जगदीश जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
संसद के दोनों सदन लोकसभा और राज्यसभा बुधवार को 11 बजकर 25 मिनट पर अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गईं। इसके साथ ही शीतकालीन सत्र का व्यावहारिक समापन हो गया, औपाचारिक समापन राष्ट्रपति अपनी सुविधा के अनुसार करेंगे। यह सत्र 29 नवंबर से 23 दिसंबर के बीच होना था, सत्र में कुल 20 बैठकें संभावित थीं, कृषि कानूनों की वापसी, क्रिप्टोकरेंसी संबंधित, मतदाता कार्ड को आधार से जोड़ने, बालिकाओं की विवाह की उम्र 18 से 21 वर्ष किए जाने समेत 26 विधेयक सूचीबद्ध थे। इस बीच देश की सबसे बड़ी पंचायत में क्या हुआ? सरकार ने क्या एकतरफा बिल पास करा दिए? क्या विपक्ष संसद में जनता के मुद्दे उठाना चाहता था? क्या उनको मौका नहीं दिया गया? पाठक खुद इसका आकलन करें तो बेहतर है।
संसद का यह सत्र बीत गया है, अगला सत्र जब शुरू होगा तब तक उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब सहित पांच राज्यों में चुनावी घमासान चरम पर होगा। बड़ी संख्या में राजनीतिक दल मतदाता को लुभाने के लिए अपनी नीतियों के खुलासे-दर-खुलासे कर रहे होंगे। जनता के सबसे करीबी होने और उनकी परेशानियों को दूर करने का दावा ठोक रहे होंगे। प्रत्याशियों के चयन में उन नीतियों का उपयोग कर चुके होंगे जिनका संविधान और चुनावी आचार संहिता वर्जना करती है। कंडिडेट को मैदान में उतारने के लिए धर्म, जाति का कानून में कोई स्थान है, फिर भी खुलकर उपयोग होता रहा है। या यूं कहा जाए पार्टियां बंद कमरों में प्रत्याशियों की सूची तय करने में उन समीकरणों को बैठा चुकी होंगी जिनकी वह सार्वजनिक मंच से वह घोषणा नहीं कर सकती हैं। यानी प्रत्याशियों के चुनने के लिए संविधान की आवाज के विपरीत पैमाना अपनाती हैं, किस दल को दूध का धुला कहा जाए। कमरे के बाहर आकर राजनीतिक दल सिद्धांत की दुहाई देने लगते हैं। अपने ‘पुरोधा आइकनों’ के विचारों के सहारे ही राजनीति करने का खम ठोकते हैं। इसे कहें कि राजनीतिक महापर्व और अगले पांच साल सत्ता का सुख प्राप्त करने के लिए मतदाता के साथ दो मुंहापन अपनाने में किसी को भी गुरेज नहीं।
अब आएं, संसद के शीतकालीन सत्र में, इसमें महंगाई पर विपक्ष की आवाज कहीं नहीं दिखाई दी। एक राज्य में महंगाई को देखते हुए पेट्रोल-डीजल की कीमत कम करने की मांग करने वाली पार्टियां भी उन राज्यों में खामोश हो जाती हैं, जहां उनकी पार्टी का शासन होता है, या उनकी पार्टी की मित्र पार्टी वहां कुर्सी पर होती है। एक राष्ट्रीय दल तो दिल्ली से दूर जयपुर जाकर महंगाई के खिलाफ रैली करते हैं, वहां पेट्रोल-डीजल से वैट कम करने की बात नहीं होती। उनके नेता महंगाई के बजाय हिन्दू और हिन्दुत्व पर अपना दर्शन जग जाहिर करते हैं। देश में महंगाई के अलावा, वोटर आईडी को आधार नंबर से लिंक करने, लड़कियों की ब्याह की उम्र