Sunday, September 8, 2024
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फिटनेस : बॉडीबिल्डिंग… ये कैसा स्पोर्ट?

डॉ सरनजीत सिंह

फिटनेस एंड स्पोर्ट्स मेडिसिन स्पेशलिस्ट

बॉडीबिल्डिंग का मतलब तो हम सभी जानते हैं लेकिन पिछले कुछ सालों में इसके मायने पूरी तरह से बदल चुके हैं. ‘मदर ऑफ़ ऑल स्पोर्ट्स’ कहे जाने वाले इस स्पोर्ट की परिभाषा पूरी तरह से बदल चुकी है. दरअसल ज़्यादातर खेलों में खिलाड़ियों की शक्ति (स्ट्रेंथ), सहनशीलता (एंडुरेंस), लचीलापन (फ्लेक्सिबिलिटी), गति (स्पीड), त्वरण (एक्सेलरेशन) और चपलता (एजिलिटी) बढ़ाने के लिए शरीर की सभी मांस-पेशियों को मज़बूत बनाना बहुत ज़रूरी होता है. इस ट्रेनिंग को ‘बेसलाइन फिटनेस ट्रेनिंग’ कहा जाता है. बेसलाइन फिटनेस विकसित होने के बाद खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर करने के लिए उनके स्पोर्ट में प्रयोग होने वाली मांस-पेशियों की विशेष ट्रेनिंग कराई जाती है. इस ट्रेनिंग को ‘स्पोर्ट्स स्पेसिफिक फिटनेस ट्रेनिंग’ कहा जाता है और हर स्पोर्ट में इस ट्रेनिंग का एक विशेष तरीका होता है. खिलाड़ियों की बेसलाइन फिटनेस की शुरुआत बॉडीबिल्डिंग में की जाने वाली एक्सरसाइजेज से की जाती है और यही कारण है कि बॉडीबिल्डिंग को ‘मदर ऑफ़ ऑल स्पोर्ट्स’ कहा जाता है. बेसलाइन फिटनेस विकसित होने के बाद बॉडीबिल्डिंग में अलग तरह के वैज्ञानिक सिद्धातों का प्रयोग होता है जिससे ये दूसरे स्पोर्ट्स से अलग होती जाती है. जहाँ एक तरफ स्पोर्ट्स में खिलाड़ी की जीत उसके प्रदर्शन पर निर्भर करती है तो वहीं एक बॉडीबिल्डर की जीत उसकी मांस-पेशियों के आकार, संतुलन, उनकी स्पष्टता, पोज़िंग की कला और स्टेज प्रस्तुति के आधार पर निर्धारित की जाती है.

दुनिया में सबसे पहले अमेरिका ने बॉडीबिल्डिंग को ‘फिज़िकल कल्चर’ (शारीरिक संस्कृति) का दर्जा प्रदान किया था, जिसके बाद बॉडीबिल्डिंग पर शोध शुरू हो गए और इसे बेहतर बनाने के लिए गंभीर प्रयास होने लगे. दुनिया के सबसे पहले बॉडीबिल्डर के रूप में जर्मनी के यूजेन सैंडो ने 1890 में पूरे यूरोप में धूम मचा दी थी. यूजेन सैंडो ने बॉडीबिल्डिंग से पहले एक स्ट्रांगमैन (एक तरह का वेटलिफ्टिंग कम्पटीशन) के रूप में इस स्पोर्ट की शुरुआत की थी. उस वक़्त उन्हें दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता था लेकिन जब वो स्टेज पर उतरते थे तो लोग वेटलिफ्टिंग से ज़्यादा उनकी उभरी हुई मांस-पेशियों को देख रोमांचित हो उठते थे. यूजेन सैंडो को बहुत जल्दी इसका अहसास हो गया और फिर उन्होंने अपना पूरा ध्यान अपनी मांस-पेशियों को पहले से बड़ा और स्पष्ट बनाने में केंद्रित कर दिया. यूजेन सैंडो ने ही दुनिया का सबसे पहला फिजिकल इंस्टिट्यूट खोला और दुनिया को जिम कल्चर से अवगत करवाया. इसी वजह से उन्हें ‘फादर ऑफ़ बॉडीबिल्डिंग’ भी कहा जाता है. यूजेन सैंडो ने 14 सितंबर, 1901 को लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में पहली बॉडीबिल्डिंग प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसे ‘महान प्रतियोगिता’ कहा गया. यूजेन सैंडो ने बॉडीबिल्डिंग के दम पर काफी पैसा और शोहरत कमाई. उन्होंने बॉडी पोज़िंग और बॉडीबिल्डिंग के लिए नयी-नयी और असरदार मशीनें बनाकर इसे दूर-दूर तक फैलाया. 1925 में यूजेन सैंडो ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया. आज उनकी याद में दुनिया के सबसे बड़े बॉडीबिल्डिंग कम्पटीशन ‘मिस्टर ओलम्पिया’ के विजेता को ट्रॉफी के तौर पर उनकी मूर्ति दी जाती है.

