अगर हम 20वीं सदी के आखिरी तीन दशकों पर नजर डालें तो हिन्दी सिनेमा में फार्मूला फिल्मों और नायकों के स्टारडम का दबदबा रहा। इस दौर में फ़िल्मकार बड़े स्टार को साइने करके रोमांस, कॉमेडी, एक्शन, कुछ भावनात्मक दृश्य और गाने डालकर एक फिल्म तैयार कर लेते थे जो हिन्दी सिनेमा का आजमाया हिट फार्मूला था। बहुसंख्यक दर्शक भी सिनेमा हाल में अपने सुपर स्टार को ही देखने जाता था। लेकिन 21 सदी के इन बीस वर्षों में जैसे- जैसे नए दौर का सिनेमा जवान हुआ, कहानी और पात्रों का दयारा बढ़ता चला गया। आज कहा जा सकता है कि जितना कथ्य (कहानी) मजबूत होगा, उतना ही दृश्य (फिल्म) बेहतर और मनोरंजक होगा। पिछले बीस वर्षों में जिस रफ्तार से तकनीकी बदली और संचार के साधनों में इजाफा हुआ है, दर्शकों की रुचि और मनोरंजन का सागर गहराता चला गया है। आज 15 सेकेंड की शार्ट फिल्म से लेकर तीन घंटे तक की कहानियाँ और किरदार उपलब्ध हैं। इंसान और जानवर से लेकर कीट- पतंग, एलियन और परा वैज्ञानिक शक्ति को केंद्र और मुख्य पात्र बनाकर कहानियाँ लिखी जा रही हैं। प्राचीन इतिहास से लेकर अल्ट्रा माडर्न रिलेशनशिप और नजरिए को किरदार में पिरोया जा रहा है। दर्शक हर तरह की कहानी और किरदार देखने के तैयार है। डब, रीमेक, सिक्वल, बायोग्राफी सभी फिल्मों को दर्शक हाथों हाथ ले रहे हैं। बस कहानी कहने का तरीका और पात्रों का प्रस्तुतीकरण नया होना चाहिए।
नई सदी के इन बीस वर्षों में कहानी और किरदारों के प्रस्तुतीकरण के तरीकों को हम क्रमबद्ध रूप से समझ सकते हैं। वर्ष 2000 से लेकर 2020 तक प्रत्येक पाँच वर्षों में हिन्दी सिनेमा ने नई सीढ़ी चढ़ी और नई पीढ़ी का सिनेमा प्रस्तुत किया। जिसमें कहानी से लेकर तकनीकी का व्यापक दायरा और दर्शकों की पसंद में हो रहे क्रमिक बदलाव स्पष्ट नजर आए। नई सदी के पहले चरण की बात करें तो 21 जनवरी 2000 को बड़े पर्दे पर रिलीज हुई फिल्म “कहो न प्यार है” ने उस समय के सिनेमा में तय सभी फार्मूलों की धज्जियां उड़ा दी। इस फिल्म का नायक बिलकुल नया- नवेला था। जिसकी छवि भी भारतीय सिनेमा के परंपरागत हीरो से अलग थी। बिलकुल हॉलीवुड के नायक सरीखा। इस फिल्म का मुक़ाबला उसी दिन रिलीज हुई उस समय के सबसे बड़े स्टार शाहरुख खान की फिल्म “फिर भी दिल है हिंदुस्तानी” से थी। फिरभी सारे तय प्रतिमानों को पीछे छोडते हुए ह्रीतिक रोशन की फिल्म कहो न प्यार से साल की सबसे बड़ी हिट (पुरस्कार और कमाई के मामले में) साबित हुई। इसका सीधा सा कारण था वालीवुड के अब तक के तय मानकों से अलग कहानी और नए मसालों में लपेटकर किया गया प्रस्तुतीकरण। इसके बाद लगान और दिल चाहता है जैसी
क्या किसी ने सोचा था कि कभी फार्मूला फिल्मों के शहँशाह रहे अभिताभ बच्चन उम्र के 70वें पड़ाव में आकर असाध्य बीमारी से ग्रसित 12 वर्षीय बच्चे “औरों” की भूमिका निभाएंगे। उनको इस फिल्म में अभिनय के लिए न सिर्फ राष्ट्रीय राष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा बल्कि सदी के महानायक बन जाएंगे। 2001 में आई फिल्म “दिल चाहता है” और “लगान” ने जहां कहानी और किरदारों के प्रस्तुतीकरण में नए प्रयोग किए। जिसके बाद मुख्य धारा के सिनेमा में प्रयोग ने तेजी से रफ्तार पकड़ ली। पुरानी कहानियों के रिमेक से लेकर फिल्म के सिक्वल और गैर पारंपरिक किरदार हिट होने लगे। महिला केन्द्रित फिल्मों का अंबार लग गया। नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राज कुमार राव जैसे कलाकार बड़े स्टार बन गए और एक गूंगे लड़के के भारतीय क्रिकेट टीम में चुने जाने की कहानी “इकबाल” दर्शकों की नई पसंद बन गई। ये सिलसिला थमा नहीं बल्कि और तेज होता गया। गैंग आफ वासेपुर सीरीज को दुनियाँ भर की 50 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शामिल किया गया।
