ुश थे कि जल्दी ही सारा संसार उन के देश की सुन्दरता को देखेगा,उसे पसंद करेगा. बाद में जरनल सगट सिंह ने 1971 की लड़ाई में पूर्वी पाकिस्तान में अपने छाताबाज सैनिकों के साथ उतरने वाले पहले भारतीय थे.उन्होंने बंगला देश को आज़ाद करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.ज्वेल थीफ एक बहुत बड़ी हिट साबित हुई. मैं दार्जिलिंग से दिल्ली ओडियन सिनेमाघर प्रीमियम के लिए पहुँचा. भीड़ इतनी ज़्यादा थी, कि जैसे ही मैं कार से उतरा लोगों ने मुझे उठा लिया, हारों से मुझे लाद दिया. कोई मुझे छू कर देख रहा तो कोई मुझसे हाथ मिलने की कोशिश कर रहा था. अचानक ही एक हाथ ने मेरी हिप पाकेट को टटोला. मैंने अपने पर्स को चेक किया तो पाया की वो गायब था. मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी उस समय जोश इतना ज़्यादा था, कि 15 हज़ार की छोटी सी रक़म के लिए उस जोश में ख़लल नहीं डालना चाहता था. इस तरह का प्यार और मशहूरियत पैसे से नहीं ख़रीदी जा सकती थी. मैंने उस जेबकतरे को मेरे नोटों से भरे पर्स के साथ जाने दिया. लेकिन इस फिल्म की सफलता में सबसे ज्यादा योगदान दादा मुनि का रहा, उन्होंने इस विलेन के रोल को निभाते हुए फिल्म को जीवंत कर दिया. देव साहब ने अशोक कुमार के लिए विस्तृत लिखा है.
अशोक कुमार के साथ उनके परम मित्र प्रसिद्ध लेखक ‘मंटो’ का जिक्र न करें तो सब अधूरा रह जाएगा. दादा मुनि अशोक कुमार अपने समय के प्रसिद्ध लेखक ‘सहादत हसन मंटो’के जानी दोस्त थे. मंटो के लिए कह सकते हैं, कि उर्दू साहित्य में ग़ालिब हुए, तो अल्लामा इकबाल हुए, तो मंटो हुए. मंटो शुरुआती दौर में समाज के विवादित मुद्दों पर लिखते हुए खूब आलोचना झेलते थे.मंटो कहते थे, कि लेखक वो है जो समाज के लिए लिखे, लेखक समाज का आईना होता है. अशोक फ़िल्मों में लिखना मुझसे नहीं होगा. आख़िरकार अशोक कुमार ने उनका रुख फ़िल्मों की तरफ मोड़ दिया.
मंटो ने अपनी पुस्तक में लिखा है, कि अशोक और मैं दोनों घनिष्ट मित्र थे, एक – दूसरे से खूब मजाकिया भिड़ंत भी होती रहती थी, एक बार अशोक कहता है, यार तुम मेरा नाम मत किया करो, क्यों कि मैं तुमसे बड़ा हूं, मंटो ने कहा बड़ा तो मैं हूँ, दोनों में हिसाब – किताब हुआ, आख़िरकार अशोक कुमार दो महीने कुछ दिन बड़े निकले, तो अशोक कुमार ने कहा तुम मुझे बड़ा भाई संबोधित करो, मंटो अशोक कुमार को ‘दादा मुनि’ कहकर संबोधित करने लगे, दादा मुनि का बंगाली में अर्थ होता है बड़ा भाई, अशोक कुमार उनको मंटो कहने लगे, मंटो कहते की तब मुझे बहुत गुस्सा आता था, हालांकि अशोक कुमार का प्यार था. मंटो बहुत ही आधुनिक सोच के व्यक्ति थे, एक बार अशोक कुमार को अपने घर ले गए, अपनी पत्नी को आवाज देते हैं, देखो दादा मुनि आया है, इससे हाथ मिलाओ, उनकी पत्नी अशोक कुमार दोनों आवाक रह गए.’मंटो’ कहानीकार थे, जो अपने लेखन, कहानियों ने समाज की बक्खियां ऊधेड़ते रहे. समाज की कुरीतियों से लेकर इश्क से लेकर देश के बंटवारे तक मंटो ने खूब लिखा, और क्या खूब लिखा.मंटो पहली बार कैमरे के पीछे से कैमरे के सामने आए थे यानी उन्होंने जब एक्टिंग डेब्यू किया था.
