दिलीप कुमार
लेखक
बिहार के ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म तीसरी कसम हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म अपने आप में सिल्वर स्क्रीन पर फ्लॉप हो जाने के बाद भी अपनी सफलता की कहानी बयां करती है!
फणीश्वरनाथ रेणु की लघुकथा ‘मारे गए गुलफाम’ की कहानी में प्रेम को परिभाषित करती हुई फिल्म ‘तीसरी कसम’ सिने प्रेमियों एवं साहित्य पर रुचि रखने वाले दर्शकों – पाठकों के लिए आज भी प्रासंगिक है,जिसको राजकपूर ने अपने मूलत : यादगार अभिनय से सीधे – सादे गंवई मासूम बैलगाड़ी चालक हीरामन नामक भूमिका को यादगार बना दिया. ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म एवं मारे गए गुलफाम लघुकथा दोनों ही दर्शकों एवं पाठकों के लिए एक साहित्यिक धरोहर हैं!
एकमात्र फिल्म के निर्देशक गीतकार शैलेन्द्र ‘तीसरी कसम’ में मीना कुमारी एवं महमूद को कास्ट करना चाहते थे. बाद में उन्हें एहसास हुआ,कि गंवई, आदमी के किरदार में राजकपूर से बेहतर कौन हो सकता है! बाद में उन्होंने मीना कुमारी महमूद का विचार तज दिया. ग्रेट राज कपूर ने फिल्म की फीस एक रुपया लिया था, क्योंकि शैलेन्द्र एवं राजकपूर दोनों जिगरी दोस्त थे. देव साहब की जोड़ी एस डी बर्मन(बर्मन दादा) के साथ, दिलीप कुमार की जोड़ी नौशाद के साथ, वहीँ राजकपूर की जोड़ी कविराज शैलेन्द्र के साथ जमी और प्रसिद्ध हुई. आज के दौर में यह सब अतीत हो चुका. प्रासंगिक है तो केवल व्यवसाय केवल और केवल व्यवसाय……
राजकपूर साहब मासूम आदमी की भूमिका में, सीधे सादे भोले आदमी के रोल मे जब होते हुए वो पर्दे पर किरदार को जीते थे. मासूम सीधे आदमी के किरदार में उनका कोई सानी नहीं था. सिल्वर स्क्रीन पर तालियां, ग्लैमर, अकूत पैसा, आदि नहीं बल्कि सिनेमैटोग्राफी की जहीन समझ ग्रेट राज कपूर को शोमैन बनाती है. शूटिंग के वक़्त कौन सा कैमरा किस एंगिल में रहेगा, कौन सा शॉट किस एंगल में सटीक होगा, टेकनीशियन आदि को भी राज कपूर रास्ता दिखा देते थे.
यूँ तो वहीदा रहमान सीरियस, रोमांस, संजीदा अभिनय आदि में कंप्लीट पैकेज थीं. ‘तीसरी कसम’ फिल्म में उदार नाट्यकर्मी की भूमिका में हीराबाई यानि वहीदा रहमान बेजोड़ अभिनय करती हैं.
राज कपूर एवं वहीदा रहमान दोनों के सर्वोत्तम अभिनय से सधी हुई कहानी के कारण तीसरी कसम अपनी सफलता की कहानी खुद सुनाती है. आज तीसरी कसम मील का पत्थर साबित मानी जाती है. इसका सबसे ज्यादा योगदान शो मैन राज कपूर को जाता है. तत्कालीन परिस्थितियों में फिल्म सिल्वर स्क्रीन पर नकार दिए जाने के बाद भी आज इस फिल्म को हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म माना जाता है.इसका सबसे ज्यादा योगदान साहित्यक कृति ‘मारे गए गुलफाम’ के लेखक ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ जिन्होंने फिल्म में शानदार संवाद भी लिखा.
गंवई अंदाज़ में राज कपूर के लिए शानदार संवाद लिखा गया. वहीँ राजकपूर भी संवाद अदायगी में सारी लकीरों को क्रॉस कर जाते हैं. राज कपूर साहब के सामने एक पल के लिए वहीदा रहमान भी अप्रभावी दिखती हैं. राज कपूर साहब का तिलिस्म आज भी कायम है. सबसे ज्यादा तीसरी कसम के लिए, वहीँ किसी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाना हमेशा ही रिस्की रहा है, क्योंकि भारतीय दर्शकों की साहित्यिक समझ न के बराबर है.अधिकांश फ़िल्में पिट जाती हैं, लेकिन तीसरी कसम के साथ यह आरोप नहीं लगा न ही कोई लगा सकता है. ख़ासकर साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्में बनी हैं, सफलता – असफलता से पहले ही उपन्यासों के लेखकों से हमेशा नाराज़गी जाहिर की है, कि हमारी साहित्यक रचना के साथ न्याय नहीं हुआ, क्योंकि सबसे बड़ी समस्या है, एक बड़े उपन्यास को दो तीन घंटे की फिल्म में दिखाना, एवं उसकी कहानी छोटी न हो ऐसे हो ही नहीं सकता. उपन्यास एवं सम्बंधित कहानी का लेखक एक भी भाग छोड़ने देने की इजाजत क्यों देंगे. सबसे बड़ी खाई यहीं खुद जाती है. सबसे बड़ा जोखिम भी यही है,लेकिन ‘मारे गए गुलफाम’ पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ इस विवाद से भी परे है. राज कपूर, कविराज शैलेन्द्र, फणीश्वर नाथ रेणु, बासु भट्टाचार्य, आदि ने क्या बेहतरीन समन्वय स्थापित किया, जो सीखने योग्य है.
