अरविंद जयतिलक
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी इंटरगवर्नमेंटल पैनल (आईपीसीसी) की रिपोर्ट चिंतित करने वाला है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान से मानव समुदाय को खाद्य पदार्थ व पेयजल की कमी से लेकर आर्थिक नुकसान व बीमारियों सरीखे कई अन्य अप्रत्याशित संकटों का सामना करना पड़ सकता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन से तटीय क्षेत्रों में समुद्र का जलस्तर उठेगा और इस कारण होने वाले नुकसान में विेश्व के 20 देशों में तकरीबन 12 देश एशिया के ही होंगे। रिपोर्ट के मुताबिक इन देशों के तकरीबन 3.5 करोड़ लोग बुरी तरह प्रभावित होंगे। इसमें भारत भी शामिल है जिसका तटीय क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की चपेट में होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्र का जलस्तर बढ़ने से अकेले मुंबई में ही वर्ष 2050 तक 3.77 लाख करोड़ रुपए का नुकसान होगा। रिपोर्ट के मुताबिक 1 से चार डिग्री तक औसत तापमान में वृद्धि से भारत में चावल का उत्पादन 10 फीसद से 30 फीसद तक घट सकता है। इसी तरह मक्का उत्पादन में 25 से 70 फीसद तक गिरावट आ सकती है। हिंद महासागर में मछलियां मिलनी 20 फीसद तक कम हो जाएगी। अगले एक सौ साल में भारत को सकल घरेलू उत्पाद में सर्वोच्च स्तर से 92 फीसद गिरावट का सामना करना पड़ सकता है। रिपोर्ट के आंकड़ों पर नजर डालें तो जलवायु परिवर्तन से न सिर्फ आर्थिक नुकसान का सामना करना होगा बल्कि मानवता को कई तरह की बीमारियों से भी जूझना होगा। शोधकर्ताओं ने डेंगू, मलेरिया के अलावा सायनोबैक्टीरिया के बढ़ने और उनसे फेलने वाले जहर की चेतावनी दी है। इसके अलावा भारत समेत एशिया, यूरोप, अफ्रीका और उत्तरी अमेरिका में आने वाले समय में अल्फाटाॅक्सिन के फेलने की आशंका जतायी गयी है। उल्लेखनीय है कि यह कैंसर की बड़ी वजहों में से एक है। रिपोर्ट में यह भी आशंका जताया गया है कि भारत में साबरमती व गंगा तथा पाकिस्तान में सिंधु नदी घाटी में 2050 तक सूखे की स्थिति बन सकती है। इसके अलावा पानी की कमी से पूरे एशिया में सूखा पड़ने की घटनाएं 20 फीसद तक बढ़ सकती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जीवाश्म ईंधन का उपयोग बढ़ने से हालात और अधिक बदतर होंगे। यानी 2040 तक पेट्रोल-डीजल की खपत में अमेरिका को छोड़ भारत दूसरे नंबर और चीन पहले नंबर पर होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इस समय भारत में वैट-बल्ब तापमान 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तक है। अगर यह बढ़कर 35 डिग्री सेल्सियस हो गया तो यह जानलेवा साबित हो सकता है। उल्लेखनीय है कि ऐसा मौसम जिसमें गर्मी और उमस दोनों अधिक हो, उसे ताममान का वैट-बल्ब इफेक्ट कहा जाता है। वैज्ञानिकों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यतः ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार है और इससे निपटने की त्वरित कोशिश नहीं हुई तो आने वाले वर्षों में धरती का खौलते कुंड में परिवर्तित होना तय है। अमेरिकी वैज्ञानिकों की मानें तो वैश्विक औसत तापमान पिछले सवा सौ सालों में अपने उच्चतम स्तर पर है। औद्योगिकरण की शुरुआत से लेकर अब तक तापमान में 1.25 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। आंकड़ों के मुताबिक 45 वर्षों से हर दशक में तापमान में 0.18 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है। आइपीसीसी के आंकलन के मुताबिक 21 सवीं सदी में पृथ्वी के सतह के औसत तापमान में 1.1 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने वायु में मौजूद आॅक्सीजन और कार्बन डाईआॅक्साइड के अनुपात पर एक शोध में पाया है कि बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से आॅक्सीजन की मात्रा तेजी से कम हो रही है। पिछले आठ सालों में वातारवरण से आॅक्सीजन काफी रफ्तार से घटी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टाकर्टिका के विशाल हिमखण्ड पिघल जाएंगे। देखा भी जा रहा है कि बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बर्फ चिंताजनक रुप से पिघल रही है। वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ते तापमान के कारण दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से कम रह गयी है। हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं। 