यूजेन सैंडो

1920-30 के आस-पास बॉडीबिल्डिंग में काफी बदलाव हुआ, लोग बॉडीबिल्डिंग का महत्व समझने लगे थे और बॉडीबिल्डर्स अपनी मांस-पेशियों को बेहतर बनाने के लिए वजन उठाने और नयी-नयी मशीनों का सहारा लेने लगे थे. इस समय तक होने वाली होने वाली बॉडीबिल्डिंग की एक ख़ास बात ये थी कि तब तक ‘एनाबॉलिक स्टेरॉइड्स’ का अविष्कार न होने कि वजह से नौजवान अपनी मांस-पेशियों को प्राकृतिक रूप से विकसित करते थे. 1935 में जर्मनी ने एनाबॉलिक स्टेरॉइड्स की खोज की और 1940 के बाद बॉडीबिल्डिंग में इसके प्रयोग होने शुरू हो गए. इन दवाओं के इस्तेमाल से बॉडीबिल्डर्स अप्राकृतिक तरीके से बहुत कम समय में मांस-पेशियों का विकास करने लगे. 1943 में मिस्टर अमेरिका का खिताब जीतने वाले क्लेरेन्स रॉस को दुनिया का सबसे पहला मॉडर्न बॉडीबिल्डर माना जाता है. करीब-करीब उसी समय एक नए बॉडीबिल्डर स्टीव रीव्स का उदय हुआ जिसने अपने शरीर की हर एक मांस-पेशी को ज़बरदस्त तरह से विकसित कर मिस्टर अमेरिका और मिस्टर यूनिवर्स का ख़िताब जीता. इसके बाद उसने फ़िल्मी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी नाम कमाया. इससे बॉडीबिल्डिंग को बहुत बढ़ावा मिला और नौजवान बॉडीबिल्डर्स को अपने आदर्श के रूप में मानने लगे. स्टीव रीव्स के बाद कई बॉडीबिल्डर्स जैसे आर्नोल्ड श्वार्ज़नेगर, सर्जिओ ओलिवा और बिल पर्ल ने बॉडीबिल्डिंग को बिलकुल ही अलग स्तर पर पहुँचा दिया. हमारे देश के मोन्टोश रॉय, मनोहर आईच (फादर ऑफ़ इंडियन बॉडीबिल्डिंग), संग्राम चोघुले, सुहास खामकर, मुरली कुमार, यतिंदर सिंह, सुमित झाधव और कई और बॉडीबिल्डर्स ने भी इसमें खूब नाम कमाया.

