Monday, June 2, 2025
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आजादी के 75वें साल में संसद शर्मसार

मनीष शुक्ल

वरिष्ठ पत्रकार

हम अपनी आजादी के 75वें वर्ष में कदम रखने जा रहे हैं। एक ऐसा वर्ष जिसमें अब तक हासिल उपलब्धियों पर जश्न मनाया जान था। विकास की नई यात्रा की तैयारी करनी थी और सबसे बड़ी दुनियाँ के सबसे बड़े और मजबूत लोकतन्त्र का गौरव गान करना था लेकिन स्वतन्त्रता दिवस के ठीक पहले सांसदों ने लोकतन्त्र के मंदिर में जो हरकत की, उससे संसद के साथ पूरा देश शर्मसार है। यूं तो संसद का पूरा मानसून सत्र ही सत्ता पक्ष और विपक्ष के अड़ियल रवैये के चलते बर्बाद हो गया। लेकिन 11 अगस्त को राज्यसभा में हुए हंगामे और हाथापाई की तस्वीर देखकर पूरा देश हैरान है।

शायद किसी भी देशवासी को ये आशा नहीं थी आजादी की सालगिरह से ठीक पहले देश के नीति नियंता माने जाने वाले सांसद महोदय इस तरह का अराजक व्यवहार करेंगे। देश के उपराष्ट्रपति एम वेंकेया नायडू इसके पहले कांग्रेस सांसद प्रताप बाजवा की हरकत को देखकर खासे आहत हो गए थे। उन्होने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक सांसद मेज पर चढ़कर हँगामा करेगा और रूल बुक फाड़ दी जाएगी। नायडू द्रवित होकर रो पड़े। फिरभी सांसदों के माथे पर शिकन नहीं आई। इसके बाद तो राज्य सभा में और भी भयावह तस्वीर सामने आई। एक दूसरे से मारपीट कि गई। कांग्रेस की सांसद ने मार्शल पर मारपीट का आरोप लगाया तो वीडियो में वो खुद महिला मार्शल से मारपीट करते नजर आए।

संसद के ऊपरी सदन में लोकतन्त्र को शर्मसार करने वाली घटना ने साबित कर दिया है कि जनता के चुने गए प्रतिनिधि गैर जिम्मेदार हैं। वो इस योग्य ही नहीं हैं कि उनको लोकतन्त्र के मंदिर में विराजमान किया जाए। क्या  कांग्रेस सांसद प्रताप बाजवा देश को ये समझा पाएंगे कि उन्होने टेबल पर चढ़कर स्पीकर की कुर्सी की तरफ कागज़ फेंककर लोकतन्त्र की गरिमा बढ़ाई है।

संसद के मॉनसून सत्र शुरू होते ही ये तय हो गया था कि जासूसी और किसान मुद्दे को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जमकर खींचतान होगी लेकिन ये किसी ने नहीं सोचा था कि सांसद पूरी कार्यवाही ही हंगामे में स्वाहा कर देंगे। पहले तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने जमकर हँगामा किया जिसके बाद छह सांसद एक दिन के निलंबित भी हुए। लेकिन हंगामा रुकने कि बजाय बढ़ता ही गया। हो-हंगामे के कारण बाधित हुई लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाहियों से जनता के 2.16 अरब रुपये पानी में चले गए।

पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आंकड़े बताते हैं कि मॉनसून सत्र में संसद की उत्पादकता बीते दो दशकों में चौथी सबसे कम रही है। संसद के निचले सदन लोकसभा की उत्पादकता सिर्फ 21% प्रतिशत रही जबकि उच्च सदन राज्यसभा की उत्पादकता 29 प्रतिशत रही। लोकसभा को 19 दिनों तक प्रति दिन छह घंटे के हिसाब से चलना था। हालांकि, पेगासस जासूसी कांड की जांच और नए कृषि कानूनों की वापसी जैसी मांगों को लेकर हंगामे से सदन की कार्यवाही बाधित होती रही। इस कारण लोकसभा में कुल मिलाकर 21 घंटे ही कामकाज हो पाया। वहीं, राज्यसभा में 28 घंटे कामकाज हुआ।

प्रति मिनट औसतन 2.5 लाख रुपये खर्च के लिहाज से इस दौरान कुल 73.85 करोड़ रुपये खर्च हुए। साफ है कि मॉनसून सत्र में खर्च हुए कुल 2 अरब, 90 करोड़, 25 लाख रुपये में सिर्फ 73 करोड़, 85 लाख रुपये का सदुपयोग हो पाया। ऐसा इसलिए क्योंकि कुल 11,610 मिनट की कार्यवाही में सिर्फ 49.14 मिनट ही कामकाज हो पाया। मतलब कि 144 घंटे 16 मिनट यानी कुल 8,656 मिनट के 2 अरब, 16 करोड़, 40 लाख रुपये बेकार हो गए।

क्या जनप्रतिनिधियों की अंतरात्मा देश कि गाढ़ी कमाई बर्बाद करने के लिए उनको माफ कर देगी। शायद नहीं फिरभी उनका गैरजिम्मेदार रवैया मानसून सत्र में जारी रहा। ऐसा नहीं है जनता के प्रतिनिधियों के ऐसा अमर्यादित व्यवहार पहली बार किया हो। ये चलन सबसे पहले दक्षिण भारत से शुरू हुआ जब तमिलनाडु विधानसभा में जानकी और जयललिता के समर्थकों के बीच जमकर हाथापाई हुई। उत्तर प्रदेश को ले लें तो 22 अक्टूबर 1997 को  विधान सभा में हुए बवाल को कौन भूल सकता है। विधायक ने माइक उखाड़कर स्पीकर की तरफ फेंक दिया। इसके बाद विधायक एक दूसरे पर टूट पड़े। सिर्फ तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश ही नहीं बिहार आंध्र प्रदेश में भी ऐसे दृश्य देखे गए। हालांकि संसद की गरिमा पर अभी तक हमला नहीं हुआ था। 11 अगस्त को ये मिथक बी टूट गया जब पूरे देश ने हंगामे और मारपीट के दृश्य देखे। आजादी का जश्न ऐसे कडवे माहौल में न मनाया जाए इसकी पहल खुद जनप्रतिनिधियों को करनी होगी। अगर सांसदों में जरा भी नैतिक बल बचा है तो उनको सामने आकर देश से माफी मांगनी चाहिए। और यह संकल्प लेना चाहिए कि आजादी के 75वें वर्ष में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करेंगे जिससे देश की जनता अपने प्रतिनिधियों पर गर्व करेगी न कि शर्मसार होगी।

आजादी का 75वां साल : भारत में डिजिटल युग को स्वर्णिम अंजाम में बदलने की चुनौती

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मनीष शुक्ल

वरिष्ठ पत्रकार

देश की आजादी का 75वां साल शुरू हो चुका है। इसी समय हम नई सदी के यौवन वर्ष यानि 21वें साल में हैं। यहाँ से नई मानव विकास की यात्रा नए और अलग तरीके से शुरू हो चुकी है। इसका कारण है वर्ष 2020 और 21 में अब तक की कभी न भूलने वाली यादें और अनुभव जो जीवन के सभी क्षेत्रों को नए रास्ते की ओर ले जा रही हैं। बीते मार्च के महीने में पूरी दुनियाँ अचानक ऐसी महामारी की चपेट में आ गई थी जिसने सभी को अंधकार के गहरे लॉक डाउन में छोड़ दिया था। सब कुछ अनिश्चित काल के लिए थम गया था। लोग घरों में कैद हो चुके थे। भोजन और दूध से लेकर दवाई और बीमारी से प्रभावित लोगों तत्काल मेडिकल सपोर्ट की जानकारी की आवश्यकता जीवन की भूख की तरह हो गई थी। इस दौरान अखबार घरों तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे थे। स्थानीय स्तर पर टीवी चैनलों की पहुँच न के बराबर थी। ऐसे में पारंपरिक मीडिया से हटकर ऐसे माध्यम की तत्काल जरूरत थी जो सही और आधिकारिक सूचना और समाचार प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचा सके।