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं। कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है। अनुमानित भूमंडलीय तापन से जीवों का भौगोलिक वितरण भी प्रभावित हो सकता है। कई जातियां धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी। जातियों के वितरण में इन परिवर्तनों का जाति विविधता तथा पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं इत्यादि पर गहरा असर पड़ेगा। पर्यावरणविदों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यतः ग्रीन हाउस गैस, वनों की कटाई और जीवाश्म ईंधन का दहन है। तापमान में कमी तभी आएगी जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी। कार्बन उत्सर्जन के लिए सर्वाधिक रुप से कोयला जिम्मेदार है। हालांकि ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट की रिपोर्ट पर गौर करें तो अमेरिका ने कोयले पर अपनी निर्भरता काफी कम कर दी है। इसके स्थान पर वह तेल और गैस का इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन भारत की बात करें तो उसकी कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कोयले पर निर्भर है। अच्छी बात यह रही कि अमेरिका ने भी 2030 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 50 फीसद की कटौती का एलान किया है। भारत और अमेरिका ने पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए एक नया उच्चस्तरीय यूएस-इंडिया क्लाइमेट एंड ग्रीन एनर्जी एजेंडा 2030 साझेदारी शुरु की है। भारत ने 2030 तक 450 गीगावाॅट अक्षय उर्जा का लक्ष्य हासिल करने का महत्वकांक्षी लक्ष्य रख दुनिया के सामने मानक तय कर दिया है। याद होगा भारत ने गत वर्ष पहले पेरिस जलवायु समझौते को अंगीकार करने के बाद क्योटो प्रोटाकाल के दूसरे लक्ष्य को अंगीकार करने की मंजूरी दे दी। इसके तहत देशों को 1990 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 18 फीसद तक घटाना होगा। भारत के इस कदम से अन्य देश भी इसे अंगीकार करने के लिए आगे आएंगे। उल्लेखनीय है कि 2020 से कार्बन उत्सर्जन को घटाने संबंधित प्रयास शुरु करने के लिए दिसंबर, 2015 को यह संधि हुई। इस संधि पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किए। 126 देश इसे अंगीकार कर चुके हैं। भारत ने 2 अक्टुबर, 2016 को इसे अंगीकार किया। फिर कुछ अन्य देशों द्वारा इसे अंगीकार किए जाने पर 4 नवंबर, 2016 को यह प्रभावी हुआ। इसके तहत बढ़ते वैश्विक औसत तापमान को दो डिग्री सेल्सियस पर ही रोकने का लक्ष्य तय है। पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने के लिए कंक्रीट के जंगल का विस्तार और अंधाधुंध पर्यावरण दोहन पर लगाम कसना होगा। जंगल और वृक्षों का दायरा बढ़ाना होगा। पेड़ और हरियाली ही धरती पर जीवन के मूलाधार हैं। वनों को धरती का फेफड़ा कहा जाता है। वृक्षों और जंगलों का विस्तार होने से धरती के तापमान में कमी आएगी। लेकिन विडंबना है कि वृक्षों और जंगलों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र की ‘ग्लोबल फॅारेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट’ (जीएफआरए) की रिपोर्ट में कहा जा चुका है कि 1990 से 2015 के बीच कुल वन क्षेत्र तीन फीसद घटा है और 102,000 लाख एकड़ से अधिक का क्षेत्र 98,810 लाख एकड़ तक सिमट गया है। यानी 3,190 लाख एकड़ वनक्षेत्र में कमी आयी है। गौर करें तो यह क्षेत्र दक्षिण अफ्रीका के आकार के बराबर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राकृतिक वन क्षेत्र में कुल वैश्विक क्षेत्र की दोगुनी अर्थात छः फीसद की कमी आयी है। वनों के विनाश से वातावरण जहरीला हुआ है और प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइआॅक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है। बेहतर होगा कि वैश्विक समुदाय बढ़ते तापमान से निपटने के लिए कार्बन डाईआॅक्साइड के उत्सर्जन पर नियंत्रण लगाएं।