सन 1946 में फिल्मिस्तान स्टूडियो की फिल्म ‘आठ दिन’ की शूटिंग चल रही थी. फिल्म के डायरेक्टर दत्ता राम पई थे. फिल्म की कहानी मंटो ने लिखी थी. इस फिल्म में अशोक कुमार मुख्य भूमिका में थे,लेकिन निर्देशन की पूरी कमान अशोक कुमार ने संभाली हुई थी. इस फिल्म में चार छोटे-छोटे रोल भी थे. इनमें से तीन रोल की बात करें तो उन्हें निभा रहे थे- राजा मेहंदी अली खान, उपेंद्रनाथ अश्क और मोहसिन अब्दुल्लाह. चौथा रोल कर रहे एस. मुखर्जी का रोल सिरफिरे फ्लाइट अटेंडेंट का था. उनका कॉस्ट्यूम भी तैयार था, लेकिन उस समय एस. मुखर्जी ने इस रोल को करने से इनकार कर दिया .अशोक कुमार ने उन्हें मनाने की काफी कोशिश की, लेकिन वह नहीं माने. इस बीच एक दिन सेट पर मंटो फिल्म के कुछ सीन लिख रहे थे. उसी दौरान अशोक कुमार उनके पास जा पहुंचे,हाथ पकडा कहा यार मेरे साथ चलो.
अशोक कुमार ने मंटो का हाथ पकड़ा और उन्हें सीधा सेट पर ले गए. उनसे कहा कि अब कृपा राम का रोल तुम कर दो . अब एक दम से यह बात सुनकर मंटो आवाक रह गए,फिर मना कर दिया. मंटो इनकार कर रहे थे, इसी बीच राजा मेहंदी अली खान उनके पास गए और बोले- अरे मैं और अश्क भी तो रोल कर रहे हैं, आपको क्या परेशानी हो रही है. खान साहब के समझाने के बाद मंटो नहीं माने, अशोक ने कहा तुम रोल कर रहे हो, अशोक कुमार के लिए मंटो कुछ भी नैतिक कर सकते थे. आख़िरकार मंटो अपने मित्र दादा मुनि के लिए रायटर से ऐक्टर बन गए.
मंटो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए, वहाँ भी वे भारत को भूल नहीं सके अपनी पुस्तक में मुंबई, हिन्दी सिनेमा में अपने समय को याद करते हुए अशोक कुमार को खूब याद करते हुए खूब जिक्र करते थे. वहीँ अशोक कुमार भी ‘मंटो’ को अपना जान से प्यारा दोस्त मानते थे. मंटो तो दुनिया को अलविदा भी कर चुके थे उसके सालों बाद बाद किसी ने इंटरव्यू करते हुए अशोक कुमार से किसी ने पूछा कि आप अपने जिगरी दोस्त मंटो को कैसे याद करते हैं? चूंकि अब तक मंटो भारत पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया में उर्दू – हिन्दी के सर्वकालिक महान लेखक बन चुके थे, मरने के बाद वो अमरत्व को प्राप्त कर चुके थे. वहीँ अशोक कुमार कहते हैं कौन मंटो पहिचानने से मना कर देते हैं!!! थोड़ा रुकते हुए कहते हैं, ओह्ह वो बहुत शराब पीते थे, और अश्लील कहानियां लिखते थे!!!!यह नकारात्मक बात आजतक कोई स्वीकार कर नहीं सका, वहीं आज भी हमारे जैसे लोगों को यह बात कचोटती रहती है, वहीँ अशोक कुमार जैसा संवेदनशील इन्सान मंटो जैसे निराकार शख्सियत के लिए इन शब्दों का चयन उनके लिए भी प्रश्नचिन्ह खड़े करता है.इससे अच्छा तो भूल ही जाते स्वर्गवासी मंटो पर फब्तियाँ तो न कसते. आज भी यह प्रश्न अनसुलझा है. अच्छा होता कि अपने देहांत से पहले मंटो के लिए कुछ सकारत्मक बोलकर जाते, तो हम मंटो उपासकों के लिए अच्छा होता.
अशोक कुमार की जिंदगी में एक ट्रेजडी हुई, जिसने उनको तोड़कर रख दिया. अशोक कुमार के जन्मदिन के मौके पर उनके पुत्र सम प्रिय भाई किशोर दा 13 अक्टूबर 1987 को हार्ट अटैक के कारण दुनिया छोड़ गए. अशोक कुमार ने फिर कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया. इस दिन को हमेशा मनहूस मानते हुए अपने भाई किशोर दा को याद करते हुए मनाते थे. सभी के चहेते अशोक कुमार दस दिसंबर 2001 को नब्बे साल की आयु में ऐक्टिव रहते हुए, दुनिया छोड़ गए. आज भी अशोक कुमार होते तो फ़िल्मों में सक्रिय होते और अपनी अभिनय से लोगों का मनोरंजन कर रहे होते. अशोक कुमार हमेशा हीरो ही रहे. हीरो ही रहेंगे. अशोक कुमार…