यूनेस्को की महानिदेशक ऑड्री अज़ोले ने स्वीकार भी किया कि युद्ध की तरह कोरोनावायरस महामारी के दौरान सच को ‘पहला पीड़ित’ माना जा सकता है। हालांकि आपदा से निपटने में भारत ने सही तरीके से सूचना और राहत प्रदान की थी, उसकी नींव आपदा के बहुत पहले ही रख दी गई थी। देश के दूरदर्शी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पहले कार्यकाल के दौरान वर्ष 2014 में में स्पष्ट कर दिया था कि ”हम भारत को नवाचार के केन्‍द्र के रूप में उभरता हुआ देखना चाहते हैं, जहां टेक्‍नोलॉजी से संचालित नये बड़े विचारों का आविर्भव हो।”

पीएम ने छह वर्ष पहले ही देख लिया था कि ” टैक्‍नोलॉजी कम सशक्‍त लोगों को सशक्‍त करती है। सीमांत लोगों के जीवन में बदलाव लाने में, अगर कोई मजबूत बल है, तो वह है टैक्‍नोलॉजी।” उन्होने डिजिटल इंडिया की पहल पर कहा था कि ”डिजिटल इंडिया के सपने को साकार करने में पूरा राष्‍ट्र एकजुट है। युवा उत्‍साही हैं, उद्योग जगत सहायक है और सरकार अति सक्रिय है। देश डिजिटल क्रांति के लिए लालायित है।” साथ ही यह भी माना कि “भविष्‍य सोशल मीडिया का होगा। य‍ह समानाधिकारयुक्‍त और मिला-जुला है। सोशल मीडिया किसी देश, किसी भाषा, किसी रंग, किसी समुदाय के बारे में नही है, बल्कि यह मानव मूल्‍यों के बारे में है और यही मानवता को बांधने का मौलिक संधि है।” पीएम ने मोबाइल गवर्नेंस को भी वक्त कि जरूरत बताते हुए छह साल पहले ही कहा था कि ”एम-गवर्नेंस के जरिये विकास को असल में समेकित बनाने और व्‍यापक जन आंदोलन की संभावना है। इसने शासन को प्रत्‍येक की पहुंच में ला दिया है। इसने शासन को चौबीस घंटे सातों दिन आपकी पहुंच में ला दिया है।

करोना काल में प्रधानमंत्री का विजन नेतृत्व और समाज दोनों के लिए संजीवनी बन गया। जब कई समाचार पत्रों का प्रकाशन बंद हो गया तो मोबाइल एप के जरिये लोगों के हाथों तक सूचना और समाचार पहुँचने लगे। सोशल मीडिया के वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन, ट्‍विटर जैसे प्लेटफॉर्म पारंपरिक मीडिया से ज्यादा प्रभावी हो गए। देखते ही देखते हालात ये हो गए कि सरकार को ऐसे माध्यमों का दुरुपयोग रोकने के लिए नियम बनाने पड़े।  ऑनलाइन संवाद ने पूरी दुनियाँ को नए सिरे से जोड़ने की कवायद शुरू की।

सामान्य मीडिया गतिविधियां बंद हो गईं। अखबार के दफ्तर से लेकर सिनेमा हाल तक ज़्यादातर मीडिया गतिविधियां बंद हो गईं थीं। ऐसे में सूचना और प्रोद्द्योगिकी ने बहु विकल्पीय युग में प्रवेश किया। एक ओर प्रिंट यानि अखबार  के समाचारों का ठहराव भरा स्वरूप तो दूसरी ओर न्यूज़ चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज देने की अधीरता के बीच डिजिटल न्यूज के जरिये विभिन्न समाचार एप ने अखबारों की विश्वसनीयता और टीवी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज एक साथ एक प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध कराने का कार्य किया। डिजिटल प्लेटफॉर्म ने ठप हो चुके कारोबार को नई साँसे दी। समाचार से लेकर मनोरंजन तक सब कुछ नए सिरे आम जन मानस तक पहुँचने लगा। ओटीटी प्लेटफॉर्म ने घरों में कैद लोगों के लिए संजीवनी का काम किया। इस दौरान खास बात रही परिवर्तन से भागने वाला पारंपरिक मीडिया भी बदलाव की दौड़ में शामिल हुआ। समाचार पत्रों के डिजिटल न्यूज चैनल आ गए। बड़े- बड़े टीवी चैनलों के एप लोग डाउनलोड करने लगे। पारंपरिक मीडिया के फेसबुक, वाट्सएप, यूट्यूब और ट्विटर पेज पर लाखों लाइक और कमेंट आने लगे। पिछले एक वर्ष में मीडिया में डिजिटल विस्फोट सा हो गया।

यह परिवर्तन अचानक जरूर था लेकिन डिजिटल मीडिया की पहुँच और प्रभाव ने नए प्रतिमान गढ़ डाले। नए सिरे से बहस के मुद्दों को जन्म दिया। यह परिवर्तन प्रकृति पर आधारित मौलिक और स्वाभाविक था। कहानी और खबरें दोनों ही कंटेन्ट में बदल चुके थे। जन मानस के समक्ष सूचना और मनोरंजन के कई विकल्प उपलब्ध थे जिसने घर में रहने के शुरुआती उत्साह के बाद आई उदासी और तनाव को दूर करने का काम किया।

कोविड काल में मीडिया का आंकलन किया जाए तो पाएंगे कि शुरुआती दौर में लोगों ने दूरदर्शन जैसे प्लेटफॉर्म को उसके पुराने सदाबहार कंटेन्ट के कारण हाथों हाथ लिया लेकिन जैसे- जैसे ओटीटी पर नया कंटेन्ट आने लगा, बाजार के बड़े- बड़े खिलाड़ी इस प्लेटफॉर्म पर आने लगे। नेटफ्लिस से लेकर बालाजी आल्ट, डिज्नी हॉटस्टार समेत अन्य डिजिटल प्लेटफॉर्म के जरिये रचनाशीलता, अच्छी प्रतिभाओं, उत्पादन मूल्यों और कहानियों के रेंज में विविधता नजर आने लगी। इसके साथ ही ये धारणा भी पुरानी साबित होने लगी कि “जो बाजार में दिखता है वो बिकता है।“ अब कंटेन्ट ही असली हीरो साबित हो रहा है जबकि बाजार के नए नए दरवाजे खुल रहे हैं।

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भारत आज न सिर्फ बड़ा बाजार है बल्कि दुनियाँ भर की बड़ी- बड़ी कंपनियों के निवेश का मौका भी है। इस दौरान भारत ने चीन ने एप बैन किए तो इसका प्रभाव उनकी अर्थव्यवस्था पर सीधे तौर पर पड़ा है। ऐसे में अगर इस क्षेत्र में  रचनात्मकता और प्रौद्योगिकी के जरिये नौकरियों और धन का सृजन आसानी से किया जा सकता है। खुद पीएम मोदी करोना कल से पहले ही भारत में डिजिटल क्रांति का आह्वान किया था। पीएम के विजन के अनुसार भारत को नवाचार के केन्‍द्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। जहां टेक्‍नोलॉजी से संचालित नये बड़े विचारों का आविर्भव हो। डिजिटल इं‍डिया कई तरीके से जीवन को छूएगी और इसे आसान बनाएगी। उदाहरण के लिए डिजिटल लॉकर और ई-हस्‍ताक्षर से सभी महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेजों को आसानी और कुशलता से व्‍यवस्थित किया जाएगा। एक क्लिक से दस्‍तावेजों को आसानी से देखा जा सकेगा। स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं को लें, ई-अस्‍पताल का मतलब लाइन में खड़े होकर समय व्‍यर्थ करने की जरूरत नहीं, बल्कि मिलने के समय के लिए ऑन लाइन पंजीकरण, ऑन लाइन भुगतान और आन लाइन रिपोर्ट उपलब्‍ध होगी। मोदी सरकार ने 2014 से ही इस दिशा में तेजी से कार्य करना शुरू किया। इसके परिणाम स्वरूप पहले नोटबंदी और फिर करोना काल में आम जन मानस का जीवन तमाम चुनौतियों के बावजूद सहज रहा।

