Thursday, November 21, 2024
Homeमत सम्मतबिंदास बोलभाषा नहीं संस्कृति आधारित हो राज्यों का गठन

भाषा नहीं संस्कृति आधारित हो राज्यों का गठन

अमित त्यागी 

आज भारत में भाषा की असमता स्पष्ट दिखती है। संतोष का विषय यह है कि अंग्रेज़ी-निपुण कहलाने वाला वर्ग भी एक देशप्रेमी भारतीय वर्ग है। पर उसे अपनी भिन्नता पर सामान्य से कुछ अधिक गर्व है। उसकी मानसिकता पूर्णरूप से विदेशी उपनिवेशक जैसी तो नहीं है  किन्तु वह असमता के पिरामिड की चोटी पर स्वयं को पा कर प्रसन्न है। अँग्रेज़ी भाषियों की संख्या भारत में अति सूक्ष्म है। जो अँग्रेज़ी में स्वयं को निपुण मानते है। इस वर्ग के पास अनुपात से कही अधिक संपत्ति, साधन, चातुर्य व राजनीतिक प्रभाव है। अमरीकी व यूरोपीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा के लिए गये लोगों मे बहुतायत इसी वर्ग के लोगों की है। राष्ट्रनिर्माण के स्थान पर अपनी भावी आर्थिक व राजनीतिक क्षमता सुरक्षित रखना उनकी इस शिक्षा का उद्देश्य रहा है। भाषा की असमता व आर्थिक असमता उसके लिए समस्या नहीं बल्कि साधन है। विषय के समाधान के लिए इस वर्ग के विवेक, चेतना व भागीदारी की बेहद आवश्यकता है। अक्सर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग उठती है किन्तु सबसे पहले ऐसा न हो पाने की वजह को समझना आवश्यक है। पहला बिन्दु है कि हिंदी को सभी भारतवासी राष्ट्रभाषा मानने को तैयार नहीं हैं। स्वतंत्रता के तुरंत बाद संविधान में हिंदी को पूर्ण राष्ट्रभाषा का स्तर नहीं दिया गया था। इसका कारण संविधान सभा के सदस्यों में आपसी मतभेद व हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने पर राष्ट्रीय एकता के उसके संबल पर अविश्वास था।

 इसके साथ एक बड़ा तथ्य यह है कि संविधान सभा के सदस्य देशप्रेमी अवश्य थे किन्तु वे समकालिक शासन प्रणाली और अंग्रेज़ी शिक्षापद्वति के अनुयायी भी थे। आज़ादी के समय से लेकर आज तक भाषा के प्रश्न का कोई गंभीर समाधान कभी सोचा नहीं गया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए इस विषय पर राष्ट्रिय सहमति बनाने के स्थान पर इस प्रश्न को प्रांतीय स्तर का प्रश्न मान लेने का आसान तरीका अपना लिया गया। आपसी मतभेद बने होने के कारण अँग्रेज़ी को संपर्क भाषा का स्वरूप दे दिया गया। तब अँग्रेजी को एक अस्थाई प्रावधान की तरह प्रयुक्त किया गया, जब तक कोई स्थाई भाषा नीति न बने। दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद कोई सर्वमान्य भाषा नीति न बन सकी। इसी बीच प्रादेशिक भाषा भावनाएं अग्रणी होती चली गईं। इन भावनाओं का राजनीतिक इस्तेमाल क्षेत्रीय दलों द्वारा किया जाता रहा और राष्ट्रभाषा का प्रश्न चर्चा से दूर होता गया। दूसरा बिन्दु है कि भारत में भाषा के आधार पर प्रान्तों का गठन एवं संगठन करना राष्ट्रीय-भाषा एकीकरण के दृष्टिकोण से विघटनशील सिद्ध हुआ है। अगर इसका कुछ फायदा हुआ है तो यह केवल राजनीतिक रूप से ही सुविधाजनक सिद्ध हुआ है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के आज सात दशक बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का ध्येय प्राथमिकता में नहीं दिखता है। अब राजनीतिज्ञो की प्राथमिकता पूर्ण विश्व में आर्थिक हितों पर टिकी हैं। आर्थिक कड़ियों से विश्व जुड़ गया है किन्तु आर्थिक प्रगति व भाषा अलग विषय बिल्कुल नहीं है। जैसे कि व्यवसाय में सफलता के लिए व्यवसायी का विशिष्ट व्यक्तित्व अहम होता है वैसे ही एक साहसी राष्ट्रीय व्यक्तित्व राष्ट्रीय विकास के लिए आवश्यक होता है। भाषा इस व्यक्तित्व का अंग है। एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में एक भाषा नहीं बल्कि भाषा की विविधता विवाद का कारण रही है।

