Sunday, September 8, 2024
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ग्रेट दिलीप साहब का कालजयी नृत्य कौशल

लेखक : दिलीप कुमार

डूबकर ऐक्टिंग करने वाले मेथड ऐक्टर दिलीप साहब फ़िल्म बनाने से खुद को दूर ही रखते थे. ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘मदर इन्डिया’ दिलीप साहब को बहुत पसंद आई थी. पहले दिलीप साहब इस फिल्म में काम करने वाले थे लेकिन उन्होंने फ़िल्म में नर्गिस जी का बेटा बनने से इंकार करते हुए फ़िल्म छोड़ दिया. दिलीप साहब महबूब खान की मदर इन्डिया छोड़ने की कसक पूरी  करना चाहते थे. ‘मदर इन्डिया’ से प्रेरित होकर दिलीप साहब ने एक फिल्म गंगा – जमुना पूर्वी उत्तरप्रदेश के ग्रामीण पृष्ठभूमि पर फिल्म बनाने का सोचा. दिलीप साहब ने फिल्म भी उसी शिद्दत से बनाई जिस शिद्दत से अभिनय करते थे. लेकिन इस कालजयी फिल्म को बनाने में ऐसी मुश्किलें आईं कि दिलीप साहब ने फ़िल्म निर्देशन से हमेशा के लिए तौबा कर लिया. इस फिल्म में सेंसर बोर्ड ने दिलीप साहब की दलील खारिज करते हुए 250 से ज़्यादा कट लगाए. दिलीप साहब की फिल्म में पंडित नेहरू जी के दखल के बाद सेंसर ने रिलीज होने की अनुमति प्रदान की… इस लिहाज से दिलीप साहब को फ़िल्म बनाना काफ़ी महंगा पड़ा.

भोजपुरी पृष्ठभूमि पर बने इस कलात्मक गीत की चमक 65 साल बाद आज भी निरंतर बढ़ रही है. गीत का फिल्मांकन दिलीप साहब की अदाकारी एवं यह कोरस गीत सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए एक सिलेबस है.

पूर्वी उत्तरप्रदेश की पृष्ठभूमि पर बन रही फ़िल्म के लिए दिलीप साहब ने उस क्षेत्र का पूरी फिल्म यूनिट सहित दौरा किया था, और स्थानीय भाषा भी सीखा था. गौरतलब दिलीप कुमार, वैजयंती माला दोनों यूपी से ताल्लुक नहीं रखते थे.

फिल्म संगीत में नौशाद साहब ने शस्त्रीय संगीत के साथ ही लोकगीतों की चमक भी चित्रपट संगीत में लेकर आए. साथ ही महान गीतकार शकील बदायूंनी ने उत्तरप्रदेश की क्षेत्रीय भाषा में गीत रचकर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहिचान दिलाई. और रफ़ी साहब के साथ मिलकर इस त्रिमूर्ति ने संगीत को यादगार बना दिया. नौशाद साहब लखनऊ के ही मूल निवासी थे, नौशाद जब फिल्म का संगीत तैयार कर रहे थे तब उन्हें लखनऊ जाना पड़ गया. मैंने पहले भी कहा था कि गोल्डन एरा के संगीतकार अपना संगीत रचने के लिए मानसिक रूप से पूरा विश्व भ्रमण कर आते थे. नौशाद जब भी लखनऊ जाते तो ‘हज़रत वारिस अली शाह’ की दरगाह पर जियारत के लिए ज़रूर जाते थे. आम तौर पर दरगाहों में ग़ज़ल – कव्वाली के कार्यक्रम होते रहते हैं, तब ही नौशाद साहब ने देखा एक क़व्वाल पूरबिया बोली में ‘नातिया कलाम’ गा रहा था, ये एक प्रकार का भजन होता है जो उर्दू, अरबी में गाया जाता है. ‘नातिया कलाम’ की बंदिशें नौशाद साहब के सीधे दिल में उतर गईं. नौशाद साहब जब लखनऊ से बंबई लौटे तो उन्होंने सबसे पहले इस नातिया कलाम’ की धुन तैयार करके ‘शकील बदायूंनी’ को सुनाते हुए कहा- “अब आप इसका गीत काग़ज़ पर उतार दीजिए. ‘शकील बदायूंनी’ तो लोकगीतों, क्षेत्रीय भाषा पर गीत लिखने में सबसे माहिर गीतकार थे. शकील साहब ने इस फ़िल्म के सारे गीत इसी भाषा में गीत लिख डाले..और रफी साहब ने अपनी आवाज़ से गीत को अमर कर दिया..