हालांकि डिजिटल क्रांति से कई आशंका भी पैदा हुई हैं। क्या गरीब, पिछड़ा और आम आदमी इस प्रक्रिया में पीछे तो नहीं छुट जाएगा। क्या फेक सूचनाओं का मकड़जाल तो नहीं फ़ेल जाएगा। क्या ई और साइबर क्राइम के जरिये जीवन भर कि पूंजी एकबार में ही लूट तो नहीं जाएगी। तकनीकी दुनिया की चुनौतियां और भी हैं जैसे कोविड काल वर्क फ्राम होम की संस्कृति शुरू हुई। तेज़ी से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI) और रोबोटिक तकनीकों का चलन भी शुरू हुआ। ऐसे में बेरोजगारी की आशंका भी खड़ी है लेकिन सभी आशंकाओं पर सरकार निरंतर कार्य कर रही है।

मोदी सरकार ने सोशल मीडिया मंचों से लेकर डिजिटल मीडिया और स्ट्रीमिंग मंचों को लिए नियम जारी किए हैं। इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के जरिये सरकार ने डिजिटल क्रांति के लिए व्यवस्था तैयार करने का कार्य किया है। नए नियमों के हिसाब से बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों को किसी उचित सरकारी एजेंसी या अदालत के आदेश/नोटिस पर एक विशिष्ट समय-सीमा के भीतर गैर कानूनी सामग्री हटानी होगी। नियमों में सेक्सुअल कंटेट के लिए अलग श्रेणी बनाई गई है, जहां किसी व्यक्ति के निजी अंगों को दिखाए जाने या ऐसे शो जहां पूर्ण या आंशिक नग्नता हो या किसी की फोटो से छेड़छाड़ कर उसका प्रतिरूप बनने जैसे मामलों में इस माध्यम को चौबीस घंटों के अंदर इस आपत्तिजनक कंटेंट को हटाना होगा।

केंद्र सरकार ने गाइड लाइंस जारी करते हुए कहा कि ‘बिजनेस करने के लिए सोशल मीडिया का भारत में स्वागत है… उनका अच्छा व्यापार है यहां। उनके यहां बड़ी संख्या में यूजर्स हैं और उन्होंने आम भारतीयों को सशक्त किया है लेकिन यूजर्स को सोशल मीडिया के दुरुपयोग के खिलाफ समयबद्ध तरीके से अपनी शिकायतों के समाधान के लिए एक उचित मंच दिया जाना चाहिए। सोशल मीडिया मंचों के बार-बार दुरुपयोग तथा फर्जी खबरों के प्रसार के बारे में चिंताएं व्यक्त की जाती रहीं हैं और सरकार ‘सॉफ्ट टच’ विनियमन ला रही है। ऑनलाइन सामग्री के प्रकाशकों को हर सामग्री या कार्यक्रम के बारे में विवरण देते समय प्रमुखता से उसका वर्गीकरण भी प्रदर्शित करना होगा ताकि उपयोगकर्ता उसकी प्रकृति के बारे में जान पाएं। इससे दर्शक को हर कार्यक्रम के प्रारंभ में ही उसकी सामग्री की प्रकृति का मूल्यांकन करने में और उसे देखने से पूर्व सुविचारित निर्णय लेने में मदद मिलेगी। एक सरकारी बयान के अनुसार डिजिटल मीडिया पर खबरों के प्रकाशकों को भारतीय प्रेस परिषद की पत्रकारीय नियमावली तथा केबल टेलीविजन नेटवर्क नियामकीय अधिनियम की कार्यक्रम संहिता का पालन करना होगा, जिससे ऑफलाइन (प्रिंट, टीवी) और डिजिटल मीडिया के बीच समान अवसर उपलब्ध हो। नियमों के तहत स्वनियमन के अलग अलग स्तरों के साथ त्रिस्तरीय शिकायत निवारण प्रणाली स्थापित की गयी है। नियमों के अनुसार हर प्रकाशक को भारत के अंदर ही एक शिकायत निवारण अधिकारी नियुक्त करना होगा जो शिकायतों के निवारण के लिए जिम्मेदार होगा और उसे शिकायत मिलने के 15 दिनों के अंदर उसका निवारण करना होगा। नियमों के मुताबिक प्रकाशकों के एक या एकाधिक स्वनियामक निकाय हो सकते हैं. ऐसे निकाय के अगुवा उच्चतम/उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायधीश या कोई प्रख्यात हस्ती होंगे और उसमें छह से अधिक सदस्य नहीं होंगे। ऐसे निकाय को सूचना एवं प्रसारण मत्रालय में पंजीकरण कराना होगा। बयान के अनुसार यह निकाय प्रकाशकों द्वारा आचार संहिता के अनुपालन तथा शिकायत निवारण पर नजर रखेगा। इसके अलावा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय कोड ऑफ प्रैक्टिसेज समेत स्वनियामक निकायों के लिए वास्ते चार्ट बनाकर जारी करेगा. वह शिकायतों पर सुनवाई के वास्ते अंतर-विभागीय समिति स्थापित करेगा।

केंद्र सरकार की ओर से डिजिटल युग को प्रभावी बनाने के लिए सभी प्रकार की आशंकाओं का हल पूरी तरह से किया जा रहा है। मोदी सरकार पोस्ट कोविड काल को डिजिटल युग में तब्दील करने में जुट गई है। केंद्रीय बजट पूरी तरह से डिजिटल तरीके से जारी किया गय, जिसका अनुपालन उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली समेत देश भर के ज़्यादातर राज्यों ने किया। डिजिटल व्यवस्था के जरिये राजनीतिक और प्रशासनिक प्रक्रियाओं में सुधार की कवायद हो रही है। देश की डिजिटल पहचान व्यवस्था ने महामारी के दौरान कई चुनौतियों से उबरने में मदद की है। डिजिटल आईडी की मदद से ग़रीब तबक़े को नक़द स्थानांतरण और कई ज़रूरी सामान ख़रीदने के लिए डिजिटल भुगतान संभव हुआ। इसके पीछे भी डिजिटल मीडिया की भूमिका को अहम माना जा रहा है। देश के दूर दराज इलाकों में भी मोबाइल के जरिये तत्काल सूचना पहुँच रही है। साथ ही ई मनोरंजन ने लोगों को प्रयोग के प्रति आकर्षित किया है। तकनीकी के कारण आज पालक झपकते छोटी छोटी जानकारियां आपस में साझा हो रही हैं। इसी समय नई तकनीकों और नई खोजों को दूसरे समुदायों और देशों के तत्काल साझा किया जा सकता है। जबकि पहले सूचनाओ के प्रसारण में कई दिन, हफ्ते और महीने तक लग जाते थे जबकि आज कई सूचनाएं पारंपरिक मीडिया से पहले ही सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी होती हैं। पद्मश्री से विभूषित येशे दोर्जी थोंगशी ने एक वेब सेमिनार में कहा कि पहले भी महामारियां विश्वभर में फैली हैं। लेकिन इस महामारी से सबकुछ जब बंद हुआ तो टेलीविजन और ऑन लाइन माध्यमों से से मालूम चला कि क्या करना है और क्यों करना है? मीडिया ने इस दौरान लगातार हमें जागरूक और सशक्त किया है। महामारी के दिनों में हमें जागरूक और सचेत करता है। बीते एक वर्ष के अनुभव अविस्मरणीय हैं। ये काली रात की तरह भयावह भी हैं और सुबह की लालिमा की तरह उम्मीद से भरपूर भी हैं। ये निश्चित रूप से ग्रहण के बाद का सबेरा है जिसमें हम सभी अपनी भूमिका खुद सुनिश्चित करनी है। तभी डिजिटल युग में हमारा ऐतिहासिक आगाज स्वर्णिम अंजाम में बदल सकेगा।