 कामकाज की भाषा अँग्रेज़ी आज भारत में एक वर्ग के लिए अभीष्ट है। कामकाजी वर्ग के लिए यह मातृभाषा से भी आदरणीय है। वह लोग ही भाषा विवाद का हल हिन्दी में नहीं अँग्रेजी में ढूँढने लगते हैं। अंग्रेज़ी भाषा के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कामकाज की भाषा होने एवं प्राविधिक विषयों के कारण इसे अपनाना आसान दिखता है। सभी विकसित व विकासशील देश ऐसा कर रहे हैं। अँग्रेजी आधारित भाषा की असमानता विश्व के उन देशों में भी देखी जाती है जो यूरोपियन उपनिवेश थे। इनमे नाईजीरिया, फिलीपीन्स, केन्या, अमरीकी व स्पेनिश उपनिवेश आदि शामिल हैं। वहाँ उपनिवेशकों की भाषा, अंग्रेज़ी या अन्य भाषा का प्रभुत्व आज भी है। विश्व में इन देशों का आर्थिक व सामाजिक स्तर सर्वविदित है। विदेशी भाषा का प्रभुत्व उपनिवेशवाद का एक प्रमुख हथियार रहा है जिसके माध्यम से एक विदेशी अल्पसंख्यक वर्ग अपने व उस देश के बहुसंख्यक वर्ग के बीच असमानता उत्पन्न कर उसका शोषण करता है। आज भारत में भाषा की असमता स्पष्ट दिखती है। अँग्रेजी बोलने वालों में अन्य भाषाओं के प्रति सम्मान का भाव नदारद है। विषय के ज्ञान से ज़्यादा किस भाषा में वह बोला जा रहा है इसके आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन हो रहा है। गुड मॉर्निंग कहने वालों को मॉडर्न एवं सुप्रभात कहने वालों को पिछड़ा समझा जा रहा है। किन्तु हमारे लिए संतोष का विषय सिर्फ यह है कि अंग्रेज़ी-निपुण कहलाने वाला वर्ग आज भी देशप्रेमी भारतीय वर्ग है। दुखदाई यह है कि उसे अपनी भिन्नता पर सामान्य से कुछ अधिक गर्व है। उसकी मानसिकता पूर्णरूप से विदेशी उपनिवेशक जैसी तो नहीं है  किन्तु वह असमता के पिरामिड की चोटी पर स्वयं को पा कर प्रसन्न है। भाषा की असमता व आर्थिक असमता उसके लिए समस्या नहीं बल्कि साधन है। विषय के समाधान के लिए इस वर्ग के विवेक, चेतना व भागीदारी की बेहद आवश्यकता है। हिन्दी भारत की आत्मा है। यह एक सत्य है।

किसी भी देश के विकास का उदगम उसकी मूलभूत संरचना से शुरू होता है। भारत के अधिकतर प्रदेशों मे लोग हिन्दी मे सोचते हैं। हिन्दी मे चिंतन करते हैं। व्यक्ति के बौद्धिक परिवेश मे जिस भाषा का स्थान होता है उसी के इर्द-गिर्द अगर सामाजिक और प्रशासनिक ढांचा होता है तो प्राप्त होने वाले परिणाम काफी बेहतर हो जाते हैं। शायद इसलिए ही विकास का चक्र तो ग्राहय होना चाहिये किन्तु समय समय पर मूलभूत संरचना के बिंदुओं पर चर्चा होती रहनी चाहिए। उदारीकरण और सार्वभौमिकरण के बाद अन्तराष्ट्रिय बाज़ार भारत के लिए वैश्विक रूप से खुला तो उसमे अँग्रेजी का वर्चस्व लाज़मी था। ऐसे भारत के पिछड़े से विकासशील एवं विकासशील से विकसित की तरफ बढ़ने की संभावना सदा अर्थपूर्ण रहीं किन्तु अब प्रक्रियाओं में सुधार की गुंजाइश है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी आधारित सार्वभौमिकरण एक उचित माध्यम है आर्थिक विकास का। आज ढाई दशक में जब हमने उदारीकरण के श्वेत-श्याम दोनों पक्षों को समझ लिया है तब हमें समझ आ चुका है कि भारत का विकास बिना हिन्दी के प्रोत्साहन के संभव नहीं है। आज हिन्दी में सॉफ्टवेयर आ चुके हैं। हिन्दी में मोबाइल आ चुके हैं। हिन्दी में एप आ चुके हैं। हिन्दी व्यापारिक रूप से बढ्ने लगी है। हिन्दी के आधार पर रोजगार सृजित होने लगे हैं। कॉल सेंटर में हिन्दी इस्तेमाल होने लगी हैं। इस तरह से देखा जाये तो हिन्दी के पतन की कोई संभावना वर्तमान में नहीं है।

(प्रबंधन और विधि में परास्नातक लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। 

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments