Wednesday, April 2, 2025
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माता के दरबार में विवाद: इसके पीछे कहीं आपसी विश्वास में आ रही कमी तो नहीं !

जगदीश जोशी

वरिष्ठ पत्रकार

समाज को वापस लाना होगा विश्वास, धैर्य और संयम की तिकड़ी को

वैष्णोदेवी मंदिर के दर्शन करने जा रहे श्रद्धालुओं के बीच भगदड़ मची और 12 की जान चली गई। भगदड़ का कारण आपसी विवाद बताया जा रहा है। भगवान पर आस्था रख कर मंदिर में दर्शन करने जा रहे भक्त सांसारिक अभिमान को न त्याग कर आपस में उलझ जाएं तो क्या कहा जाए? ‘भगवान के मंदिर से जब बुलावा आता है, तब दर्शन करने आते हैं’ को मानने वाले आपस में लड़ जाएं तो क्या कहा जाए? ‘तूने मुझे बुलाया शेरावालिए….’ का जाप करते रहने वाले अगर मंदिर की सीढ़ियों पर आपस का विवाद कर बैठते हैं तो इसे क्या कहा जाए? पुराने साल 2021 को विदा करने और नए साल 2022 का स्वागत करने के लिए माता के दर्शन करने वाले लोगों के बीच विवाद हो जाए तो क्या कहा जाए?

जिन 12 लोगों ने अपनी जान गंवा दी, जो लोग यहां घायल हुए, इनके परिवारों को जो सदमा पहुंचा, इसके लिए दुख तो है, शोक भी। मगर सवाल उठना लाजमी है कि माता के दरबार में क्या इंसानी गुरूर जिंदा रहता है या रहना चाहिए? जिस शक्ति को सर्वशक्तिमान मान कर अपनी मनोकामना की सिद्धि की अपेक्षा की जाती है, क्या उसके आगे अपनी ताकत दिखाना उचित है? क्या कुछ ही घंटे सही, उस परम शक्ति से खुद को छोटा नहीं समझा जा सकता? जैसा कि धर्मग्रंथ कहते हैं, जो भी हो रहा है उस परमशक्तिशाली की इच्छा पर ही हो रहा है। सनातन ही नहीं अन्य धर्मावलंबी मानते हैं कि कुदरत, नेचर या गॉड नाम की कोई ताकत है जो पूरी दुनिया को संचालित कर रही है। यानि इस ताकत के आगे मनुष्य की ताकत कुछ नहीं है। 

भगदड़ का कारण अगर भीड़ में अचानक किसी का पैर फिसलना, किसी अशक्त का गिर पड़ना या मानव निर्मित किसी निर्माण के टूट जाना या कोई दैवीय आपदा होती तो बात दूसरी थी। साल के आखिरी दिन को हंसी-खुशी बिताना चाहते हैं, इसे यादगार बनाना चाहते हैं, पर्यटकस्थल पर न जा कर माता रानी के दरबार में जा रहे हैं। तब वहां ‘ईगो क्लैश’ हो जाए, या ‘अहंकार का टकराव’ हो जाए तो वहां जाने का मकसद खुशी-खुशी नए साल का स्वागत करना नहीं रहा। सोशल मीडिया में रोज कई प्रवचन प्रसारित होते रहते हैं, अधिसंख्य का लब्बोलुआब यही होता है कि ‘खुश रहना है तो सीखो सहना।’ यानि कुछ गम हम खाएं, कुछ तुम और दोनों मौज में। यानि धैर्य धारण करो, कुछ संयम करो। तुरंत प्रतिक्रिया न दो, प्रतिक्रिया ही तो असहिष्णुता का छोटा पैकैज है। बात निकलती है तो दूर तक जाती है, इसलिए खामोशी धारण करना बेहतर है, यही धैर्य है।