विशेष : तो हमारे पास भी होते कई गोल्ड मेडल

डॉ. सरनजीत सिंह

फिटनेस एंड स्पोर्ट्स मेडिसिन स्पेशलिस्ट

टोक्यो ओलिंपिक में भारत के शानदार प्रदर्शन पर सभी देशवासियों को बहुत बहुत बधाई. मैं जनता हूँ कि हमेशा की तरह इस बार भी कई लोगों के दिलों में एक सवाल ज़रूर होगा, कि हमारे देश की इतनी बड़ी आबादी होने के बावज़ूद हमें ओलिंपिक में इतने कम मेडल्स क्यों मिलते हैं? कई बार हमारे खिलाड़ी मेडल्स जीतने के बेहद करीब आने पर हार क्यों जाते हैं? या कई बार हमारे गोल्ड जीतने के हकदार खिलाड़ी या तो प्रतियोगिता से ही बाहर हो जाते हैं, या फिर उन्हें सिल्वर या ब्रॉन्ज़ से समझौता क्यों करना पड़ जाता है? हालाँकि इन सभी सवालों के बहुत सारे कारण हैं, लेकिन आज मैं एक बहुत महत्तवपूर्ण विषय पर बात करने जा रहा हूँ, ये वो विषय है जिस पर हमने आज तक कभी खुल कर चर्चा तक नहीं की. ये विषय है खेलों में प्रयोग होने वाली प्रतिबंधित दवाओं और उन्हें रोकने के लिए बनी एन्टीडोपिंग एजेन्सीज़ के बारे में।

जैसा कि ये तो हम सभी जानते हैं कि हमारे स्पोर्ट्स सिस्टम में बहुत खामियां हैं, और तमाम सुविधाओं के आभाव में आज तक जितने भी मेडल्स हमारे खिलाड़ियों ने जीते, वो उनकी व्यक्तिगत मेहनत, लगन और अनुशाशन का नतीज़ा थे. और ऐसा भी नहीं है कि ये खामियां सिर्फ हमारे ही सिस्टम में हैं, ऐसी एक बहुत खामियां अंतर्राष्ट्रीय एन्टीडोपिंग सिस्टम की भी है, जिसे हम आजतक बहुत सरल और त्रुटिरहित समझते आएं हैं. और हमें लगता है कि खेलों में प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग करने वाले खिलाड़ियों कि संख्या न के बराबर है, जबकि हक़ीक़त तो ये है कि करीब 90% या शायद उससे ज़्यादा खिलाड़ी इन दवाओं का प्रयोग करते हैं और मैडल की रेस में हमसे कहीं आगे निकल जाते हैं. अब आप ये सोच रहे होंगे कि अगर ऐसा होता तो अभी तक वो सभी खिलाड़ी पकड़े गए होते. दरअसल, दुनिया का हर एन्टीडोपिंग सिस्टम त्रुटियों और अनियमितताओं से भरा पड़ा है, जिसका फ़ायदा विकसित देश सालों से उठाते आ रहे हैं, और आज जब वो स्पोर्ट्स साइंस में पहले से कहीं अधिक विकसित हो चुके हैं, दुनिया की किसी भी एन्टीडोपिंग एजेंसी को चकमा देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है. ये खेल आज से नहीं बल्कि मॉडर्न ओलिंपिक की शुरुआत से काफी पहले से चल रहा है. आपको जानकर हैरानी होगी कि खेलों में ड्रग्स के इस्तेमाल का पहला दस्तावेज़ 1865 में एम्स्टर्डम में हुई स्विमिंग प्रतियोगिता का है, जिसमें एक डच खिलाड़ी ने अपना प्रदर्शन बेहतर करने के लिए ‘स्टिमुलैंट्स’ का प्रयोग किया था. इसी तरह प्रतिबंधित दवाओं के प्रयोग से किसी खिलाड़ी की होने वाली पहली मौत का पहला दस्तावेज़ मॉडर्न ओलिंपिक की शुरुआत से दस साल पहले, यानीकि 1886 का है, जब एक चौबीस वर्षीय ब्रिटिश साइकिलिस्ट, आर्थर लिंटन की मौत ‘ट्राईमेथिल’ नाम की दवा की अतिप्रयोग से हुई थी. तब से ले कर अभी तक दुनिया की सभी  एंटी डोपिंग सिस्टम्स में सैकड़ों खामियां आज भी हैं, जिन पर हज़ारों सवाल किये जा सकते हैं, जिनका ज़िक्र मैं बहुत ज़ल्द इसी तरह के किसी लेख में करूँगा. फिलहाल हमें ये समझने की ज़रुरत है की अगर एन्टीडोपिंग एजेंसीज सही तरह से काम करतीं और अगर वो दोषियों को पकड़ने में सक्षम होतीं तो अभी तक भारत के पास बहुत मेडल्स आ चुके होने थे. इसे कुछ बहुत विशेष घटनाओं से समझा जा सकता है.

पहली घटना 1960 रोम ओलिंपिक की है, जिसमें मेंस 400 मीटर रेस में मिल्खा सिंह चौथवें स्थान पर आये थे, उन्हें अमेरिका के ओटिस डेविस, जर्मनी के कार्ल कॉफमैन और साउथ अफ्रीका के मैलकम स्पेंस ने पीछे छोड़ा था. ये वो दौर था जब स्पोर्ट्स में शक्तिवर्धक प्रतिबंधित दवाओं का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा था. उस समय न तो कोई एंटी डोपिंग एजेंसी ही थी और न ही इन ड्रग्स को पकड़ने का कोई तरीका था. उस समय अमेरिका के एथलीट्स ‘अम्फेटामिन्स’ का और जर्मनी के एथलीट्स ‘स्टेरॉइड्स’ का प्रयोग कर रहे थे. हमारे खिलाड़ियों को तो इसकी भनक भी नहीं थी. जब इसके बारे में मेरी मिल्खा सिंह जी से बात हुई तो पहले तो उन्हें बहुत हैरानी हुई और फिर वो अपने प्रतिद्वंद्विओं द्वारा इन दवाओं के प्रयोग को इंकार न कर सके. उन्होंने बताया, की मैं आज तक यही नहीं समझ पाया कि जिन खिलाड़िओं (अमेरिका के ओटिस डेविस और जर्मनी के कार्ल कॉफमैन) ने ओलिंपिक से पहले मेरे साथ कभी किसी और रेस में भाग तक नहीं लिया था वो मुझसे आगे कैसे निकल गए. रही बात साउथ अफ्रीका के मैलकम स्पेंस की, तो मिल्खा सिंह ओलिंपिक से पहले उसे हरा चुके थे. अब अगर उस समय प्रतिबंधित दवाओं का प्रयोग न हो रहा होता तो वो मेडल भारत का हो सकता था.

दूसरी घटना 1984 लॉस एंगेल्स ओलिंपिक की है, जिसमें विमेंस 400 मीटर हर्डल्स में पी.टी. ऊषा मोरक्को की नवल एल मोतवकल (गोल्ड), अमेरिका की जूडी ब्राउन (सिल्वर) और रोमानिया की क्रिस्टियाना कजोकारु (ब्रॉन्ज़) से पीछे रह गयी थीं. इसमें उन्होंने एक सेकंड के सौवें हिस्से से ब्रॉन्ज़ खो दिया था. जबकि एक दूसरे प्री-ओलंपिक्स ट्रायल्स के दौरान वो जूडी ब्राउन को हरा चुकी थीं. ये वो दौर था जब ‘अम्फेटामिन्स’ के अगली जनरेशन के ड्रग्स बन चुके थे, नए सिंथेटिक स्टेरॉइड्स पर प्रयोग चल रहे थे, तब तक ब्लड डोपिंग पर भी बैन नहीं था, और इस सब को पकड़ना लगभग नामुमकिन था.

और अगर इतिहास देखें तो अमेरिका की तरह मोरक्को और रोमानिया के खिलाड़ियों का डोपिंग रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं रहा. यहीं नहीं मोरक्को आज भी दुनिया के सात सर्वाधिक डोपिंग देशों में शामिल है. अब अगर उस समय प्रतिबंधित दवाओं को पकड़ना आसान होता तो शायद एक और मैडल हमारे पास होता.

इस तरह के कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें हम मेडल्स के बहुत पास आ कर या तो पीछे रह गए या फिर हमें गोल्ड की जगह सिल्वर या ब्रॉन्ज़ से संतोष करना पड़ा.