फ़िल्में हमेशा से हमारे जीवन पर विशेष छाप छोड़ती आई हैं. आम लोगों में बॉडीबिल्डिंग की लोकप्रियता बढ़ाने में हॉलीवुड और बॉलीवुड फिल्मों का सबसे बड़ा योगदान रहा. अभिनेता के चौड़े कंधे, उभरी हुई बाइसेप्स और 6 पैक एब्स होना अब सिर्फ़ एक्शन फिल्मों तक ही सीमित नहीं रह गया है. करिश्माई शरीर देखने की हमारी चाहत के कारण छोटी-छोटी फिल्मों और टी वी सीरियल में काम करने वाले कलाकारों और विज्ञापनों में दिखने वाले मॉडल्स की ये सबसे पहली ज़रुरत बन गयी है. इन सबके चलते देश-विदेश में बॉडीबिल्डिंग का ज़बरदस्त प्रचार हुआ और फिर बॉडीबिल्डिंग अलग-अलग श्रेणियों में बंटती चली गयी. कुछ इसे अपना पेशा बनाने में लग गए, कुछ इसके ज़रिए अपना पेशा बनाने लगे और कुछ बेहतर लुक्स और फिटनेस के लिए बॉडीबिल्डिंग करने लग गए. आज देश के छोटे-बड़े शहरों में आये दिन बॉडीबिल्डिंग शोज़ हो रहे हैं. सोशल मीडिया पर ज्यादातर नौजवान बॉडीबिल्डिंग और 6 पैक एब्स वाली तस्वीरें और वीडियो पोस्ट कर रहे हैं और उनकी बहुत सराहना भी की जा रही है.

बॉडीबिल्डिंग की लोकप्रियता का एक काला सच ये है कि इतना प्रचार-प्रसार होने के बावज़ूद आज की बॉडीबिल्डिंग वो बॉडीबिल्डिंग नहीं है जिसकी कल्पना इसके जनक यूजेन सैंडो ने की थी. 1940 के बाद जैसे-जैसे बॉडीबिल्डिंग में स्टेरॉइड्स का प्रयोग बढ़ता गया वैसे-वैसे इसके सही मायने खोते चले गए. इसके पहले बॉडीबिल्डिंग की परिभाषा ही अलग थी. इसे एक साधना की तरह समझा जाता था. ये वो समय था जब मांस-पेशियों को सुडौल बनाने के लिए नियमित एक्सरसाइज, संतुलित खान-पान और हर तरह के नशे से दूर रहते हुए इसे पूरी लगन और श्रद्धा के साथ किया जाता था. इसके लिए बॉडीबिल्डर्स को बहुत अनुशासन और धैर्य के साथ परिश्रम करना होता था. पूरी तरह से प्राकृतिक होने के कारण उस समय के बॉडीबिल्डर्स आज के बॉडीबिल्डर्स की तुलना में शारीरिक और मानसिक रूप से कहीं अधिक स्वस्थ और फिट होते थे. यही इस बेहतरीन खेल की खूबसूरती थी.

दवाओं के इस्तेमाल से बॉडीबिल्डिंग का बदलता स्वरुप

आज कम से कम समय में सब कुछ पाने की चाहत में नौजवान इस खूबसूरत खेल में भी शार्ट कट्स के ज़रिये सफल होने में ज़्यादा भरोसा रखते हैं. इन शार्ट कट्स में वो तरह-तरह के फ़ूड सप्लीमेंट्स (प्री-वर्कआउट, पोस्ट-वर्कआउट, इन-वर्कआउट, क्रिटीन, व्हे प्रोटीन, फैट बर्नर्स, मल्टीविटामिन्स, ओमेगा-3, एल कार्निटिन, बी.सी.ए.ए…) का प्रयोग करते हैं. हालाँकि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो आज हमारे भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी होने के कारण इनमें से कुछ फ़ूड सप्लीमेंट्स हमारे लिए स्वास्थवर्धक होते हैं लेकिन ज़्यादातर सप्लीमेंट्स से हमारे स्वास्थ पर कोई असर नहीं होता. ऐसे सप्लीमेंट्स का किराये के बॉडीबिल्डर्स, फ़िल्मी कलाकारों या नामचीन खिलाड़ियों से प्रचार कराया जाता है और ग्राहकों को इनके प्रयोग के लिए प्रेरित किया जाता है. इसके चलते नकली फ़ूड सप्लीमेंट्स का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है. इन सस्ते फ़ूड सप्लीमेंट्स में तेज परिणाम पाने के लिए ख़तरनाक दवाओं की मिलावट की जाती है जिसका पता इन्हें इस्तेमाल करने वालों को तब चलता है जब वो इन दवाओं से होने वाली किसी गंभीर समस्या का शिकार हो जाते है.

