अरविंद जयतिलक
‘ईश्वर से आरजू है जब जान से जाऊं, जिस शान से आया हूं उस शान से जाऊं’। राममंदिर आंदोलन के महानायक और राजनीति के देदीप्यमान नक्षत्र कल्याण सिंह अब नहीं रहे। वे जब तक रहे शेर की तरह दहाड़ते रहे और जब गए तो मौत को ललकारते हुए। अब वक्त के कैनवास पर उनके स्थापित राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्य, जनसरोकारी पूंजी और एक अनन्य रामभक्त होने का गौरव ही शेष भर रह गया है जो उन्हें इतिहास में अमर रखेगा। सैकड़ों साल बाद जब भी भारतीय राजनीति का कालजयी मूल्यांकन होगा कल्याण सिंह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुर्नस्थापना के इंकलाबी बीज को रोपने-सहेजने और उसे वट-वृक्ष बनाने वाले मनीषियों की कतार में खड़े नजर आएंगे। उनकी राजनीतिक अपराजेयता, राष्ट्रवाद के प्रति उत्कट जिजीविषा तथा हाशिए के लोगों को मुख्यधारा में खींच लाने की अनहद बेचैनी उन्हें एक नए भारत के महान सृजनकर्ता की श्रेणी में खड़ा करेगा। सदन से लेकर सड़क तक उनकी गुंजती-दहाड़ती आवाजें दबे-कुचले, वंचितों, शोषितों एवं पीड़ितों का आवाज बनकर सदियों तक प्रेरित करती रहेंगी। कल्याण सिंह के पास न तो विजेता की सैन्य शक्ति थी और न ही कोई राजनीतिक विरासत। उनके पास एकमात्र विचारों का बल था जिसके बूते उन्होंने राजनीति की ऊंचाई को जीया और सत्ता के मीनार को छुआ। बचपन में वे संघ से जुड़े और 1967 में पहली बार विधायक बने। फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कल्याण सिंह की मूल्यवादी राजनीति, सनातक सांस्कृति के प्रति अगाध प्रेम और राष्ट्र के प्रति उच्चतर समर्पण भाव को समझने के लिए तत्कालीन समय-समाज की राजनीतिक बुनावट को समझना आवश्यक है। जिस समय वे भारतीय राजनीति का हिस्सा बने वह दौर मूल्यवादी राजनीति के तिरस्कार और राष्ट्रवादी सोच के खिलाफ प्रबल षड़यंत्र का काल था। उन्होंने इस नकारात्मक राजनीतिक प्रवृत्ति के खिलाफ तन कर खड़ा होने की हिम्मत दिखायी और उसे बदल डालने के एवज में विरोध के हर ताप को सच्चाई से सहा। अपने सांस्कृतिक व राष्ट्रवादी विचारों के दम पर सनातन चेतना को नष्ट करने वाले राजनीतिक षड़यंत्रकारियों-दुराग्रहियों को उनके ही मांद में पराजित किया। सांस्कृतिक मूल्यों की ध्वजा को लहराकर भारत के लोगों को जोरदार आवाज दी। इंकलाबी बदलाव के लिए अपने राजनीतिक विचारों को सनातन सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़कर रामराज्य की संकल्पना को पूरा करने का आह्नान किया। ऐसे राजनीतिक शक्तियों से मुठभेड़ किया जो छद्म निरपेक्षता का चोला ओढ़कर सांस्कृतिक मूल्यों, आस्था के प्रतीकों को ध्वस्त करने वालों के हिमायती थे। उन्होंने राजनीति की उर्वर भूमि में हिंदुत्व के सनातन बीजों का प्रकीर्णन कर भारतीय जनमानस को जागृत किया। अपने प्रयासों से साबित किया कि एक बड़े वृक्ष की संभावना छोटे से बीज में ही निहित होती है। जिस साहस से उन्होंने सत्ता को ठोकर पर रख अयोध्या में विवादित ढांचे गिरा रहे रामभक्तों पर गोलियां चलवाने से इंकार किया वह उनके राष्ट्रवादी मूल्यों और हिंदुत्व के अंतश्चेतना के प्रति उच्च्चतर समर्पण भाव को ही ध्वनित करता है। कल्याण सिंह के इस साहस भरे कदम के खिलाफ जहां राजनीतिक प्रतिद्वंदियों-दूराग्रहियों ने सुडो सेक्युलरिज्म का तलवार भांजना शुरु किया वहीं मूल्यवादी व राष्ट्रवादी राजनीति के पक्षधरों ने उनका स्वागत किया। शायद ही किसी राजनेता में राजनीति के गुणसूत्र को बदलने का माद्दा हो। लेकिन कल्याण सिंह ने यह कर दिखाया। अपने राजनीति सुझबुझ और स्पष्ट सोच के बरक्स न केवल छद्म धर्मनिरपेक्षता की विभाजनकारी राजनीति के कील-पेंचों को उखाड़ फेंका बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी। उनका यह अदम्य साहस ही उन्हें भारतीय राजनीति का महावीर बना दिया। उन्होंने राजनीति में सत्ता के निर्माण या ध्वंस और ठहराव या बिखराव की तनिक भी फिक्र नहीं की। वे हर अवरोधों को तोड़ते और विरोध के घड़े को फोड़ते नजर आए। राजनीति में सर्वजन की चेतना को मुखरित करना और उसे अंजाम तक पहुंचाना आसान नहीं होता। लेकिन कल्याण सिंह ने यह कर दिखाया। अस्सी का दशक मंडल राजनीति का दौर था। आरक्षण को लेकर समाज में जातिगत विभाजन, हिंसा और द्वेष का वातावरण निर्मित था। तब