इसी तरह का एक किस्सा 2000 सिडनी ओलिंपिक का है जिसमें वीमेंस वेटलिफ्टिंग स्पर्धा में हमारे देश की कर्णम मल्लेश्वरी तीसरे स्थान पर रहीं और देश को पहला महिला मेडल मिला. इसमें चीन की लीं वेइनिंग ने गोल्ड और हंगरी की रज़सेबेट मरकुस ने सिल्वर मेडल जीता था. ये वो दौर था जब इन दोनों देशों के कई खिलाड़ी डोपिंग में लिप्त थे. इस समय तक डिज़ाइनर स्टेरॉइड्स आ चुके थे जिन्हे पकड़ने का कोई तरीका एंटीडोपिंग एजेंसीज के पास नहीं था. और अगर ऐसा होता तो हमारा ब्रॉन्ज़, सिल्वर या गोल्ड में बदल चूका होता.

हमारे देश में इस तरह के खिलाड़ियों की एक बहुत बड़ी लिस्ट है जो दूसरे देशों के खिलाड़ियों द्वारा बड़े योजनाबद्ध तरीके से प्रतिबंधित दवाओं के सेवन की वज़ह से उस स्थान पर नहीं पहुँच सके जिसके वो सच्चे हकदार थे. और ऐसा नहीं है कि ये प्रक्रिया आजकल नहीं चल रहीं. आज भी कई ऐसे ड्रग्स और तरीकें हैं जिन्हें पकड़ना वाडा (वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी) द्वारा नामुमकिन है. अगर अब भी हमने इसके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाई तो ऐसा हमेशा चलता रहेगा और हमारे खिलाड़ी ओलिंपिक पोडियम में कभी एक उचित स्थान नहीं पा सकेंगें.

शास्त्री की हो सकती है विदाई, नवंबर तक टीम इंडिया को मिलेगा नया कोच

आने वाले समय में टीम इंडिया के कप्तान विराट कोहली और कोच रवि शास्त्री की जोड़ी टूट सकती है। टीम के हेड कोच शास्त्री फिलहाल अपने लिए नया प्लान बना रहे हैं। जबकि श्री लंका में नए लड़कों के साथ शानदार प्रदर्शन करने वाली टीम के कोच राहुल द्रविड़ भविष्य की उम्मीद जागा रहे हैं। इसी कारण नवंबर तक भारतीय क्रिकेट टीम को नया हेड कोच मिल सकता है। टी20 वर्ल्ड कप के बाद भारतीय क्रिकेट नए कोच की तलाश करेगी। शास्त्री ने बीसीसीआई के कुछ सदस्यों को सूचित किया है कि वह टूर्नामेंट के बाद टीम इंडिया से अलग होने की योजना बना रहे हैं।

उधर श्रीलंका दौरे पर टीम इंडिया के हेड कोच बनकर गए राहुल द्रविड़ का नेशनल क्रिकेट एकेडमी चीफ का कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो गया है। बीसीसीआई ने एनसीए में क्रिकेट प्रमुख के लिए पद के लिए आवेदन मांगे हैं। द्रविड़ को जुलाई 2019 में एनसीए प्रमुख के तौर पर नियुक्त किया गया था। उन्होंने इससे पहले भारत अंडर -19 और भारत ए टीमों के कोच के रूप में जूनियर खिलाड़ियों के साथ बड़े पैमाने पर काम किया था. अगर द्रविड़ एनसीए प्रमुख के लिए दोबारा आवेदन नहीं करते है तो यह साफ है कि वह टीम इंडिया के मुख्य कोच का जिम्मा संभालने जा रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार बीसीसीआई भी एक नया कोच चाहता है। शास्त्री ने पहली बार 2014 से 2016 में टी20 वर्ल्ड कप तक निदेशक के रूप में टीम की कमान संभाली थी, जिसके बाद अनिल कुंबले को एक साल के लिए नियुक्त किया गया था। साल 2017 में अनिल कुंबले के हटने के बाद रवि शास्त्री को भारतीय क्रिकेट टीम का पूर्णकालिक कोच बनाया गया था। रवि शास्त्री की अगुवाई में भारतीय टीम साल 2019 में वनडे वर्ल्ड कप का सेमीफाइनल और वर्ल्ड टेस्ट चैंपियनशिप का फाइनल हार गई। अभी तक रवि शास्त्री के नेतृत्व में भारतीय टीम आईसीसी ट्रॉफी अपने नाम नहीं कर सकी है। दूसरी ओर शास्त्री के कार्यकाल में भारत ऑस्ट्रेलिया को उसी की सरजमीं पर दो बार टेस्ट सीरीज में मात देने में सफल रही है। इसके अलावा दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड में बेहतरीन प्रदर्शन किया है।

पुरस्कृत : आईआईटी कानपुर ने आदिवासियों को डिजिटल दुनियाँ से जोड़ा

– आई आई टी कानपुर ने अपने ‘टेक फॉर ट्राइबल्स’ कार्यक्रम के लिए प्रतिष्ठित पुरस्कार जीता

आईआईटी कानपुर ने ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राइफेड) के वनधन वार्षिक पुरस्कारों के उद्घाटन पर अपने ‘टेक फॉर ट्राइबल’ कार्यक्रम के लिए प्रतिष्ठित सर्वश्रेष्ठ उद्यमी कौशल प्रशिक्षण परियोजना का पुरस्कार जीता है।

‘टेक फॉर ट्राइबल्स’ पहल का उद्देश्य वनधन विकास केंद्रों (वीडीवीके) के माध्यम से संचालित स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के माध्यम से उद्यमिता विकास, सॉफ्ट स्किल्स, आईटी और व्यवसाय विकास पर ध्यान देने के साथ आदिवासियों का समग्र विकास करना है।

ट्राइफेड के 34वें स्थापना दिवस के अवसर पर यह पुरस्कार प्रदान किया गया । आईआईटी कानपुर के टेक्नोलॉजी बिजनेस इनक्यूबेटर फाउंडेशन फॉर इनोवेशन एंड रिसर्च इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी (FIRST) ने TRIFED समर्थित टेक फॉर ट्राइबल प्रोजेक्ट के तहत छत्तीसगढ़ और केरल में दो प्रोजेक्ट मैनेजमेंट यूनिट (PMU) की स्थापना की है। इनक्यूबेटर को इसके ब्रांड नाम, स्टार्टअप इनक्यूबेशन एंड इनोवेशन सेंटर (SIIC) के नाम से जाना जाता है।

आईआईटी कानपुर के निदेशक प्रोफेसर अभय करंदीकर ने कहा कि, “हमें इस देश के आदिवासियों को आत्मानिर्भर बनाने के लिए एक अनूठा कार्यक्रम ‘टेक फॉर ट्राइबल्स’ से जुड़कर गर्व हो रहा है। यह आदिवासी उद्यमियों और शहरी बाजारों के बीच की खाई को पाटने पर केंद्रित है। इस अनूठी पहल में आई आई टी कानपुर के योगदान द्वारा लाया गया तकनीकी परिवर्तन जनजातीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करने वाले परिवर्तन के एक प्रकाशस्तंभ के रूप में उभरा है। मुझे विश्वास है कि इस तरह के हस्तक्षेप से आदिवासी आत्मनिर्भर बनने के लिए सभी चुनौतियों से ऊपर उठेंगे।

फाउंडेशन ऑफ रिसर्च एंड इनोवेशन इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी (FIRST), आई आई टी  कानपुर के सीईओ, डॉ निखिल अग्रवाल ने इस मौके पर कहा कि, “टेक फॉर ट्राइबल्स’ के माध्यम से, हमने फाउंडेशन ऑफ रिसर्च एंड इनोवेशन इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी (FIRST) में आदिवासी उद्यमियों को अपने व्यवसायों के प्रभाव को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किया है, इसने आदिवासी उद्यमियों को व्यावसायीकरण के रास्ते पर लाने में मदद की है। यह उपलब्धि टीम को प्रेरित करेगी और कार्यक्रम के लाभार्थियों को और अधिक लाभ प्राप्त कराने के लिए उनके प्रयासों में ऊर्जा का संचार करेगी ।”