यह फ़िल्म उस समय व्यावसायिक रूप से सफ़ल नहीं रही थी, लेकिन फिल्म ‘तीसरी कसम’ आज अदाकारों के श्रेष्ठतम अभिनय तथा दूरदर्शी निर्देशन के लिए जानी जाती है. इस फ़िल्म के बॉक्स ऑफ़िस पर फ्लॉप हो जाने के कारण निर्माता गीतकार शैलेन्द्र को काफ़ी बड़ी ठेस पहुंची थी. उन्होंने कहा कि समझ नहीं आता, कि भारतीय दर्शकों का टेस्ट क्या है? कभी – कभार ही बन सकती हैं, ‘तीसरी कसम’ जैसी फ़िल्में, फ़िर भी साहित्य को सिल्वर स्क्रीन पर फ़िल्माया जाना अपने आप में एक जोखिम का काम है, क्योंकि गीतकार शैलेन्द्र को इस फिल्म से काफी उम्मीदें थीं. फिल्म बुरी तरह से पिट गई. गीतकार शैलेन्द्र को बहुत नुकसान हुआ, आखिरकार वो बहुत निराश हो चुके थे, कहते हैं, कि अगले साल ही गीतकार शैलेन्द्र निधन हो गया, और इस फिल्म की असफ़लता ही उनकी मौत का कारण बनी!
‘तीसरी कसम’ फिल्म को तत्काल बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता नहीं मिली थी, पर यह हिन्दी के श्रेष्ठतम फ़िल्मों में गिनी जाती है. कई बार फ़िल्में दर्शकों को आकर्षित नहीं कर पातीं, क्योंकि भारतीय दर्शकों को कला वाली फ़िल्में कम ही आकर्षित करती हैं. व्यवसायी फ़िल्मों का अपना महत्व है, उनका अपना मार्केट है. ‘मेरा नाम जोकर’ हिन्दी सिनेमा की कालजयी फिल्म मानी जाती है. स्वः राज कपूर ने इस फिल्म को काफी समय लेते हुए बड़ी उम्मीदों के साथ बनाया था. फ्लॉप होने के बाद अर्थिक रूप से तबाह हो गए थे. बॉबी ने उबार दिया था. ऐसे ही फ्लॉप फ़िल्में जो पर्दे पर फ्लॉप हो गईं देर से ही सही उनको वो मुकाम मिला.
बिहार का गांव और ग्रामीण पृष्ठभूमि पर चली सधी कलम और वो भी प्रेम की अद्भुत दास्तान तीसरी कसम जिसे 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार मिला. इस प्रेम कहानी को सिल्वर स्क्रीन पर राजकपूर एवं वहीदा रहमान ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया. आज तक जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनीं, तीसरी कसम इनमें सबसे अलग है. फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ एक अंचल की कथा है. जिसका परिवेश ग्रामीण है, जहां जीविकोपार्जन का साधन कृषि और पशु-पालन है. इस कहानी के मूल पात्र हीरामन और हीराबाई हैं. ‘तीसरी कसम’ अपने दोनों माध्यमों में ऊंचे दरजे का सृजन है. इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है. आजादी के बाद भारत के ग्रामीण समाज को समझने के लिए ‘तीसरी कसम’ मील का पत्थर साबित हुई. हीरामन(राज कपूर) एक गाड़ीवान है, फ़िल्म की शुरुआत एक ऐसे दृश्य के साथ होती है, जिसमें वो अपना बैलगाड़ी को हाँक रहा है और बहुत खुश है, थोड़ी देर बाद उसकी बैलगाड़ी का टक्कर हो जाता है, जिससे दो लोग सीधे – सादे हीरामन को बेतहासा मारने लगते हैं, तब हीरामन गिड़गिड़ाता हुआ कहता है, जान कर नहीं किया धोखे से हो गया अब नहीं करूंगा, यह सीन सबसे शानदार अंश था.