इसी बीच नई शताब्दी के दूसरे दशक में तकनीकी और संचार माध्यमों के बढ़ते दायरे ने देश के कोने- कोने में छिपी प्रतिभा को नए पंख दिये। जिसने एक से बढ़कर एक कहानी और किरदार गढ़ने शुरू कर दिये। भारत के इस ओवर द टॉप (ओटीटी) वीडियो मार्केट ने वेब सीरीज के जरिये मनोरंजन का दायरा और बढ़ा दिया। पिछले छह- सात सालों में प्रत्येक देशवासी के हाथों में पहुँचे मोबाईल ने नए कलाकारों और लेखकों को पैदा कर दिया।
ब्रिटिश न्यूजपेपर \’द गार्डियन\’ ने 21वीं सदी में दुनियाभर की सौ बेहतरीन फिल्मों की लिस्ट जारी की है। इस लिस्ट में इंडिया से एकमात्र फिल्म \’गैंग्स ऑफ वासेपुर\’ शुमार हुई है। फिल्म को 59वां स्थान हासिल हुआ है। इस लिस्ट में सन् 2000 के बाद रिलीज हुई सौ फिल्में शामिल हैं। \’गैंग्स ऑफ वासेपुर\’ की पूरी कास्ट एंड क्रू इस लिस्ट में उनकी फिल्म के स्थान पाने से खासी खुश है।
1) कैसे चुनी यह लिस्ट
‘द गार्डियन’ के समीक्षक मंडल में शामिल पीटर ब्रेडशॉ, कैथ क्लार्क, एंड्रयू पल्वर, और कैथरीन शॉर्ड ने लिस्ट तैयार की। उन्होंने इस सदी की फिल्मों का गहन विश्लेषण किया और विशेषज्ञों से चर्चा भी की।
से 20 साल पहले के समय पर नजर डाले तो सिनेमा फॉर्मूलों में जकड़ कर झटपटा रहा था। पांच फाइट सीन, पांच गाने, पांच कॉमेडी
और पांच इमोशन सीन और फिल्म तैयार
आप देखें तो पैरेलल और कमर्शियल फिल्मों की लाइन ब्लर होने लगी है। समानांतर सिनेमा वर्षों पहले भी बनता था, लेकिन मुंबई, दिल्ली, कोलकाता जैसे बड़े शहरों में इन फिल्मों के कुछ शो दिखाए जाते थे। इंदौर या भोपाल जैसे छोटे शहरों में फिल्म सोसायटी इनके शो आयोजित करती थी।
सितारे भी कंटेंट वाली फिल्म करने लगे हैं। उन्हें भी पता चला गया है कि यदि वे कुछ नया नहीं देंगे तो दर्शक उनकी फिल्म भी देखने को नहीं आएंगे। आमिर खान दंगल, थ्री इडियट्स, पीके जैसी फिल्में करते हैं। सलमान खान बजरंगी भाईजान या सुल्तान करते हैं। अक्षय कुमार टॉयलेट एक प्रेम कथा और पैडमैन जैसी फिल्में करते हैं। आज से बीस साल पहले इन फिल्मों की पटकथा यदि इन स्टार्स तक लेकर कोई पहुंचता तो वे उसे तुरंत दरवाजा दिखा देते।
नई सदी की फिल्मों के प्रस्तुतिकरण में भी बहुत बदलाव देखने को मिला। कहानी कहने का तरीका बदल गया है। जब हम अनुराग कश्यप की देव डी, अनुराग बसु की बर्फी, नीरज पांडे की स्पेशल 26, श्रीराम राघवन की अंधाधुन देखते हैं तो पाते हैं कि अपनी तकनीकी कौशल के बूते पर वे कहानी को बहुत ही अलग तरीके से पेश करते हैं। रंगों का संयोजन, सिनेमाटोग्राफी, संपादन, साउंड डिजाइनिंग का तरीका बहुत बदल गया है। हालांकि अभी भी तकनीक पर कंटेंट भारी है और यह हमेशा रहना भी चाहिए क्योंकि कांटेंट के बिना फिल्म की आत्मा ही मर जाती है।
हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा की दूरियां भी कम हुई हैं। आज प्रभाष जैसे दक्षिण भारतीय सितारे की फिल्म बाहुबली के रूप में अखिल भारतीय सफलता पाती है। केजीएफ चेप्टर 1 या सई नरसिम्हा रेड्डी की रिलीज हिंदी फिल्मों की तरह होती है। इसमें मल्टीप्लेक्स का भी अहम योगदान है। मल्टीप्लेक्स के कई स्क्रीन होने के कारण दूसरी भाषाओं की उल्लेखनीय फिल्मों का प्रदर्शन भी अब हिंदी भाषी क्षेत्रों में होने लगा है और इस वजह से अच्छी फिल्मों की तलाश में भटक रहे दर्शकों की कुछ हद तक प्यास बुझ जाती है।