नौजवानों के स्वास्थ पर सबसे बुरा असर तो तब पड़ता है जब वो जल्द से जल्द अपने लक्ष्य को पाने की होड़ में स्टेरॉइड्स, ह्यूमन ग्रोथ होर्मोनेस (एच.जी.एच.), एडेनोसीन मोनो फॉस्फेट (ए.एम.पी.), इन्सुलिन, थायरोक्सिन, क्लेनबेट्रोल, एफेड्रिन, ह्यूमन कोरिओनिक गोनडोट्रोफीन (एच.सी.जी.), टामॉक्सीफेन, डाईयुरेटिक्स जैसी खतरनाक दवाओं का प्रयोग करने लगते हैं. कई बार बॉडीबिल्डर्स में मांस-पेशियों को बड़ा और स्पष्ट करने का जुनून या यूँ कहें कि पागलपन इस स्तर तक पहुँच जाता है कि वो पशुचिकित्सा (वेटरनरी) में इस्तेमाल होने वाली दवाओं का प्रयोग करने लगते हैं और कुछ तो जीन डोपिंग, सिंथोल इम्प्लांट और आयल इंजेक्शंस का सहारा लेने लगते हैं.

वैसे तो आज किसी भी उद्देश्य के लिए की जाने वाली बॉडीबिल्डिंग में इन दवाओं का बेहिसाब प्रयोग हो रहा है. इसका सबसे बड़ा सबूत पिछले करीब सत्तर सालों के हर दशक में बॉडीबिल्डर्स की मांस-पेशियों के बढ़ते हुए आकार और अधिक स्पष्टता को देखने पर मिलता है. आज के दौर में की जाने वाली बॉडीबिल्डिंग से जुड़ी सबसे गंभीर समस्या ये है कि पिछले कुछ सालों में ऐसे नौजवान भी इन दवाओं का प्रयोग करने से कोई गुरेज नहीं कर रहे जिनका मक़सद सिर्फ़ अपने लुक्स और फिटनेस को बेहतर करना होता है. ये एक बहुत चिंताजनक स्थिति है क्योंकि जिस तरह देश के कोने-कोने में जिम और हेल्थ सेंटर्स खोले जा रहे हैं, इन दवाओं का सेवन करने वाले नौजवानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. अगर जल्द ही इस पर कोई कारवाही नहीं की गई तो निकट भविष्य में इसके परिणाम बहुत घातक हो सकते हैं. अगर सिर्फ़ पिछले कुछ सालों में देखा जाये तो इन ख़तरनाक दवाओं का असर साफ़ दिखने लगा है. इन दवाओं से होने वाले फिजियोलॉजिकल साइड इफेक्ट्स से न जाने कितने नौजवानों के शरीर के महत्वपूर्ण अंग ख़राब हो गए, कितने नपुंसक हो गए और न जाने कितनों को बहुत कम उम्र में हार्ट अटैक या ब्रेन हेमरेज होने से अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. महिला बॉडीबिल्डर्स में इनके अलावा कुछ और भी फिजियोलॉजिकल साइड इफेक्ट्स जैसे स्तन छोटे हो जाना, क्लिटोरल एंलार्जेमेंट, मासिक धर्म में अनियमितता और चेहरे पर अत्यधिक बालों का निकलना होते हैं. इन दवाओं से होने वाले साइकोलॉजिकल साइड इफेक्ट्स इन दवाओं का सेवन करने वालों के लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी बहुत हानिकारक होते हैं. इन दवाओं का प्रयोग करने वाले नौजवानों में यादाश्त की कमी, डिप्रेशन, हाइपोमेनिया, चिड़चिड़ापन, घबराहट, बेचैनी, उदासीनता, आसानी से विचलित हो जाना, नींद न आना, आत्मघाती विचार आना और छोटी-छोटी बातों में आक्रामक हो जाना आसानी से देखे जा सकते हैं.