दिलीप साहब ने फ़िल्म में संगीत के लिए लखनवी नफासत वाले महान संगीत सम्राट नौशाद अली साहब को इसलिए ही चुना, जिन्होंने मुगल ए आज़म में अपनी धुनों पर अनारकली (मधुबाला) को थिरकाया था. तब के संगीतकारो के संगीत की कलात्मकता के पीछे उनकी सर्वोत्तम समझ एवं उनकी गहरी रिसर्च होती थी. इस ठेठ गंवाई कलात्मक गीत को ग्रेट रफ़ी साहब ने अपनी आवाज़ से अलंकृत किया, रफ़ी साहब भोजपुरी बोलने में असहज थे लेकिन उन्होंने इस गीत में राग छेड़ कर बता दिया है कि रफी साहब जैसे फनकार को भाषा की बंदिशें नहीं रोक सकतीं.

इस फ़िल्म की बात करें तो खेत – खलिहान में काम करने वाला गंगा (दिलीप कुमार) जब घुटनों तक लुंगी पहने अपनी मासूमियत से भरे किरदार में आते हैं तो समूचा हिन्दुस्तान जो तब तो और ज्यादा ठेठ गंवाई था, वो दिलीप साहब को भोजपुरी भाषा बोलते हुए गंगा के किरदार में देखकर उनके साथ जुड़ता हुआ चला गया. ‘गंगा – जमुना’ फिल्म दिलीप साहब की ऑल इंडिया फेवरेट है, जो सर्वकालिक महान फिल्म मानी जाती है.

पहले दिलीप साहब ने असिस्टेंट के रूप में किसी को नहीं रखा था, लेकिन नौशाद साहब ने कहा कि- “आप जैसे ऐक्टर हैं आपको कोई असिस्टेंट रखना चाहिए अन्यथा आप अपनी ऐक्टिंग में डूब जाएंगे, और आप बाहर ही नहीं आएंगे”. तब दिलीप साहब ने फिल्म में नितिन बोस को बतौर असिस्टेंट रखा, कि दिलीप साहब की थोड़ा मदद कर देंगे… अन्यथा नितिन बोस खुद महानतम निर्देशक रहे हैं. नितिन बोस ने दिलीप साहब जैसे गंभीर अदाकार को नचाने का मंच तैयार कर दिया.

नृत्य के मामले में दिलीप साहब बिल्कुल अनाड़ी थे, लेकिन उन्होंने…….. जब

नैन लड़ जैंहे तो मनवा में कसक होइबे करी

प्रेम का छुटिहैं पटाखा तो धमक होइबे करी

नैन लड़ जैंहे…………….

गीत गाते हुए फ़िल्म में दिलीप साहब ने ऐसा जबरदस्त नृत्य किया कि उनके साथ पूरा का पूरा हिन्दुस्तान झूम उठा था.

1960 में आई कल्ट क्लासिक फिल्म ‘मुगल ए आज़म’ में जब दिलीप साहब को साहिबे आलम के किरदार में सिने प्रेमियों ने बड़े – बड़े डायलॉग बोलते हुए उस भव्यता को देखा तो सिने प्रेमी उस भव्यता में खो गए थे…. और एक साल बाद 1961 में गंवाई किरदार में देखा तो लोगों को लगा ‘अरे दिलीप कुमार तो अपने ही जैसे हैं’.

रूप को मन मा बसैबा तो बुरा का होइहैं

कोहू से प्रीत लगैबा तो बुरा का होइहैं

प्रेम की नगरी मा कुछ हमरा भी हक़ होइबे करी

नैन लड़ जैंहे….. हमेशा गम्भीर रोल में दिखने वाले दिलीप साहब इस गीत में गंगा बनकर जब अपनी प्रेमिका धन्नो (वैजयंती माला) से प्रेम का इज़हार के साथ एक ज़िद तो है ही साथ ही वो अपनी प्रेमिका को बचाना चाहते हैं. खिलंदड़ प्रेमी के रूप में उनकी मस्ती देखते ही बनती है… गंगा-जमुना का यह गीत दिलीप साहब के नृत्य कौशल के लिए याद किया जाता है… यह गीत गोल्डन एरा के क्लास की भी गवाही देता है.. हमेशा कहता हूं, आज के सिनेमैटिक लोगों को गोल्डन एरा का विस्तृत अध्ययन करना चाहिए, समुद्र में मोतियों की कमी नहीं है बस ढूढ़ने की दरकार है.

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