प्रो अमिताभ बंद्योपाध्याय, प्रोफेसर-इनचार्ज, इनोवेशन एंड इनक्यूबेशन, आईआईटी कानपुर ने पीएमयू टीम को उनके प्रयासों के लिए सराहना की, उन्होंने कहा कि,“इस उपलब्धि ने हमारी टीम को आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए उत्साह से काम करने के लिए प्रेरित किया है। हमारा मानना है कि “टेक फॉर ट्राइबल्स’  में लाभार्थियों के प्रभाव और परिणामों को और मजबूत करने की जबरदस्त क्षमता है, जो देश के सामाजिक प्रभाव को बढ़ाने में मददगार होगी । हम भारत में आदिवासी समुदायों में अद्वितीय समर्पण के साथ काम करना जारी रखेंगे।”

“टेक फॉर ट्राइबल्स’ कार्यक्रम के तहत, आईआईटी कानपुर मूल्य संवर्धन और वन उत्पादों के प्रसंस्करण में आदिवासी और ग्रामीण उद्यमिता के लिए प्रासंगिक पाठ्यक्रम सामग्री विकसित कर रहा है। परियोजना प्रबंधन इकाई (पीएमयू) टीम ने कौशल निर्माण प्रयासों के माध्यम से स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की स्थिरता में योगदान देने वाले प्रमुख हस्तक्षेपों को लागू किया है। टेक फॉर ट्राइबल्स एक गेम चेंजिंग, एक अनूठी परियोजना है जिसका उद्देश्य वनधन योजना के तहत नामांकित आदिवासी वन उपज संग्रहकर्ताओं को उद्यमिता कौशल प्रदान करके 5 करोड़ जनजातीय उद्यमियों में बदलना है। प्रशिक्षुओं को छह सप्ताह में 30-दिवसीय कार्यक्रम से गुजरना होगा, जिसमें 120 सत्र शामिल होंगे, जिसका उद्देश्य आदिवासी उद्यमियों और शहरी बाजारों के बीच की खाई को पाटना होगा।

फाउंडेशन ऑफ रिसर्च एंड इनोवेशन इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी, आईआईटी कानपुर के बारे में

वर्ष 2000 में स्थापित, स्टार्ट-अप इनक्यूबेशन एंड इनोवेशन सेंटर (एसआईआईसी), आई आई टी  कानपुर, अपनी कई सफलताओं के साथ सबसे पुराने प्रौद्योगिकी व्यवसाय इन्क्यूबेटरों में से एक है। 2018 में नेतृत्व द्वारा आईआईटी कानपुर द्वारा प्रवर्तित एक सेक्शन -8 कंपनी, फाउंडेशन ऑफ रिसर्च एंड इनोवेशन इन साइंस एंड टेक्नोलॉजी (FIRST) के तहत इनक्यूबेटर के संचालन को लाया गया । दो दशकों में पोषित बहुआयामी, जीवंत ऊष्मायन पारिस्थितिकी तंत्र का उद्देश्य एक विचार को व्यवसाय में परिवर्तित करने की यात्रा में आने वाले सभी अवरोधों को दूर करना है।

FIRST के स्टार्टअप्स में पाथब्रेकिंग इनोवेशन के साथ इनक्यूबेटर का लक्ष्य पिरामिड के निचले हिस्से में प्रभाव पैदा करना है। FIRST ने अनुभव आधार और पारिस्थितिकी तंत्र विकसित किया है जो कृषि, स्वास्थ्य सेवा, एयरोस्पेस, ऊर्जा, पानी और शिक्षा जैसे डोमेन में प्रतिमानों को बाधित करने वाले प्रारंभिक चरण, प्रौद्योगिकी-केंद्रित स्टार्टअप के विकास में महत्वपूर्ण तत्व बन गए हैं।

“भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य” के लिए “जीवन शैली” में 5 सुधार!

  • इन परिवर्तनों को करने से आपके जीवन के सभी पहलुओं में लाभ होगा।
  • यह आपके मूड को बढ़ा सकता है, लचीलापन बना सकता है।
  • आपके जीवन के संपूर्ण आनंद को बढ़ा सकता है।

मनीष नागर – “ग्रोथ मार्केटर और प्रैक्टिशनर लाइफ कोच”!

1.     एक चीज पर फोकस करें (पल में)।

दिनचर्या की गतिविधियों के प्रति जागरूकता लाकर शुरुआत करें, जैसे कि स्नान करना, दोपहर का भोजन करना। इन अनुभवों की शारीरिक संवेदनाओं, ध्वनियों, गंधों या स्वाद पर ध्यान देने से आपको ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है।

2.     अपने आप को कुछ सकारात्मक बताएं।

अनुसंधान से पता चलता है कि आप अपने बारे में कैसा सोचते हैं, इसका आपके महसूस करने पर एक शक्तिशाली प्रभाव हो सकता है। जब हम अपने आप को और अपने जीवन को नकारात्मक रूप से देखते हैं, तो हम अनुभवों को इस तरह से देख सकते हैं जो उस धारणा की पुष्टि करता है। इसके बजाय, आत्म-मूल्य और व्यक्तिगत शक्ति की भावनाओं को बढ़ावा देने वाले शब्दों का उपयोग करने का अभ्यास करें।

3. किसी ऐसे व्यक्ति से बात करें और साझा करें जिस पर आप भरोसा कर सकते हैं।

यह जानना कि आप दूसरों द्वारा मूल्यवान हैं, आपको अधिक सकारात्मक सोचने में मदद करने के लिए    महत्वपूर्ण है। भरोसा करना आपके भावनात्मक कल्याण को बढ़ा सकता है।

4. किसी ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ करें जिसे मदद की जरूरत हो।

शोध से पता चलता है कि दूसरों की मदद करने से आप अपने बारे में कैसा महसूस करते हैं, इस पर लाभकारी प्रभाव पड़ता है। मददगार और दयालु होना — और जो आप करते हैं उसके लिए मूल्यवान होना — आत्म-सम्मान बनाने का एक शानदार तरीका है।

5. एक ब्रेक लें। कभी-कभी करने के लिए सबसे अच्छी बात एक साधारण साँस लेने का व्यायाम है। अपनी आँखें बंद करें और 10 गहरी साँसें लें। हर एक गिनती के लिए। यह लगभग तुरंत अद्भुत काम करता है।

राजनीति उत्तराखंड की : नमो मंत्र के जप से ही भाजपा की सिद्धि !

योगेश भट्ट

वरिष्ठ पत्रकार

यह तो साफ है कि उत्तराखंड में सियासी रण चेहरों और समीकरणों का है। भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले में भाजपा मजबूत स्थिति में तो है मगर अजेय नहीं है। आम मतदाता का भी भाजपा से भरोसा दरक रहा है।

हालात गंभीर हैं, इसका अंदाजा प्रदेश संगठन से लेकर भाजपा हाईकमान को भी है। संभवत: इसी कारण पार्टी हाईकमान ने पांच साल में तीन बार मुख्यमंत्री बदलने का जोखिम उठाया। वह भी यह जानते हुए कि मुख्यमंत्री बदलने के सियासी प्रयोग को जनता खारिज करती आई है।

फिलहाल उत्तराखंड की सत्ता में वापसी करना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है।  एक बड़ा सवाल तो यही है कि क्या इस बार मुख्यमंत्री बदलने का यह प्रयोग कामयाब हो पाएगा ?