सरकारों की इन दवाओं की खरीद-फरोख्त पर कोई रोक न होने के कारण ये मेडिकल स्टोर्स और फ़ूड सप्लीमेंट्स की दुकानों पर बहुत आसानी से मिल जाती हैं. कई बार तो जिम ट्रेनर इसे कमाई का आसान ज़रिया समझ इन्हें अपने क्लाइंट्स तक पहुंचाते हैं और इन ख़तरनाक दवाओं के इस्तेमाल को बढ़ावा भी देते हैं. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में जिम व्यवसाय के साथ-साथ इन दवाओं का काला बाजार भी धड़ल्ले से चल रहा है.

बॉडीबिल्डिंग का एक काला सच ये भी है कि लम्बे अर्से तक इन दवाओं का सेवन करने के बावज़ूद बॉडीबिल्डर्स ये मानने को तैयार ही नहीं होते कि वो इनका इस्तेमाल करते हैं. इसके चलते इन दवाओं के साइड इफेक्ट्स से होने वाले शुरूआती लक्षण दिखने पर भी उनका सही इलाज नहीं हो पाता और अंततः वो इनसे होने वाले ख़तरनाक और अपरिवर्तनीय साइड इफेक्ट्स के शिकार हो जाते हैं. इन दवाओं के सेवन से विकसित की गयी मांस-पेशियों का आकार बड़ा और उनकी स्पष्टता प्राकृतिक रूप से विकसित की गयी मांस-पेशियों से कहीं अधिक होती है लेकिन प्राकृतिक रूप से विकसित की गयी मांस-पेशियों की सबसे बड़ी विशिष्टता ये है कि इसके परिणाम स्थायी होते हैं. दवाओं के प्रयोग से विकसित की गयी मांस-पेशियों का आकार और स्पष्टता इन दवाओं का असर कम होते ही सामान्य होने लगते हैं और कभी-कभी ये पहले से भी कमज़ोर और शिथिल हो जाती हैं. यही कारण है एक बार प्रयोग करने पर ज़्यादातर बॉडीबिल्डर्स को इन ख़तरनाक दवाओं की लत लग जाती है. प्राकृतिक बॉडीबिल्डिंग की दूसरी बड़ी विशिष्टता ये है कि इससे हमारे आकार के साथ-साथ हमारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ भी बेहतर होता है. इससे हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है जिससे हम जिस किसी भी क्षेत्र में कार्यरत हों हमारी उन्नति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. प्राकृतिक रूप से बॉडीबिल्डिंग के परिणाम आने में समय लगता है. इसे वो ही कर सकता है जिसमें सच्ची लगन हो और श्रद्धा हो. ऐसे बॉडीबिल्डर्स धैर्य से काम लेते हैं और कभी आक्रामक नहीं होते. प्राकृतिक बॉडीबिल्डर्स की जीवन शैली बहुत अनुशासित और व्यवस्थित होती है. वो ख़ुद को हर तरह के नशे से दूर रखते हैं और दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत का काम करते हैं. यही वो बॉडीबिल्डिंग थी जिसके सुन्दर भविष्य की कल्पना ‘फादर ऑफ़ बॉडीबिल्डिंग’ कहे जाने वाले यूजेन सैंडो ने की थी.

आज की स्थिति में सुधार के लिए नौजवानों को इन खतरनाक दवाओं के प्रयोग से बचाना होगा. उन्हें इनसे होने वाले शारीरिक और मानसिक नुक्सान से अवगत करना होगा. उन्हें प्राकृतिक बॉडीबिल्डिंग की उपयोगिताओं की जानकारी देनी होगी. देश-प्रदेश की सरकारों को भी इस पर गंभीरता से विचार करना होगा और इन ख़तरनाक दवाओं की खरीद-फरोख्त पर लगाम कसनी होगी. हम पहले ही बहुत देर कर चुके हैं, ये जहर छोटे-छोटे शहरों तक पहुँच चुका है और अगर अभी भी इसे रोकने के ठोस कदम न उठाये गए तो ये इन दवाओं का प्रयोग करने वालों साथ-साथ समाज के लिए भी बहुत घातक होगा.

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