अरविंद जयतिलक
टोक्यो ओलंपिक में अब तक के श्रेष्ठ प्रदर्शन से भारत गौरान्वित और उत्साहित है। भारत के खाते में एक गोल्ड, दो सिल्वर और चार ब्रान्ज समेत कुल सात पदक आए हैं। इसका श्रेय नीरज चोपड़ा, मीराबाई चानू, रवि दहिया, पीवी सिंधु, लवनीना बोरगेहेन, बजरंग पुनिया और भारतीय पुरुष हाकी टीम के खिलाड़ियों को जाता है। तथ्य यह भी कि 41 वर्ष बाद भारत ने ओलंपिक हाकी में कांस्य पदक अपने नाम किया है और 121 साल के ओलंपिक इतिहास में पहली बार भारत ने एथलेटिक्स में भी पदक जीता है। यह कारनामा भाला फेंक के एथलीट नीरज चोपड़ा ने कर दिखाया है। टोक्यो ओलंपिक की उपलब्धियों से देश रोमांचित है और पूरे देश में इन खिलाड़ियों का इस्तकबाल हो रहा है। इस सम्मान से खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि 2024 के पेरिस ओलंपिक में यह सम्मान भारत एक नया कीर्तिमान गढ़ने का मौका देगा। किसी भी राष्ट्र की प्रतिभा खेलों में उसकी उत्कृष्टता और हासिल होने वाले पदाकों से जुड़ा होता है। अच्छा प्रदर्शन केवल पदक जीतने तक ही सीमित नहीं होता बल्कि राष्ट्र के स्वास्थ्य, मानसिक अवस्था एवं लक्ष्य के प्रति सतर्कता व जागरुकता को भी रेखांकित करता है। दो राय नहीं कि टोक्यो ओलंपिक में मिली उपलब्ध्यिों ने देश को गौरान्वित किया है लेकिन सच यह भी है कि सवा अरब की आबादी वाले देश को इससे बड़ी उपलब्धि की दरकार है। ऐसा तभी संभव होगा जब देश में उत्कृष्ट खिलाड़ियों, अकादमियों और प्रशिक्षकों को बढ़ावा मिलेगा। एक आंकड़े के मुताबिक देश में सिर्फ पंद्रह प्रतिशत लोग ही खेलों में अभिरुचि रखते हैं। यह आंकड़ा निराश करने वाला है। विचार करें तो इसके लिए भारतीय समाज का नजरिया और सरकार की नीतियां दोनों जिम्मेदार हैं। समाज में यह धारणा है कि खेलकूद के जरिए नौकरी या रोजी-रोजगार हासिल नहीं किया जा सकता। इसलिए पढ़ाई पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए। नतीजा सामने है। बच्चों में खेल के प्रति लगन और उत्सुकता में कमी है। चिंता की बात यह भी कि सरकारें भी खेल के विकास का इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करने के बजाए राष्ट्रीय खेल अकादमियों को अध्यक्ष व सदस्य कौन होगा उस पर ज्यादा फोकस करती है। भला ऐसे में खेल का विकास कैसे होगा। खेलों के विकास के लिए आवश्यक है कि सरकार की खेलनीति स्पष्ट व ईमानदार हो तथा साथ ही स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों व खेल अकादमियों में बुनियादी ढांचे के विकास की गति तेज हो। बेहतर होगा कि सरकारें स्कूल स्तर से ही खेल को बढ़ावा देने का मिशन चलाए। स्कूलों में बच्चों की प्रतिभा एवं विभिन्न खेलों में उनकी अभिरुचि को ध्यान में रखकर उन्हें विभिन्न किस्म के खेलों में समायोजित कर उनके उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था करे। ऐसा करने से उनकी प्रतिभा का सार्थक इस्तेमाल होगा और खेल को बढ़ावा भी मिलेगा। लेकिन देखें तो स्कूलों में खेल के प्रति घोर उदासीनता है। इसका मूल कारण खेल संबंधी संसाधनों की भारी कमी और खेल से जुड़े योग्य शिक्षकों-प्रशिक्षकों का अभाव है। अगर स्कूलों से इतर माध्यमिक विद्यालयों, काॅलेजों और विश्वविद्यालयों की बात करें तो यहां भी स्थिति कमोवेश वैसी ही है। यहां संसाधन तो हैं लेकिन इच्छाशक्ति और प्रशिक्षण के अभाव में खेलों के प्रति रुझान नहीं बढ़ रहा है। उचित होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें खेलों में सुधार के लिए पटियाला में स्थापित खेल संस्थान की तरह देश के अन्य हिस्सों में भी इस तरह के संस्थान खोलें। ऐसा इसलिए कि उचित प्रशिक्षण के जरिए ही देश में खेलों का स्तर ऊंचा उठाया जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह भी कि जब तक खेलों को रोजगार से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक खेल प्रतिभागियों में स्पर्धा का वातावरण निर्मित नहीं होगा। अगर खेलों में नौजवानों को अपना भविष्य सुनिश्चित नजर नहीं आएगा तो स्वाभािवक है कि वे वे खेलों में बढ़-चढ़कर हिस्सा नहीं लेंगे। खेलों में भविष्य सुरक्षित न होने के कारण ही नौजवानों में उदासीनता है और खेल के क्षेत्र में भारत फिसड्डी देशों में शामिल है। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि खेलों में खराब स्थिति के लिए एकमात्र सरकार की उदासीनता ही जिम्मेदार नहीं है। बल्कि खेल से विमुखता के लिए काफी हद तक समाज का नजरिया भी जिम्मेदार है। आज भी देश में एक कहावत खूब प्रचलित है कि ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’। अकसर देखा जाता है कि माता-पिता के माथे पर तब चिंता की लकीरें उभर आती हैं जब उनका बच्चा खेल में कुछ ज्यादा ही अभिरुचि दिखाने लगता है। तब उन्हें डर सताने लगता है कि कहीं उनका उनका बच्चा खेल में अपनी उर्जा खर्च कर अपना भविष्य न चैपट कर ले। स्कूलों में भी गुरुजनों द्वारा अकसर बच्चों से कहते सुना जाता है कि दिन भर खेलोगे तो पढ़ोगे कब। यह ठीक नहीं है। बच्चों को खेलने के लिए उत्साहित करना चाहिए। अगर सरकार की नीतियों में खेल से रोजगार का जुड़ाव हो तो फिर माता-पिता के मन में भी बच्चे के भविष्य को लेकर किसी तरह की आशंका-चिंता नहीं रहेगी। खेल के प्रति उत्साहजनक वातावरण निर्मित न होने के कारण ही आज देश अंतर्राष्ट्रीय खेल पदकों की फेहरिस्त में नीचले पायदान पर है। हां, यह सही है कि अब पहले के मुकाबले ओलंपिक और एशियाड खेलों में भारत के खिलाड़ी उत्तम प्रदर्शन कर रहे हैं। वे पदक जीतकर देश का मान बढ़ा रहे हैं। लेकिन सच यह भी है कि आज की तारीख में देश में खेल का मतलब क्रिकेट तक सीमित रह गया है। बाकी खेल दोयम दर्जे की स्थिति में हैं। फुटबाल, कबड्डी, तीरंदाजी, जिमनास्टिक जैसे खेलों के खिलाड़ियों को उस तरह का सम्मान और पैसा नहीं मिल रहा है जितना कि क्रिकेटरों को मिलता है। यहां तक कि विज्ञापनों में भी क्रिकेटर ही छाए रहते हैं। यह ठीक नहीं है। भारत को अपने पड़ोसी देश चीन से सबक लेना चाहिए कि 1949 में आजाद होने के बाद 1952 के ओलंपिक में एक भी पदक नहीं जीता। लेकिन 32 वर्ष बाद 1984 के ओलंपिक में 15 स्वर्ण पदक झटक लिए। आज चीन हर ओलंपिक खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर दुनिया को अचंभित कर रहा है। उसके ओलंपिक पदकधारकों में महिलाओं की तादाद भी अच्छी रहती है। अब भारत में भी खेलों को लेकर उत्साह बढ़ा है और महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। उचित होगा कि भारत भी चीन की तरह खेल को अपनी शीर्ष प्राथमिकता में शामिल कर अपनी नीतियों को उसी अनुरुप ढ़ाले। इससे अपेक्षित परिणाम मिलने तय हैं। इसके लिए भारत को गांवों से लेकर नगरों तक के खेल की बुनियादी ढांचे में आमुलचूल परिवर्तन करना होगा। उसे खेल प्रशिक्षण की आधुनिक अकादमियों की स्थापना के साथ-साथ समुचित प्रशिक्षण, खेल धनराशि में वृद्धि तथा प्रतियोगिताओं का आयोजन करना होगा। उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों एवं प्रशिक्षकों को सम्मानित करना होगा। यही नहीं मेजर ध्यानचंद जैसे अन्य महान खिलाड़ी को भारत रत्न की उपाधि से विभुषित करना होगा। अच्छी बात है कि भारत सरकार ने उनके नाम से खेल पुरस्कार को जोड़ने का एलान कर दिया है। आज भारत के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मन पद्मभूषण से सम्मानित मेजर ध्यानचंद जी का जन्मदिन है। खेल में उनके महत्वपूर्ण योगदान के सम्मान में उनके जन्मदिन को भारत में खेल दिवस के रुप में मनाया जाता है। मेजर ध्यानचंद विश्व हाॅकी में शुमार महानतम खिलाड़ियों में से एक अद्भुत खिलाड़ी रहे हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा व लगन से देश का मस्तक गौरान्वित किया। दो राय नहीं कि अब खेलों के प्रति बदलते नजरिए से भारत खेल के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति करना शुरु कर दिया है। लेकिन जब तक खेल के विकास के लिए ईमानदार और स्पष्ट नीति का अनुपालन व क्रियान्वयन नहीं होगा और खेल को रोजगार से जोड़ा नहीं जाएगा तब तक भारत को खेल की शीर्षतम उपलब्ध्यिों की फेहरिस्त में सम्मानजनक स्थान नहीं मिलेगा।