हालांकि बदलाव और संक्रमण के दौर में स्थितियां इस बार कुछ अलग हैं। भाजपा ने प्रदेश में पुष्कर धामी के रूप में तीसरी पीढ़ी को सरकार का नेतृत्व सौंप कर बड़ा सियासी दांव चला है

। जहां तक चेहरे का सवाल है तो मोदी का आज भी कोई विकल्प नहीं है और रही बात समीकरणों की तो उसके लिए भाजपा सरकार और संगठन दोनों मोर्चों पर किलेबंदी में जुटी है। भाजपा की किलेबंदी और समीकरण कांग्रेस की रणनीति के आगे कितने कामयाब होते हैं यह एक अलग विषय है।

 अब आते हैं मुद्दे पर, मुद्दा है राजनैतिक अस्थिरता। उत्तराखंड में राजनीतिक अस्थिरता भाजपा की  कमजोर नब्ज है। राजनीतिक अस्थिरता से राजकाज तो प्रभावित होता ही है, तमाम और सवाल भी उठते हैं। विपक्षी कांग्रेस तो कह ही चुकी है कि भाजपा खिलौनों की तरह मुख्यमंत्री बदलती है।

राजनीतिक अस्थिरता होगी तो सवाल तो उठेंगे ही।  राज्य में 40 फीसदी से अधिक वोट हासिल करने वाली भाजपा का नेतृत्व आखिर कमजोर क्यों है ? क्यों पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदलने पड़े ? क्यों प्रचंड बहुमत की सरकार राजनीतिक स्थिरता नहीं दे पाई ? क्यों राज्य में नेतृत्व नहीं उभर पा रहा है ? चाहकर भी  इन सवालों से बचा नहीं जा सकता। ये सवाल आम जनता या मतदाता को ही नहीं, भाजपा के कैडर को भी विचलित कर रहे हैं।

उत्तराखंड में भाजपा ने बीते चार महीनों में चार बड़े बदलाव की किए। चुनावी साल में त्रिवेंद्र को हटाकर तीरथ को मुख्यमंत्री बनाया, संगठन की कमान बंशीधर भगत से हटाकर मदन कौशिक को सौंपी, तीरथ को चार महीने पूरे करने से पहले ही हटाकर युवा चेहरे पुष्कर धामी को मुख्यमंत्री बनाया और  हरिद्वार से सांसद एवं पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को हटाकर अजय भट्ट को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया।

पार्टी में इन फैसलों पर न सवाल उठे और न कोई विरोध हुआ। आलोचना, सहमति और असहमति से इतर इन चार फैसलों से यह तो साफ है कि भाजपा में पद और व्यक्ति का कोई महत्व नहीं। महत्व सिर्फ संगठन और दायित्व का ही है। मगर दूसरी और राज्य के नेताओं की नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठे।  यह भी स्पष्ट हुआ कि राज्य का नेतृत्व कमजोर और अपरिपक्व है।

मुख्यमंत्रियों को बदलना भाजपा के लिए कोई नया नहीं है। उत्तराखंड में तो भाजपा ने अपने हर शासनकाल में चुनाव पूर्व मुख्यमंत्री बदलने का प्रयोग किया है। दिलचस्प यह है कि मुख्यमंत्री बदलने के सियासी प्रयोग को हर बार जनता ने खारिज किया है।

तकरीबन ढाई दशक पहले भाजपा ने दिल्ली में भी पांच साल में तीन बार मुख्यमंत्री बदलने का प्रयोग किया तो वहां भी नाकाम रहा। तब दिल्ली में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना ने जैन डायरी में आने पर जब नैतिक तौर पर इस्तीफा दिया तो भाजपा ने पहले साहिब सिंह वर्मा  और फिर लोकप्रिय नेता सुषमा स्वराज दिल्ली की कमान सौंपी। उस वक्त  सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के बावजूद दिल्ली में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा।

अब तो स्थितियां बदली हुई हैं। देश का सबसे बड़ा राजनीतिक और विश्व का सबसे अधिक प्राथमिक सदस्यता वाला यह दल बदलाव और संक्रमण के दौर में है। संगठन बदलाव के दौर में है। जो भाजपा के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ वह अब हो रहा है।

अब रणनीतिक तौर पर भाजपा रक्षात्मक नहीं बल्कि आक्रामक है। अभी तक भाजपा  नीति, रीति, विचार, सिद्धांत, राजनीतिक शुचिता, स्वच्छता  और बूथ मैनेजमेंट के जरिए घर घर पहुंचने के लिए जानी जाती थी। अब भाजपा तमाम वर्जनाओं को तोड़ते हुए काफी आगे निकल चुकी है।

बदलाव का पार्टी को लाभ भी हुआ तो नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। अब बदलती भाजपा ने अपना कुनबा तेजी से बढ़ाया है। देश के तमाम राज्यों में सत्ता भी हासिल की है। उत्तराखंड, असम, पश्चिम बंगाल में ऐसे-ऐसे प्रयोग हुए जिनकी भाजपा में एक वक्त कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जिनका भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस से तो दूर, कभी भाजपा तक से जुड़ाव नहीं रहा, उन्हें पार्टी में शामिल कर महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे जाते हैं।

उत्तराखंड को ही लें, कांग्रेस सरकार के जिस मुख्यमंत्री को भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कटघरे में खड़ा करती रही उसे ही पार्टी में शामिल कर लिया गया। जिन मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप रहे, उन्हें ही अपनी सरकार में शामिल कर लिया गया। नुकसान यह रहा कि राज्यों में मजबूत नेतृत्व नहीं उभर पाया।

 राज्यों में  मौजूदा  राजनीतिक अस्थिरता कहीं न कहीं इसी का दुष्परिणाम हैं। पार्टी में आंतरिक कलह और गुटबाजी चरम पर पहुंच चुकी है। पार्टी के लिए समर्पित रहे नेता और कार्यकर्ता कहीं न कहीं उपेक्षित महसूस कर रहे  हैं। हाशिए पर खड़े पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं में निराशा घर कर गई है। कुल मिलाकर जो सियासी रोग और खामियां दूसरे दलों में थीं उनमें भाजपा भी जकड़ने लगी है।

भाजपा को आसन्न चुनौतियों से पार पाने के लिए चौकन्ना रहने की जरूरत है। उत्तराखंड में  पिछले दिनों सरकार में नेतृत्व परिवर्तन के दौरान उतार-चढ़ाव के बाद भाजपा ने मनोवैज्ञानिक बढ़त तो ली है। खेल चेहरों का है । पुष्कर सिंह धामी को कमान सौंप कर भाजपा हाईकमान ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। कांग्रेस भले ही यह कह रही हो कि भाजपा खिलौनों की तरह मुख्यमंत्री बदल रही है लेकिन हकीकत यह है कि धामी ‘एक्सीडेंटल’ नहीं बल्कि ‘रणनीतिक’ मुख्यमंत्री हैं।

धामी के जरिए भाजपा ने अभी तक कांग्रेस के लिए मुफीद माने जा रहे कुमाऊं और तराई में हरीश रावत के लिए बड़ी चुनौती खड़ी की है। वहीं दूसरी ओर हरिद्वार से तेजतर्रार नेता मदन कौशिक को कैबिनेट मंत्री के दायित्व से मुक्त कर संगठन की कमान सौंपकर और युवा नेता धन सिंह रावत को मजबूत कर क्षेत्रीय के साथ ही जातिगत संतुलन साधने की कोशिश की है।

बता दें कि 2022 के लिए भाजपा ने 60 सीटों का लक्ष्य रखा है। यह टारगेट बड़ा इसलिए है क्योंकि 57 सीटों पर तो भाजपा अभी है ही। ऐसा नहीं है कि भाजपा के लिए यह आसान है और सब कुछ भाजपा की रणनीति के मुताबिक संभव है।

भाजपा में भी दिक्कतें हैं। कुर्सी का संघर्ष, खेमेबंदी, सरकार और संगठन की रस्साकसी, नेताओं और कार्यकर्ताओं की नाराजगी यहां भी बराबर है। कभी दो ध्रुवों में बंटी भाजपा में अब कई छोटे-बड़े ‘मठ’ स्थापित हो चुके हैं। सियासत के पुराने बरगद यहां भी नई पौध के आड़े आ रहे हैं, मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए भाजपा की अंदरूनी कलह तो जगजाहिर है ही।

फिलहाल भाजपा में किलेबंदी जारी है। नए मुख्यमंत्री पर कम ओवरों में बड़ा लक्ष्य हासिल करने के लिए सधी बल्लेबाजी करने का दबाव है। शुरुआत अच्छी है मगर पूरा दारोमदार धामी के अगले सौ दिनों पर है। धामी सरकार के अगले सौ दिन सिर्फ भाजपा का ही नहीं बल्कि उनका भी सियासी भविष्य तय करेंगे।  जारी….