दर्शक अब इम्पर्फेक्ट किरदारों को ज्यादा पसंद करने लगे हैं। खुलापन बढ़ा है। विकी डोनर, मद्रास कैफ, आई एम, इंग्लिन विंग्लिश, पान सिंह तोमर, गैंग ऑफ वासेपुर, अलीगढ़, बर्फी, लंच बॉक्स, क्वीन, हैदर, पीकू, पिंक, मसान, एनएच 10, उड़ान, नील बटे सन्नाटा, न्यूटन, मुक्ति भवन, आंखों देखी जैसी बेहतरीन फिल्में हमें देखने को मिली। इनके विषय इतने अनोखे थे जिन पर फिल्म बनाने की 20 वर्ष पहले कोई सोच भी नहीं सकता था। विक्की कौशल स्टारर उड़ी भारतीय सेना द्वारा उरी में हुए आतंकी हमले के प्रतिशोध के तौर पर की गई सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित है जिसमें 19 हथियारबंद सेना के जवान मारे गए थे। इस फिल्म के लिए कौशल को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसे आलोचकों और दर्शकों की सराहना मिली और यह एक व्यावसायिक हिट बन गई।
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में पिछले साल के राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता, आयुष्मान खुराना ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 पर आधारित एक और महाकाव्य फिल्म वितरित की। उनकी फिल्म ने देश के बड़े मुद्दे की ओर लाखों आंखें मूंद लीं कि लोग इस कानून का पालन नहीं करते हैं और कुछ समुदायों को अभी भी समान अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
पिछले साल बॉलीवुड में जो 300 करोड़ रुपये से ज्यादा का कलेक्शन करने वाली 2 फिल्में थीं, वो दोनों ही बायोपिक्स थीं- पद्मावत और संजू. एक में 8 सदी पहले की पौराणिक कहानी, तो दूसरी में बीते कुछ दशकों की सच्ची घटनाएं. इन्हें लेकर सवाल और बवाल दोनों ही खूब हुए. पद्मावत की रिलीज के पहले करणी सेना और पुराने राजघरानों की तरफ से ऐतराज. फिल्म में हमारी परंपराओं को गलत रौशनी में दिखाया गया. संजू की रिलीज से पहले तो सब ठीक था.
नए सिनेमा के सहज अंदाज के साथ सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्मों का ये सिलसिला और भी दिलचस्प हो जाता है. न्यूटन, शुभ मंगल सावधान, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, अनारकली ऑफ आरा, स्त्री, सीक्रेट सुपरस्टार, बरेली की बर्फी और हाल ही में आई बधाई हो और लुका छुपी जैसी फिल्मों ने बॉलीवुड के तमाम मिथक ध्वस्त किए. स्टार सिस्टम से लेकर फार्मूला फिल्मों की जो धाक थी, वो इन फिल्मों की कामयाबी के साथ ध्वस्त हो चुकी है. ग्लैमर और स्टार पॉवर से अलग आज के सिनेमा का हीरो है उसकी कहानी. कहानी नई हो या पुरानी, इससे फर्क नहीं पड़ता. दर्शकों ने अपना इशारा साफ कर दिया है कि यदि फिल्म सहज है, उसके किरदार और उनकी कहानी दिल को छूती है, तो वो फिल्म देखने जरूर जाएंगे. उनके लिए सितारा कोई मायने नहीं रखता.
यदि अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने वाले मध्य भारत के ठग्स पर भी बनी ठग्स ऑफ हिंदोस्तान जैसी फिल्म उन्हें बनावटी लगती है, तो वो अपने चेहेते सितारों के बावजूद भी उसे नकार सकते हैं. वो शाहरुख खान को भी नकार सकते हैं अगर जीरो जैसी फिल्म में अगर वो कहानी और अदाकारी की नई उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते. वो सिर आंखों पर बिठा सकते हैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी, आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव, कार्तिक आर्यन और पंकज त्रिपाठी जैसे कलाकारों को, जो अपने-अपने किरदारों में दर्शकों के बीच से उठाए लगते हैं. वो गल्ली बॉय जैसी फिल्म को को गले लगा सकते हैं. अगर फिल्म की कहानी में असल जिंदगी का संघर्ष और सपने सच करने की चुनौतियां अपने जैसी लगे.