बाद में उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई (वहीदा रहमान) बैठी है. वहीं हीराबाई हीरामन को कहती हैं, कि मैं तुम्हें भैया नहीं, क्योंकि हमारा नाम एक ही है, इसलिए तुम्हें मीता कहूँगी. हीरामन की खुशी सातवें आसमान पर होती है. हीरामन(राज कपूर) वहीं उकडूं बैठकर कई कहानियां सुनाते और लीक से अलग ले जाकर हीराबाई को कई लोकगीत सुनाते हुए, ख़ासकर एक नदी के घाट पर कुंवारी लड़कियों का नहाना वर्जित है,क्योंकि वो सुनाते हैं, महुआ नामक लड़की एवं उसकी सौतेली माँ की कहानी जो अपने प्रेमी से प्रेम करती है, लेकिन उसकी माँ उसी घाट पर महुआ को बेंच देती है. इसलिए यहां कुवांरी लड़कियां नहीं नहाती. वहीं हीरामन, हीरा बाई को सर्कस के आयोजन स्थल तक पहुँचा देता है. इस बीच उसे अपने पुराने दिन याद आते हैं, और लोककथाओं और लोकगीत से भरा यह अंश फिल्म के आधे से अधिक भाग में है. इस फ़िल्म का संगीत शंकर जयकिशन ने दिया था. हीरामन अपने पुराने दिनों को याद करता है, जिसमें एक बार नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे अपने बैलों को छुड़ा कर भगाना पड़ता है. इसके बाद उसने कसम खाई कि अब से “चोरबजारी” का सामान कभी अपनी गाड़ी में नहीं लादेगा. उसके बाद एक बार बांस की लदनी से परेशान होकर उसने प्रण लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बांस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा. हीराबाई नायक हीरामन की सादगी से इतनी प्रभावित होती है कि वो मन ही मन उससे प्रेम कर कर बैठती है. उसके साथ मेले तक आने का 30 घंटे का सफर कैसे पूरा हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता हीराबाई हीरामन को उसके नृत्य का कार्यक्रम देखने के लिए पास देती है. जहां हीरामन अपने दोस्तों के साथ पहुंचता है, लेकिन वहां उपस्थित लोगों द्वारा हीराबाई के लिए अपशब्द कहे जाने से उसे बड़ा गुस्सा आता है, वो उनसे झगड़ा कर बैठता है. हीराबाई से कहता है कि वो ये नौटंकी का काम छोड़ दे. उसके ऐसा करने पर हीराबाई पहले तो गुस्सा करती है, लेकिन हीरामन के मन में उसके लिए प्रेम और सम्मान देख कर वो उसके और करीब आ जाती है. इसी बीच गांव का जमींदार हीराबाई को बुरी नजर से देखते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास करता है, और उसे पैसे का लालच भी देता है. नौटंकी कंपनी के लोग और हीराबाई के रिश्तेदार उसे समझाते हैं, कि वो हीरामन का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दे, अन्यथा जमींदार उसकी हत्या भी करवा सकता है. यही सोच कर हीराबाई गांव छोड़ कर हीरामन से अलग हो जाती है. फिल्म के आखिरी हिस्से में रेलवे स्टेशन का दृश्य है, जहां हीराबाई हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसके पैसे उसे लौटा देती है. जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे दिए थे. उसके चले जाने के बाद हीरामन वापस अपनी गाड़ी में आकर बैठ कर जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है, तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं “मारो नहीं”और वह फिर उसे याद कर मायूस हो जाता है.
अन्त में हीराबाई के चले जाने और उसके मन में हीराबाई के लिए उपजी भावना के प्रति हीराबाई के बेमतलब रहकर विदा लेने के बाद उदास मन से वो तीसरी क़सम खाता है, कि अपनी गाड़ी में वो कभी किसी नाचने वाली को नहीं ले जाएगा. हीरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिडकी दी, दुआली से मारे हुए बोला, “रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो?” दोनों बैलों ने कदम खोलकर चाल पकडी. हिरामन गुनगुनाने लगा- “अजी हाँ, मारे गए गुलफाम….
लघुकथा लिखने वाले ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ कितने ज़हीन थे, फिल्म की पृष्ठभूमि को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है. वहीँ राजकपूर जैसा व्यक्ति पूरा गंवई लगता है, एवं बोलता है, तो ऐसे लगता है, कोई गांव का अनपढ़ आदमी हैं. वहीँ उनके फिल्म के संवाद भी आम बोलचाल की भाषा में हैं. शंकर – जयकिशन का संगीत, वहीँ गीतकार शैलेन्द्र ही निर्माता हैं. ग्रेट निर्माता, निर्देशक राजकपूर साहब भी केवल अभिनेता के रूप में रहे. बासु भट्टाचार्य, दूरदर्शी निर्देशक फिल्म आज देखने पर सिनेमाई दृष्टि एवं साहित्य की दृष्टि से सीखने के लिए बेशुमार सम्भावनाएं हैं. हिन्दी सिनेमा में फ़िल्मों का फ्लॉप होना बड़ी बात नहीं है, एक फिल्म की असफ़लता से हमें बेशकीमती कविराज शैलेन्द्र जैसे कोहिनूर को खो देने का डर होना चाहिए. कोई भी सकारात्मक आदमी, रचनात्मक, सृजनशीलता के खिलाफ नहीं हो सकता, प्रत्येक सिने प्रेमी के मन में सृजनशीलता के लिए सहयोग आदर का भाव होना चाहिए. तीसरी कसम फिल्म का अतीत, वर्तमान, सब सीखने के लिए बहुत हैं, बटोर लीजिए जो बटोर सकते हैं!