कहानी : जेहादी नहीं डाक्टर बनेगा बेटा…

लेखक : मनीष शुक्ल

“साब! आप लोग घूमो, फिरो, यहाँ के नजारे लो, बरफ देखो, शिकारे पर जाओ कहवा पियो और हसीन यादें लेकर हिंदुस्तान लौट जाओ।“ यह सुनते ही शर्मा जी चौंक पड़े। वो टूरिस्ट गाइड था और कई दिनों से वो मिस्टर शर्मा को कश्मीर घूमा रहा था, अब उनके साथ घुल मिल गया था लेकिन कश्मीर को देश का हिस्सा मानने में संकोच कर रहा था। मिस्टर शर्मा ने जब उसके मुंह से सुना कि नजारे लेकर हिंदुस्तान लौट जाओ तो वो चौंक गए। उन्होने उससे सवाल किया कि क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है तो वो खामोश हो गया।

अब्दुल गनी कुछ देर की खामोशी के बाद बोला। “साब! आप लोग बुरे नहीं हो। आप जैसे टूरिस्ट से हमारी रोजी-रोटी चलती है लेकिन हिंदुस्तान की सरकारें हमारे साथ सौतेला व्यवहार करती आई हैं।““क्या किया तुम्हारे साथ सरकार ने?” शर्मा जी ने पलटकर सवाल पूछा तो वो बोला कि कश्मीर हमारा मुल्क है लेकिन धारा 370 हटाकर हमारी आजादी छीन ली। इंडिया की सरकार ने परेशान किया। कईयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। फिर हमने भी जेहाद कर अपने हाथों में पत्थर उठा लिए।

तुम कैसे कह सकते हो कि सरकार ने लोगों को मारा। देश में और भी स्थानों पर बवाल हुए हैं। लोग मारे भी गए लेकिन लोगों ने अपने ही देश के खिलाफ नारे तो नहीं लगाए। जो देश आपको सुविधाएं दे रहा है। पाल रहा है, उसको गाली कैसे दे सकते हो? शर्मा जी के सवाल पर अब्दुल ने कहा कि “ हमें आजादी चाहिए। पाकिस्तान हमारे हक में आवाज बुलंद करता है जबकि हिंदुस्तान हमें दबाना चाहता है।“ “आजादी? क्या तुम आजाद नहीं हो? क्या यहाँ के बेटे- बेटियाँ पूरे मुल्क में नाम रोशन नहीं कर रहे हैं। अगर तुम विरोध करते हो तो सरकार तुम्हारी बात सुनती है या नहीं? फिर अपने ही मुल्क के खिलाफ इतनी नफरत क्यों?” “साब! हम तो अपना और अपने बच्चों का खुशहाल भविष्य चाहते हैं। जब तक हमारे साथ सौतेला व्यवहार किया जाता रहेगा, तब तक यहाँ अमन कायम नहीं होगा।“ शर्मा जी अब्दुल को समझाने की कोशिश कर रहे थे कि तभी उसका लड़का दौड़ता हुआ आया और अपने अब्बू के गले लग गया। उसने बताया कि उसका आल इंडिया मेडिकल टेस्ट में सेलेक्शन हो गया है। अब वो दिल्ली जाकर पढ़ाई कर सकेगा। अब्दुल यह सुनकर खुशी से उछल पड़ता है। वो अपने बेटे को चूम कर खुशी जाहिर करता है। “देखा साब! यहाँ के लड़के कितने टैलेंटेड और मेहनतकश हैं। मेरे लड़के ने भी दिन रात पढ़ाई की, अब वो डाक्टर बन सकेगा।“ मिस्टर शर्मा यह सुनकर मुस्कराने लगे। उन्होने पूछा कि “अब वो इसी सिस्टम में रहकर डॉक्टर बनेगा। क्या तुम उसको अपनी आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं करोगे? क्या साब आप भी? ये भी कोई पूछने वाली बात है। मेरा बेटा दिल्ली जाएगा और डॉक्टर बनेगा !!

पुलिस थाना मानवाधिकार उल्लंघन का सबसे बड़ा अड्डा: सीजेआई

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सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने पुलिस थानों को मानवाधिकार उल्लंघन का सबसे बड़ा अड्डा बताया है। नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी के एक कार्यक्रम में संबोधन में सीजेआई ने कहा, “संवैधानिक घोषणाओं और गारंटी के बावजूद पुलिस स्टेशनों में कानूनी प्रतिनिधित्व की कमी गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्ति के लिए बड़ी हानि है। “

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि कस्टोडियल टॉर्चर और अन्य पुलिस बर्बरता उन समस्याओं में से हैं, जो आज भी समाज में मौजूद हैं। थानों के शुरुआती घंटों में लिए गए फैसले तय करते हैं कि आरोपी बाद में खुद का कितना बचाव कर पाता है। हाल की रिपोर्ट्स देखें तो पता चलेगा कि विशेषाधिकार प्राप्त लोग भी थर्ड-डिग्री से नहीं बच पाए हैं।” सीजेआई रमना ने कहा कि पुलिस की ‘ज्यादतियों’ को नियंत्रण में रखने के लिए कानूनी मदद के संवैधानिक अधिकार और मुफ्त कानूनी मदद की जानकारी लोगों तक पहुंचाना जरूरी है. उन्होंने कहा, “हर पुलिस स्टेशन/जेल में डिस्प्ले बोर्ड और आउटडोर होर्डिंग लगाना इस दिशा में पहला कदम होगा।” “जरूरतमंदों को मुफ्त कानूनी मदद देने की धारणा की जड़ें आजादी के आंदोलन में हैं. उन दिनों में बड़ी कानूनी शख्सियतों ने स्वतंत्रता सेनानियों के केस मुफ्त में लड़े थे. सेवा की इस भावना का प्रतिबिंब संविधान में दिखता है. वहीं कानूनी शख्सियतें संविधान सभा की सदस्य भी रहीं।” उन्होने ‘न्याय तक सभी की पहुंच’ के लिए काम करने पर जोर दिया। कहा कि “ये जरूरी है कि हम कानून के शासन के अधीन रहने वाला समाज बने रहें।”

काकोरी कांड ने लिखी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की नई दास्तान

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20 सदी के दो दशक पूरा होने के साथ ही देश में सम्पूर्ण आजादी की मांग तेज हो गई थी। इस दौर के प्रखर राष्ट्रवाद की तपिश में लाखों युवा अपनी आहुती देने को तैयार थे। तो दूसरी ओर महात्मा गांधी के उदय के साथ ही अंग्रेजों से लड़ाई के लिए अहिंसा को हथियार बनाया जा रहा था। इसी समय  फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड में हिंसा के बाद गांधी जी ने ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया जिससे उस समय के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई ऐतिहासिक आंदोलन हुए जिसमें काकोरी कांड का महत्वपूर्ण स्थान है। आजादी के इतिहास में असहयोग आंदोलन के बाद काकोरी कांड को एक बहुत महत्वपूर्ण घटना के तौर पर देखा जा सकता है।  क्योंकि इसके बाद आम जनता अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए क्रांतिकारियों की तरफ और भी ज्यादा उम्मीद से देखने लगी थी. लोगों में गरम दल के प्रति सम्मान बढ़ने लगा और आज़ादी की नई किरण सामने नज़र आने लगी।

9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती डाली थी। इसी घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है. काकोरी ट्रेन डकैती में खजाना लूटने वाले क्रांतिकारी देश के विख्यात क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ के सदस्य थे. क्रांतिकारियों का मूल मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई और प्रभावी ढंग से लड़ी जा सके। काकोरी कांड को अंग्रेजों ने अपनी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था। जिसका पता हमें इस बात से चलता है कि महज 4600 रुपये लूटने वाले इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने के लिए करीब 10 लाख रुपये खर्च किए थे।

इस लूट की व्याख्या करते हुए लखनऊ के पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने कहा कि , ‘डकैत क्रांतिकारी खाकी कमीज और हाफ पैंट पहने हुए थे। उनकी संख्या 25 थी। यह सब पढ़े-लिखे लग रहे थे. पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, वे वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रांतिकारी घटनाओं में प्रयुक्त किए गए थे।’

इस घटना के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी. देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुई. हालांकि काकोरी ट्रेन डकैती में 10 आदमी ही शामिल थे, लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया. जवाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी समेत बड़े-बड़े लोगों ने जेल में क्रांतिकारियों से मुलाकात की। काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला. इस पर सरकार का 10 लाख रुपये खर्च हुआ. छह अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ. जज हेमिल्टन ने धारा 121अ, 120ब, और 396 के तहत क्रांतिकारियों को सजा सुनाईं।