तीन साल बढ़ा कर 21 साल करने जैसे गंभीर विधेयकों पर कोई चर्चा नहीं होती। ये विधेयक देश के समाजशास्त्र को बदलने में सक्षम हैं। ये विधेयक उसी महत्व के हैं, जैसे ‘आरटीआई’ विधेयक आने के बाद अफसरों की कार्यशैली में आया बदलाव। अफसरों के सर्वोच्च संवर्ग में आए व्यवहारजनित बदलाव ने सरकारी कामकाज को काफी प्रभावित किया है, जो लोग प्रभावित हुए हैं वह इसे बखूबी महसूस कर रहे हैं।
देश एक बार फिर वैश्विक महामारी कोविड-19 के नवीनतम ‘वैरियंट ओमिक्रॉन’ और उससे भी ‘नए वैरियंट डेल्मीक्रॉन’ की आशंकाओं से ग्रसित है। पहली और दूसरे लहर का असर देख चुके हैं। पहले चरण के साथ लगाए गए ‘लॉकडाउन’ को विपक्ष नाकाम बता चुका है, अर्थव्यवस्था के लिए घातक घोषित कर चुके हैं। इसलिए दूसरे चरण में इस उपाय का उपयोग ही नहीं हुआ तो उस चरण की घातकता से परिचित हो चुके हैं। ऑक्सीजन को लेकर हुई मारामारी, अस्पतालों में बेड क्राइसिस से दो-चार हो चुके हैं। अब, तीसरे चरण के आगमन के पूर्व के समय का कैसे सदुपयोग हो सकता है? कैसे देश में उपलब्ध मेडिकल संसाधनों का बेहतर उपयोग किया जा सकता है? क्या किसी जानकार से पूछ कर सरकार को यह चेताने का प्रयास किया कि किस क्षेत्र में क्या कमी है? हम देश चलाने का दावा करते हैं, क्या हमारे पास ऐसी टीम है जो दक्षिण अफ्रीका में खत्म हुई तीसरी लहर के अनुभवों पर देश के लिए कोई नीति बनाएं? क्या वहां की खामियों को चिह्नित कर अपने देश की सरकारी मशीनरी, मेडिकल विशेषज्ञों को बताने की कोशिश की? उत्तर मिलेगा नहीं, जब हम देश की जनता के सामने आने वाले बड़े संकट से निपटने में सरकार के साथ काम नहीं कर सकते या उसे चेता नहीं सकते तो हम मतदाता का हित कैसे चाहते हैं। हम तो अपना ही भला करने में जुटे हैं। विपक्ष को समझना चाहिए कि जनता रहेगी तभी उसकी राजनीति चमकेगी। सरकारें सदैव गुरूर में रहती हैं, जो चाहती हैं वह करना चाहती हैं। इतिहास हमारे सामने है और वर्तमान भी। इसलिए सत्तारूढ़ दल को दोष देने के बजाय अगर हम उससे दो कदम आगे नहीं बढ़ सकते तो सरकार अपने ढंग से सबको नचाएगी ही। आज के दिन विपक्ष के पास इस बात का कोई जवाब नहीं कि क्या उसने संसद के करीब 20 दिनों में सिर्फ वही नहीं किया जो सरकार चाहती थी? विपक्ष ने राज्यसभा के 12 सदस्यों का निलंबन वापस लेने के नाम पर वह किया जो सरकार के लिए मुफीद बैठता है। विपक्ष ने मैदान छोड़ दिया। सरकार के पास बहुमत है और वह क्यों चाहेगी विपक्ष इस पर डिबेट करे, उसे तो चाहिए वह विधेयक पटल पर रखे, थोड़ा चर्चा की औपचारिकता हो जाए और बिल पास हो जाए। विपक्ष अगर कई ज्वलंत मुद्दों पर सरकार के साथ बहस करता तो सरकार को अपने मन की करने में परेशानी होती। शायद उसकी ऐसी भूमिका ज्यादा सार्थक होती। तब विपक्ष जनता का ज्यादा हितैषी कहलाता, वह इसका प्रचार भी नहीं करता तो जनता खुद मान लेती और अपना विश्वास दे देती।