कल्याण सिंह ने लालकृष्ण आडवानी और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ कंधा जोड़ राममंदिर आंदोलन को धार दिया। राममंदिर आंदोलन के जरिए टुकड़े और वर्गीय खांचे में विभक्त भारतीय जनमानस विशेष रुप से पिछड़ों को गोलबंद किया। मंडल का घाव कमंडल के संजीवनी से सूखने लगा। मंदिर मुक्ति को लेकर 30 अक्टुबर 1990 को कारसेवा के एलान के बाद कल्याण सिंह की छवि हिंदू हृदय सम्राट और हिंदुत्व के शिखर पुरुष की बन गयी। तब के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों को रोकने के लिए गोलियां चलवायी जिसमें कई कारसेवक मारे गए। सरजू का निर्मल जल और हिंदू जनमानस दोनों ही उबल पड़े। कल्याण सिंह ने इस घटना को जनआंदोलन में बदलकर विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की और पूर्ण बहुमत की सरकार गठित की। हालांकि यह सरकार सिर्फ 18 महीने ही चली और मंदिर के लिए कुर्बान हो गयी। सरकार जाने से कल्याण सिंह तनिक भी विचलित नहीं हुए। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में ढांचा ध्वंस के बाद राज्यपाल को त्यागपत्र देते हुए कहा कि मुझे ढांचा ढह जाने पर कोई अफसोस नहीं है। जहां तक सरकार का सवाल है तो एक क्या सैकड़ों सरकारें राममंदिर पर न्यौछावर है। भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण को लेकर उनकी अनन्य भक्ति उस समय भी उजागर हुई जब उनपर न्यायालय की अवमानना का मामला चला और सजा मिली। तब भी उन्होंने कहा कि रामलला के मंदिर के खातिर एक जन्म नहीं जन्मों तक सजा भुगतने को तैयार हैं। कल्याण सिंह दूसरी बार 1997 में मुख्यमंत्री बने। 21 मार्च 1997 को भारतीय जनता पार्टी का बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता हुआ और तय हुआ कि दोनों दल छह-छह माह की सरकार बनाएंगे। मायावती के नेतृत्व में सरकार गठित हुई लेकिन छह महीने बाद मायावती के मन में खोट आ गया। उन्होंने तय शर्तों के मुताबिक पद छोड़ने और भाजपा का समर्थन करने से इंकार कर दिया। काफी मान-मनौव्वल के बाद वे मानी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। कल्याण सिंह मायावती के फैसले को पलटने लगे जिससे वे नाराज हो गयी और समर्थन वापस ले लिया। लेकिन कल्याण सिंह सरकार बचाने में सफल रहे। राजनीति को लेकर कल्याण सिंह की स्पष्ट राय थी। वे अकसर कहा करते थे कि वे दिल की राजनीति करते हैं दिमाग की नहीं। देखा भी गया कि वे कई बार भाजपा से अलग हुए और जरुरत पड़ी तो घरवापसी भी की। अटल बिहारी वाजपेयी से विवाद के बाद वे भाजपा से अलग होकर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया। 2004 में पुनः भाजपा में शामिल हो गए। फिर 2009 में अलग हुए। तब उन्होंने एक नया राजनीतिक प्रयोग करते हुए समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिलाया। लेकिन विपरित विचारधारा की कमजोर बुनियाद पर टिकी यह दोस्ती ज्यादा दिन नहीं चली। उसके बाद कल्याण सिंह हमेशा-हमेशा के लिए भाजपा के होकर रह गए। पर एक बात स्पष्ट रुप से रेखांकित हुई कि कल्याण सिंह ने जब-जब भाजपा से दूरी बनायी तब-तब भाजपा को नुकसान हुआ। कल्याण सिंह ने बार-बार साबित किया कि वे भाजपा के प्राणवायु ही नहीं बल्कि हिंदुत्व के पुजारी भी हैं। गौर करें तो बतौर प्रशासक कल्याण सिंह जितना कठोर थे उतना ही संवेदनशील भी। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में सत्ता के विकेंद्रीकरण के बीज रोपे और शासन को जवाबदेह बनाया। जोतबही के रुप में किसानों का न सिर्फ उनकी जमीन का स्थायी दस्तावेज उपलब्ध कराया बल्कि वरासत की समय सीमा तय करने जैसे ऐतिहासिक निर्णय भी लिए। उनकी पहली सरकार ने नकल विरोधी कानून को लागू कर शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया। इसे संज्ञेय अपराध घोषित किए जाने से परीक्षा के दौरान नकल करने वाले बहुतेरे छात्र-छात्राएं जेल गए। भाजपा सरकार पर इस कानून में बदलाव को लेकर दबाव बढ़ा लेकिन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह टस से मस नहीं हुए। सच कहें तो कल्याण सिंह भारतीय राजनीति के विराट संसार में राजनीतिक-सांस्कृतिक साधना के ऋषि भर नहीं हैं बल्कि अदभुत बौद्धिक क्षमता से आबद्ध व उर्जा से लबरेज नई पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत भी हैं।