कुछ देर इस पर मंथन करें तो पाएंगे, विश्वास में कमी आ रही है, चारों ओर विश्वास में कमी का बोलबाला है। खुद को टटोलिए तो जरा क्या है- अपने आप पर पूरा विश्वास, परिवार के सदस्यों पर विश्वास, पड़ोसियों पर विश्वास, अपने शिक्षकों पर विश्वास, अपने अधिकारी पर विश्वास, अपने नेताओं पर विश्वास, अपनी सरकार विश्वास? और कितना गिना दें, आप खुद गिनती कर देखिए। कहां है विश्वास, किस पर है विश्वास, कहीं भी तो नहीं दिखता विश्वास। कोई इसे कहेगा समय की बलिहारी है, कोई सिस्टम की दुहाई देगा। कानपुर का एक डिटर्जेंट है जिसने समाज में आ रही इस कमी को बहुत पहले सरेआम पकड़ा और भुना लिया- ‘पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें’। यानि कोरे-कोरे कहने से ही बात नहीं बनेगी, विश्वास दिलाना पड़ता है। हमारी न्याय प्रणाली भी कहती है- ‘न्याय करें ही नहीं, न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए।’ यानि न्यायालय बहुत पहले समझ चुका था कि मानव समाज में विश्वास में कमी आने वाली है।

यह भी सोचिए- क्या अपने आप आई या कोई लेकर आया विश्वास में कमी। चारों तरफ का माहौल देखिए, विश्वास पर से विश्वास उठा है। कौन सी परीक्षा है जिसको लेकर ‘विवाद’ न होता हो, कौन सा फैसला नहीं होता जिस पर ‘किंतु-परंतु’ नहीं लगाए जाते। यूं तो विश्वास में कमी की शुरुआत तो तब हो गई होगी जब ताला-चाभी का आविष्कार हुआ। तब वस्तुओं को निशाना बनाया जाता था लेकिन अब के दौर में तो इंसान को ठिकाने पर लगा दिया जाता है। यही अविश्वास अब भष्मासुर बनता जा रहा है, समाज की प्रगति में बाधक बन रहा है। आए दिन विवादों का कारण बन रहा है, नई पीढ़ी के सामने ऐसे-ऐसे उदाहरण पेश किए जा रहे हैं जिसे देख-सुन वह उससे दो कदम आगे ही निकलना चाहेगी। लखनऊ के लिए कहावत प्रसिद्ध है- ‘पहले आप।’ कितनी श्रेष्ठ विरासत है, पहले आप, कोई झगड़ा ही नहीं, कोई झंझट ही नहीं। इसीलिए तो लखनऊ को कभी नफासत या सलीके का शहर कहा जाता था। पहले आप का चलन हो तो कई थानों में रिपोर्टें आनी बंद हो जाएं। यानी अपना दर्प-घमंड त्याग कर दूसरे के लिए जरा सा सिर को झुका दिया जाए तो पर्याप्त है, चारों ओर शांति ही शांति और अमन ही अमन। लेकिन इंसान के भीतर ‘धैर्य नाम के तत्व’ की कमी आती जा रही है। हर काम में जल्दबाजी और ‘वह कौन होता है रोकने वाला’ जैसे जुमले आम हो चले हैं। अपने मंथन को थोड़ा सा आगे बढ़ाइए- करिए किसी पर विश्वास, थोड़ा सा धैर्य का उपयोग बढ़ा कर देखें, दिनचर्या की ‘रैसेपी’ में थोड़ा सा संयम का“तड़का’ मारिए। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ के बीच कुछ देर सुस्ता कर देखए। संभव हो तो परिजनों और पड़ोसियों पर भी विश्वास का ‘पायलेट प्रोजेक्ट’ बना कर देखिए। फिर आकलन करिए कि राहत है या आफत। शर्तिया है कि भीड़ पर नियंत्रण होगा, भगदड़ बंद हो जाएगी। वैष्णो देवी के दरबार में जाते हुए कोई एक पक्ष संयम का इस्तेमाल कर लेता तो शायद इतना बड़ा हादसा नहीं होता। धर्मस्थल जा रहे हैं तो उसके प्रभाव क्षेत्र में पहुंचकर सांसारिक बातों को भूलना ही श्रेयष्कर है, ‘क्या मेरा, क्या तेरा’ नहीं भूल पाते तो ‘क्या लेकर जाएगा’ भी याद रखें।

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